गुरु व्यक्ति को बंधनों से मुक्त करता है

By: Jul 7th, 2018 12:05 am

गुरुओं, अवतारों, पैगंबरों, ऐतिहासिक पात्रों तथा कांगड़ा ब्राइड जैसे कलात्मक चित्रों के रचयिता सोभा सिंह पर लेखक डा. कुलवंत सिंह खोखर द्वारा लिखी किताब ‘सोल एंड प्रिंसिपल्स’ कई सामाजिक पहलुओं को उद्घाटित करती है। अंग्रेजी में लिखी इस किताब के अनुवाद क्रम में आज पेश हैं ‘गुरु’ पर उनके विचार …

-गतांक से आगे…

ऐसा कोई नहीं है जो किसी अन्य को कुछ दे सकता है। गुरु बाहर है। सतगुरु, सच्चा गुरु, भगवान भीतर ही है, दिल की सीट पर बैठा है वह। ‘सतगुरु तुमरी काज सवारी’-सच्चा गुरु आपकी समस्याओं को ठीक ढंग से व्यवस्थित करेगा। इसका मतलब है कि आपका वास्तविक सेल्फ आपका ध्यान रखेगा। यह आपकी अंतरात्मा है जिसे आपका ध्यान रखना होता है। वाहेगुरु अर्थात भगवान परम सत्य है। आपकी अपनी आत्मा इस सर्वोच्च सिद्धांत का एहसास करवाएगी।

बाहर से गुरु का काम केवल आपका मार्गदर्शन करना है। वह इससे ज्यादा कुछ नहीं कर सकता है। जो व्यक्ति भगवान अर्थात सर्वोच्च विधान को महसूस करता है, वह ‘उसका आदमी’ बन जाता है तथा फिर वह हर जगह व हर चीज में भगवान को महसूस करता है। प्रकृति अर्थात भगवान के आदेश से स्वतंत्र कुछ भी नहीं है। ‘सतगुरु सिख के बंधन काटे’-सच्चा गुरु व्यक्ति को उसके बंधनों से मुक्त करेगा। सच्चे गुरु के पास स्वयं के पास से देने के लिए कुछ नहीं है। वह दौलत के आवरण को हटा देगा जो उसे अपनी वास्तविकता निहारने की इजाजत नहीं देता है।

वह व्यक्ति को उसके पलायन से छुटकारा दिलाएगा और उसे स्वयं को पहचानने के योग्य बनाएगा। विचार तथा हकीकत में आपकी कार्रवाई आपके एहसास का मापन है। अगर आपके रास्ते में एक सांप आता है और आप उसके काटने का परिणाम जानते हैं, तो आप इससे बचने की कोशिश करेंगे अथवा इसे मार देंगे। इसी तरह अपनी अज्ञानता में, आप अहम से अपने आप को सुरक्षित नहीं करते हैं। सच्चाई जानने पर आप भगवान के डिजाइन में अपनी महत्त्वहीनता समझ जाते हैं तथा आपका अहम खत्म हो जाता है। अहम विवर्धन का भाव तैयार करता है और उसकी अज्ञानता में आदमी इसे अविवेक के साथ खुश करना चाहता है। वह एक महिला को माता, बहन तथा पुत्री कहता है, परंतु अपने अहम के क्षण में वह सब कुछ भूल जाता है।

सत्य का प्रकाश उसके गलत विचारों को दूर करता है। तब, वह वाहेगुरु अर्थात भगवान के क्रम में सब चीजों की सही कीमत की प्रशंसा करता है। जब एक शिष्य अपनी अनुभूत सेल्फ में सेटल हो जाता है, तो यह वह समय है जब उसे अपने गुरु को भूल जाना चाहिए। यह दिमाग में रखना चाहिए कि जब आप किसी को उसकी योग्यताओं से स्वयं को पूरी तरह संतुष्ट करते हुए गुरु के रूप में स्वीकार कर लेते हैं, तब उसके बाद उनके बारे में आपको कोई संदेह नहीं होना चाहिए। आपको उसमें पूरा विश्वास होना चाहिए तथा उसकी साधारण व सामान्य कमियों की उपेक्षा कर देनी चाहिए। आपको ध्यानपूर्वक यह देखना है कि वह आपको उस उद्देश्य को समझने की ओर ले जा रहा है, जिसे आपको उसके पास आकर पूरा करना है अर्थात अनुभूति। इसके बाद आपका कर्त्तव्य है अपना लक्ष्य पाने के लिए अपने सर्वोत्तम प्रयास करना।

आपको फिर इसमें पूरी सहभागिता करते हुए इसे अपना धर्म मानते हुए इसमें पूरी तरह खो जाना है। इसके अलावा खोखली पूजा व दिखावटी सुमिरन, गहराई में पहुंचे बिना, का कोई लाभ नहीं है, इसका कोई अर्थ नहीं है तथा यह व्यर्थ अभ्यास है। एक गुरु वह है जो आपको सतगुरु अर्थात सच्चे भगवान के समक्ष आपका परिचय करवाता है। उसे आपको भगवान से मिलाना नहीं है, बल्कि इसे वह आपके काम के रूप में छोड़ देता है। आपको स्वयं वहां पहुंचना है। गुरु आपको केवल निर्देश ही देगा। आपको मार्ग स्वयं चुनना है तथा अकेले ही वहां जाना है। सतगुरु आपका अंतर्ज्ञान है। अंतर्ज्ञान आपकी अतंरात्मा की आवाज है। यह एक्सट्रासेंसरी अवधारणा नहीं है, न ही एप्रीशिएटिव सेंस है। हम इसे केवल तभी सुन सकते हैं जब यह लालसा, क्रोध, लालच, मोह तथा अहम से जनित दोषी भाव के जरिए विकृत न हो।    -क्रमशः


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