मोदी का उप्र मिशन

By: Jul 31st, 2018 12:05 am

प्रधानमंत्री मोदी लगातार दो दिन लखनऊ के दौरे पर रहे। यह उनका एक माह में छठा दौरा था। आजकल प्रधानमंत्री बार-बार उप्र जाते हैं, शिलान्यास और उद्घाटन करते हैं, जनता को संबोधित भी करते हैं और यह सिलसिला जारी है। प्रधानमंत्री के लिए ऐसे प्रवास सामान्य नहीं हैं। वह उप्र का मिथ बदलना चाहते हैं, निवेश को एक माकूल माहौल देना चाहते हैं, ताकि उसका लाभ 2019 में मिल सके। चूंकि 2019 की चुनावी लड़ाई बड़ी और चुनौतीदार है, लिहाजा प्रधानमंत्री बार-बार उप्र के दौरे कर रहे हैं। यह सिलसिला और भी बढ़ेगा, क्योंकि प्रधानमंत्री के हर माह 2-4 दौरे तय किए जा रहे हैं। यह प्रधानमंत्री मोदी की उप्र के प्रति प्रतिबद्धता और घबराहट का संकेत है। उप्र में हिंदुत्व के मुद्दे का भी विस्तार किया जा रहा है और विकास पर भी भगवा राजनीति केंद्रित रखी जा रही है। अयोध्या में भगवान राम का भव्य मंदिर फिलहाल बनाया नहीं जा सका है, क्योंकि मामला सर्वोच्च न्यायालय के विचाराधीन है। लिहाजा इलाहाबाद के ‘अर्द्धकुंभ’ के जरिए हिंदुओं को गोलबंद और ध्रुवीकृत करने की कोशिश है। इलाहाबाद का नाम बदलकर ‘प्रयागराज’ करने का भी प्रस्ताव है। यह संयोग ही है कि इस बार कुंभ और आम चुनाव में मात्र दो माह का अंतर है। कुंभ के लिए मोदी सरकार ने 2200 करोड़ रुपए देने का फैसला किया है। कुंभ का बजट 4600 करोड़ रुपए से अधिक का है। बाकी खर्च उप्र की योगी सरकार करेगी। कोशिश यह होगी कि आस्था और अर्थव्यवस्था के आधार पर उप्र को इस तरह जीता जाए, ताकि भाजपा के 75 सांसद जीत हासिल कर सकें। 2014 में भाजपा-एनडीए के 73 सांसद जीते थे, लेकिन बसपा-सपा और रालोद गठबंधन के मुकाबले भाजपा कुल 80 सीटों में से 75 जीतने का मिशन कैसे पूरा कर सकेगी? यही साझा चिंता प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की है। यदि उप्र में बाजी पलट गई, तो लोकसभा में बहुमत के आंकड़े-272-तक का मिशन नाकाम हो सकता है। भाजपा को राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, हरियाणा और कर्नाटक आदि राज्यों में चुनावी चुनौतियां झेलनी पड़ेंगी, यह लगभग निश्चित है। लिहाजा प्रधानमंत्री मोदी का उप्र में ‘मिशन 75’ है। उप्र बार-बार जाने की कोई मजबूरी नहीं है, क्योंकि प्रधानमंत्री का जवाब है कि वह उप्र से ही सांसद हैं, लिहाजा उप्र के अपने हैं, उनके दौरों पर सवाल बेमानी हैं। वह तो हररोज उप्र जा सकते हैं। बहरहाल प्रधानमंत्री कुछ भी स्पष्टीकरण दे सकते हैं, लेकिन अभी तक 2019 के चुनावों के मद्देनजर महागठबंधन या विपक्षी मोर्चे के गठन का आगाज तक नहीं हुआ है। अलबत्ता गोरखपुर, फूलपुर और कैराना तीनों लोकसभा उपचुनावों में विपक्ष ने जो प्रयोग किया और वह सफल भी रहा, तीनों सीटें भाजपा के पास थीं, लिहाजा प्रधानमंत्री मोदी और अमित शाह का आशंकित होना स्वाभाविक है। शाह इलाहाबाद गए और पूजा-पाठ के जरिए साधु-संतों को मनाते रहे कि वे भाजपा का ही समर्थन करें। यह नए किस्म का हिंदुत्व था। 2019 के मद्देनजर विकास के साथ-साथ हिंदुत्व को भी मुख्य मुद्दा इसलिए तय किया जा रहा है। कुंभ 2013 में भी उप्र में सपा सरकार के दौरान मनाया गया था। यूनेस्को ने उसे ‘विश्व धरोहर’ का दर्जा दिया था। अब 2019 की शुरुआत में ही इलाहाबाद में अर्द्धकुंभ का आयोजन भाजपा सरकार के तहत किया जा रहा है। राम मंदिर के समानांतर कुंभ से हिंदुओं का कितना ध्रुवीकरण होगा, इसका आकलन फिलहाल नहीं किया जा सकता, लेकिन यह गौरतलब है कि विकास के नए विश्वास के मद्देनजर अब उप्र में हजारों करोड़ के निवेश आने लगे हैं। सभी बड़ी कंपनियां उप्र में उद्योग लगा रही हैं और रोजगार की संख्या भी घोषित कर रही हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने रविवार को ही 60,000 करोड़ रुपए की 81 परियोजनाओं के शिलान्यास किए हैं। विकास और औद्योगिक निवेश के साथ-साथ प्रधानमंत्री ने कांग्रेस और वामदलों के पुरातन समाजवाद पर भी प्रहार किया है। ऐसे निवेशों और उद्योग को बढ़ावा देने को ‘भौंडा पूंजीवाद’ करार देने वालों को भी प्रधानमंत्री मोदी ने करारा जवाब दिया। उन्होंने सारांश में सवाल किया कि उद्योगपतियों का भी देश के निर्माण और विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान है, फिर उन्हें चोर-लुटेरा समझना या अपमानित करना कहां तक उचित है? प्रधानमंत्री का कहना ठीक था कि उद्योगपति ही अर्थव्यवस्था की बुनियाद हैं, लिहाजा उनके साथ खड़ा होने में उन्हें डर नहीं लगता। प्रधानमंत्री मोदी ने इस मौके पर अपनी प्राथमिकता तय करते हुए विपक्षियों के आरोपों को भी ध्वस्त कर दिया। उप्र प्रवास के दौरान बेशक मौका था किसी योजना के शिलान्यास या लोकार्पण का, लेकिन प्रधानमंत्री ने ‘चौकीदार नहीं, भागीदार’ बनाम ‘सौदागर, ठेकेदार नहीं’ के जरिए चुनावी भाषण ही दिए। बहरहाल उप्र में प्रधानमंत्री और भाजपा का मिशन मुश्किल जरूर है, लेकिन असंभव नहीं है। भविष्य का इंतजार करते हैं।


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