सोशल मीडिया बैन क्यों नहीं ?

By: Jul 4th, 2018 12:05 am

सोशल मीडिया हमारे संस्कारों के मुताबिक नहीं है। यह हमारी सभ्यता और मानसिकता के मुताबिक भी नहीं है। सोशल मीडिया की संप्रेषणीयता ‘असामाजिक’ और ‘अश्लील’ है। यह ‘मानसिक आतंकवाद’ है, ‘ऑनलाइन गुंडों, बदमाशों’ का एक प्लेटफार्म भी है। इसे मीडिया की संज्ञा देना भी सरासर गलत है। मीडिया खबरों का खुलासा करता है, विचारों की अभिव्यक्ति का एक सार्थक मंच है, सूचनाओं का एक ठोस माध्यम है। सोशल मीडिया हमें क्या दे रहा है? भड़ास के अपशब्द, जानवरों की देह पर प्रधानमंत्री मोदी के विकृत चेहरे और अब विदेश मंत्री सुषमा स्वराज के खिलाफ ट्रोलिंग के अंबार और कांग्रेस की राष्ट्रीय प्रवक्ता  प्रियंका चतुर्वेदी की 10 साला बेटी को बलात्कार की धमकी…! यह कैसा मीडिया है? फेसबुक पर सुप्रीम कोर्ट के एक वरिष्ठ वकील लिखते हैं-भाजपा के कफन में मोदी हर रोज एक कील ठोक रहा है…संघ आवारा आशिक बना हुआ है।’ कोई बताए कि हमें ऐसी टिप्पणियों से हासिल क्या होता है? यह अभिव्यक्ति की आजादी का अश्लील दुरुपयोग नहीं है, तो फिर क्या है? बेशक सोशल मीडिया प्रधानमंत्री मोदी को बेहद प्रिय है। दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल भी इसी माध्यम के जरिए पनपे हैं और कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की सोशल मीडिया टीम भी अब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सक्रिय है। बेशक प्रधानमंत्री मोदी ने सोशल मीडिया के जरिए देश को संबोधित किया है और चुनाव की फिजाएं भी बदली हैं, लेकिन आमतौर पर लोग एक-दूसरे को गालियां देते हैं। यह कैसा मीडिया है? सुषमा स्वराज देश की विदेश मंत्री हैं। हरियाणा सरकार में वह 1987 के दौर में शिक्षा मंत्री भी रह चुकी हैं। लोकसभा में विपक्ष की नेता भी थीं। वह कोई सामान्य महिला नहीं है, जिस पर यूं ही फब्तियां कस दी जाएं। यदि हिंदू-मुसलमान के एक बेजान मुद्दे पर सोशल मीडिया उनके खिलाफ अनैतिक ट्रोल का अभियान चलाएगा, तो फिर नैतिक और सुरक्षित कौन होगा? लिहाजा महिला सुरक्षा के तमाम आश्वासन और अभियान ‘जुमलेबाजी’ के अलावा कुछ भी नहीं होंगे। पासपोर्ट हिंदू या मुस्लिम नागरिक का हो, उसका बाकायदा एक विभाग है। विदेश मंत्री उस विभाग की ‘क्लर्क’ नहीं हैं। यदि तन्वी सेठ पासपोर्ट प्रकरण में कोई विवाद है, तो उसका निपटारा भी विभाग करेगा, विदेश मंत्री को भद्दी गालियां क्यों दी जा रही हैं? आश्चर्य है कि सुषमा स्वराज के खिलाफ अपशब्दों के इस अभियान में ‘हिंदूनाम’ ज्यादा हैं! भाजपा खामोश रही है और यह आलेख लिखे जाने तक कोई प्राथमिकी भी दर्ज नहीं की गई थी। प्रधानमंत्री मोदी तो ऐसे मुद्दों पर टिप्पणी करना भी उचित नहीं मानते। अलबत्ता गृहमंत्री राजनाथ सिंह की नींद जरूर खुली है कि सोशल मीडिया के मद्देनजर प्रभावी कानून बनाया जाएगा। गृहमंत्री ने कहा है कि विदेश मंत्री सुषमा स्वराज को इस तरह ट्रोल करना गलत है। दरअसल तन्वी पासपोर्ट प्रकरण में सुषमा ने एक ट्वीट को रिट्वीट करके जानना चाहा था कि ऐसी ट्रोलिंग को क्या आप स्वीकार करते हैं? हैरानी है कि 43 फीसदी लोगों ने ‘हां’ कहा, जबकि 57 फीसदी ने ‘न’ में जवाब दिया। तब विदेश मंत्री ने लिखा था कि लोकतंत्र में मतभिन्नता स्वाभाविक है। आलोचना अवश्य करो, लेकिन अभद्र भाषा में नहीं, सभ्य भाषा में की गई आलोचना ज्यादा असरदार होती है। दरअसल बुनियादी सवाल यह है कि हमें सोशल मीडिया की जरूरत ही क्या है? फेसबुक, व्हाट्सऐप, ट्विटर, इंस्टाग्राम पश्चिमी देशों की आयातित देन हैं। याद करें, जब कथित मीडिया के ये प्रकार भारत में प्रचलित नहीं थे, तो क्या हम अधूरे और संवादहीन थे? संप्रेषणीयता का कोई संकट भारत में था क्या? क्या सूचनाओं के काले बीहड़ हमारे सामने मौजूद थे? कुछ अपवादों को छोड़ दें, तो सोशल मीडिया भारत के संदर्भ में बेमानी है और रहेगा। एक उदाहरण ही पर्याप्त है। बीती 1 जुलाई को जब युगांडा के लोग जागे, तो वे सोशल मीडिया का इस्तेमाल नहीं कर पा रहे थे। दरअसल वहां की सरकार ने सोशल मीडिया के इस्तेमाल पर टैक्स लगा दिया था। पिछले साल चुनाव के दौरान वहां की टेलीकॉम नियामक संस्था ने सोशल साइट्स पर प्रतिबंध लगा दिया था। युगांडा सरकार की मंशा फेक न्यूज पर नकेल कसने और युवाओं का बेशकीमती वक्त बचाने की थी। ऐसा भारत में क्यों नहीं हो सकता? सोशल मीडिया पर पाबंदी चस्पां क्यों नहीं की जा सकती? सोशल मीडिया पर अपनी भड़ास निकालने के अलावा लोगों के अपने खास चित्र, बयान / टिप्पणी, जन्मदिन की सूचनाएं या केक काटने के फोटो, कहीं घुमक्कड़ी के दौरान पोज बनाकर खिंचाए गए फोटो मानो वे राजेश खन्ना की औलाद हों! सार्वजनिक और राष्ट्रीय जीवन में इनका महत्त्व और हासिल क्या है? यदि हम अमिताभ बच्चन का वाक्यनुमा बयान न भी पढ़ें, तो हम क्या खो देंगे? कितने फीसदी लोग हैं, जो सोशल मीडिया पर डाले गए आलेख, विचार पढ़ते हैं या किसी विशेषज्ञ की टिप्पणी पढ़कर प्रतिक्रिया देते हैं। हमारा मानना है कि जवाब नगण्य होगा, तो फिर सोशल मीडिया से हमारे समाज को विकृत क्यों होने दें?


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