पूर्वोत्तर में सुशासन-विकास ही मुख्य मसले

By: Aug 20th, 2018 12:07 am

कुलदीप नैयर

लेखक, वरिष्ठ पत्रकार हैं

सत्तारूढ़ भाजपा को यह समझना होगा कि यह क्षेत्र एक बहुलतावादी समाज है। इसलिए यहां कुशल प्रशासन व आर्थिक विकास पर जोर देना चाहिए। उसे अपना हिंदुत्ववादी एजेंडा इन राज्यों पर नहीं लादना चाहिए। लोकसभा के आगामी चुनाव अगले वर्ष होने हैं। ऐसी स्थिति में शासक दल पूर्वोत्तर की उपेक्षा नहीं कर सकता है। असम से लोकसभा की 14 सीटों के साथ इस पूरे क्षेत्र से 25 लोकसभा सीटें हैं। पिछले समय के कई उपचुनावों में भाजपा की हार व शासक दल से अलग होते उसके साथियों की दृष्टि से नरेंद्र मोदी के लिए एक-एक सीट महत्त्वपूर्ण है। यह भी कि इस क्षेत्र में राजनीतिक वफादारी में जल्दी ही बदलाव आ जाता है…

सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी सात पूर्वोत्तर राज्यों में से छह में भली-भांति प्रतिस्थापित है। यह कुछ ऐसा है जो कल्पना योग्य नहीं है, जब विभाजन पर विचार हुआ था। फकरूद्दीन अली अहमद, जो कांग्रेस के एक प्रख्यात नेता थे, ने एक बार स्वीकार किया था कि वोट के लालच में पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) जैसे पड़ोसी देशों से मुसलमान असम में लाए गए थे। उन्होंने कहा था कि कांग्रेस ने यह एक उद्देश्य के साथ किया क्योंकि हम असम को बनाए रखना चाहते थे। इसने राज्य के लोगों के लिए एक गंभीर समस्या पैदा कर दी। तब से लेकर घुसपैठ का मुद्दा पूर्वोत्तर, खासकर असम में काफी विवादित रहा है। किंतु तब पूर्वोत्तर में अवैध प्रवास पर नियंत्रण की प्रक्रिया, जो ब्रिटिश राज में शुरू हुई, राष्ट्र व राज्य स्तर पर किए गए विभिन्न प्रयासों के बावजूद अधूरी ही रही। परिणामस्वरूप बड़े स्तर पर प्रवास ने सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक व पर्यावरणीय स्थितियों को प्रभावित किया जिसके कारण पूर्वोत्तर के लोग चिंताएं प्रकट करने लगे। जब संसद में प्रवास (असम से निष्कासन) कानून 1950 पारित किया गया, तो पश्चिमी पाकिस्तान में लोगों के देश निष्कासन ने विरोध के भाव तीव्र कर दिए। इस कानून में पूर्वी पंजाब में नागरिक विद्रोहों के कारण खो गए लोगों को इजाजत दी गई थी।

परिणामस्वरूप प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू तथा लियाकत अली खान के बीच एक समझौता हुआ, जिसमें 1950 में निकाले गए लोगों को भारत लौटने की इजाजत दी गई। 1962 के भारत-चीन युद्ध के दौरान यह रिपोर्ट आई कि पाकिस्तानी झंडों के साथ कुछ घुसपैठिए सीमाओं पर देखे गए। इसका परिणाम यह हुआ कि असम प्लान बना जिसे नई दिल्ली ने इसलिए अपनाया ताकि 1964 में पाकिस्तान से घुसपैठ रोकी जा सके। लेकिन पूर्वी पाकिस्तान में 70 के दशक के शुरुआत में लोगों पर जो अत्याचार जारी रहे, उसके कारण निर्बाध रूप से शरणार्थियों का प्रवेश भारत में बड़े स्तर पर होता रहा। 1972 में इंदिरा गांधी व मुजीब उर रहमान के बीच हुए समझौते में भारत में अवैध प्रवासियों का स्तर फिर से परिभाषित किया गया तथा इसमें घोषणा हुई कि जो वर्ष 1971 से पहले आए हैं, उन्हें गैर-बांग्लादेशी घोषित किया गया। इस समझौते से असम के लोग नाराज हो गए तथा उन्होंने विरोध प्रदर्शन शुरू कर दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि अवैध प्रवास (ट्रिब्यूनल द्वारा तय) कानून 1983 अस्तित्व में आया। इस कानून का लक्ष्य ट्रिब्यूनल के जरिए अवैध प्रवासियों की पहचान व उनका निष्कासन करना था। परंतु यह कानून पूर्वोत्तर में चिरस्थायी प्रवास समस्या को हल नहीं कर पाया। इसके शीघ्र बाद जब 1985 में असम समझौता स्वीकार किया गया तो इसमें 25 मार्च, 1971 को असम में अवैध प्रवास तय करने के लिए कटआफ तिथि के रूप में स्वीकार किया गया। इसी दिन बांग्लादेश का जन्म हुआ था। इस समझौते में कहा गया है कि जो लोग इस तिथि को या इससे पहले भारत में आए हैं, उन्हें नागरिक माना जाएगा तथा जो इसके बाद आए हैं उन्हें अवैध प्रवासी माना जाएगा तथा कानून के अनुसार उन्हें देश से निकाला जाएगा। इस समझौते के विरोध में उपजे विद्रोही गुट आल असम स्टूडेंट्स यूनियन (आसू) के नेतृत्व में लामबंद हो गए तथा मांग करने लगे कि असम में बाहर से आए सभी लोगों को घुसपैठिया माना जाए तथा प्रवास के लिए कोई कटआफ तिथि तय करने के बजाय सभी को अवैध प्रवासी मानते हुए देश से निकाला जाए। इसके लिए आसू के नेतृत्व में आतंकवादी संघर्ष भी हुआ।  इसके बावजूद स्थानीय लोगों को कोई राहत नहीं मिल पाई तथा बाहर से आए लोगों को राशन कार्ड उपलब्ध करवा कर उन्हें मतदाता सूची में भी शामिल कर लिया गया। बांग्लादेशी प्रवासियों के बढ़ते जोड़ ने असम में स्थिति को भयंकर बना दिया। वास्तव में एक अनुमान के अनुसार राज्य में मुसलमानों की कुल आबादी बढ़कर 40 फीसदी हो गई है। इसका परिणाम यह हुआ कि कानून को रद करने के लिए वर्ष 2005 में सुप्रीम कोर्ट को दखल देना पड़ा। माननीय न्यायालय ने अपने फैसले में कहा कि इस कानून ने बड़ी समस्या पैदा की है तथा इसके कारण अवैध प्रवासियों की पहचान करना व उन्हें देश से निकालना मुश्किल हो गया है। इसके बावजूद बांग्लादेश से अवैध घुसपैठ जारी रही तथा अब यह मसला एक संवेदनशील मसला बन कर रह गया है। दुर्भाग्य से इस पर अब वोट हथियाने के स्वार्थ में राजनीति भी होने लगी है। पूर्वोत्तर में इस समस्या के खिलाफ एक दशक से हिंसक व अहिंसक आंदोलन भी चल रहे हैं, किंतु इस समस्या को अब तक हल नहीं किया जा सका है।

दुर्भाग्य से केंद्र में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी 1955 के नागरिकता अधिनियम में कुछ इस तरह के संशोधन करना चाहती है जिससे एक वर्ग विशेष को भारत में प्रवास की छूट मिल जाए, जबकि दूसरे वर्ग विशेष को वह अवैध प्रवासी मानती हुई देश से बाहर निकालना चाहती है। इस कारण यह मामला अब सांप्रदायिक रंग में रंग गया है। सांप्रदायिक आधार पर प्रवास को वैध व अवैध घोषित करने का तरीका स्व-स्वीकार्य नहीं है। असम के अधिकतर लोग इस प्रस्तावित संशोधन के खिलाफ हैं क्योंकि यह उस असम समझौते की भावना के विपरीत होगा जिसमें कहा गया है कि 25 मार्च 1971 के बाद बांग्लादेश से आए सभी लोगों को अवैध प्रवासी माना जाएगा तथा उन्हें देश से निकाल दिया जाएगा। मेरा मानना है कि केंद्र सरकार को इसके बजाय लंबित पड़े अंतरराज्यीय मसलों को सुलझाने के लिए कुछ प्रावधान करने चाहिए। विशेषकर असम के नागालैंड, मिजोरम, अरुणाचल व मेघालय से सीमा विवादों को सुलझाया जाना चाहिए। अरुणाचल के अलावा अन्य सभी उक्त राज्य असम से ही निकाल कर बनाए गए हैं। इसी तरह मणिपुर की भी मिजोरम व नागालैंड से सीमा समस्या है, इस मसले को भी संबोधित किया जाना चाहिए। इसके बावजूद पूर्वोत्तर कई महत्त्वपूर्ण मसलों पर एकजुट है। मिसाल के तौर पर इस क्षेत्र के लोगों, विशेषकर छात्रों से देश के कुछ में अच्छा व्यवहार नहीं किया जाता है। देश की राजधानी दिल्ली में भी इस क्षेत्र के समुदायों से समान व्यवहार नहीं किया जाता है। यह भावना प्रबल हो रही है कि यह राज्य केंद्र की प्राथमिकताओं में शामिल नहीं हैं तथा इन राज्यों पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया जाता है। ये राज्य चाहते हैं कि केंद्र इस क्षेत्र में विकास को प्राथमिकता दे। इस बात में कोई संदेह नहीं है कि इन राज्यों में अलगाव की भावना दूर करने के लिए केंद्र सरकार अब काफी प्रयास कर रही है तथा वह क्षेत्र को भावना के आधार पर जोड़ने को पहल करने में लगी हुई है। इस क्षेत्र में लगा अफस्पा कानून एक मुख्य मसला बना हुआ है।

केंद्र इसे धीरे-धीरे सभी राज्यों से हटाने में लगा हुआ है। इसके बावजूद इस दिशा में अभी और प्रयास किए जाने की जरूरत है। अगर कोई प्रावधान नहीं किए जाते हैं तो अवैध प्रवास भारत के लिए एक चुनौती बना रहेगा। इस पर अंकुश लगना चाहिए तथा अवैध प्रवासियों को निष्कासित किया जाना चाहिए। सत्तारूढ़ भाजपा को यह समझना होगा कि यह क्षेत्र एक बहुलतावादी समाज है। इसलिए यहां कुशल प्रशासन व आर्थिक विकास पर जोर देना चाहिए। उसे अपना हिंदुत्ववादी एजेंडा इन राज्यों पर नहीं लादना चाहिए। लोकसभा के आगामी चुनाव अगले वर्ष होने हैं। ऐसी स्थिति में शासक दल पूर्वोत्तर की उपेक्षा नहीं कर सकता है। असम से लोकसभा की 14 सीटों के साथ इस पूरे क्षेत्र से 25 लोकसभा सीटें हैं। पिछले समय के कई उपचुनावों में भाजपा की हार व शासक दल से अलग होते उसके साथियों की दृष्टि से नरेंद्र मोदी के लिए एक-एक सीट महत्त्वपूर्ण है। यह भी कि इस क्षेत्र में वफादारी में बहुत जल्दी बदलाव आ जाता है।

ई-मेल : kuldipnayar09@gmail.com


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