सहज समर्पण और निष्ठा

By: Aug 18th, 2018 12:02 am

बाबा हरदेव

जब मनुष्य छोटे से बालक की भांति सद्गुरु के सामने समर्पित भाव से उपस्थित होता है, तो अहंकार, आकांक्षा, वासना और विचार रूपी बोझ की पोटली जो यह (मनुष्य) अपने सिर पर लिए फिरता है उतर जाती है और फिर इस पर करुणा की वर्षा होनी शुरू हो जाती है…

समर्पण एक सरल तथा सहज दशा है, क्योंकि समर्पित भाव में पूर्ण होने की आकांक्षा का भाव है ही नहीं। समर्पण बड़ी भिन्न बात है, यह तो एक महान कला है। समर्पण जब भी घटित होता है यह अधूरे आदमी से निकलेगा। समर्पण का अर्थ है जैसा भी मैं हूं, शुभ, अशुभ, भला, बुरा वैसे का वैसा प्रभु चरणों में अपने को रख रहा हूं। मैंने अपने को बदलने की सब कोशिश कर ली, मगर कुछ होता नहीं देखा। सब कर्म और उपाय करके देख लिए, सब तरह से छलांग लगाई, कहीं से भी कहीं पहुंच नहीं पाया। सब तरह से असफल हो गया।

मानो बेसहारा असहाय अवस्था की स्थिति कुछ भी न छिपाना, सारी दशा को उघाड़ कर रख देना, पूर्ण सद्गुरु के हाथों में बागडोर दे देना ही समर्पण है। अगर सद्गुरु स्वीकार कर ले तो भाग्यशाली, न करे तो जानना स्वाभाविक है कि मैं योग्य नहीं, यानी पात्रता का कोई दावा नहीं।

किरति कर्म के विछुड़े करि कृपा मेलहु राम।

चारि कुंट दह दिस भ्रमे थकि आए प्रभ की साम।।

अब अपने आपको पूर्ण सद्गुरु के चरणों में सौंप देना ही असल में अहंकार से मुक्ति पाना है, क्योंकि अहंकार और समर्पण एक ही चीज के दो नाम हैं। जिस अनुपात से अहंकार छूटता जाएगा, उसी अनुपात से समर्पण होता जाएगा। एक सूफी कवि का भी फरमान हैः

खुदा को सौंप दो ए जोश! पुश्तारा गुनाहों का, चलोगे अपने सिर पर रख के ये बारे-गिरां कब तक।

अतः समर्पण भाव से भरपूर मनुष्य जीवन रूपी नाव को पाल से चलाता है। यह पाल को खोल देता है और खुद नाव में बैठ जाता है, जो हवा के रुख के अनुसार चलती है और कोई प्रयास नहीं करना पड़ता। इसी प्रकार जैसे एक छोटा सा बच्चा है, प्यासा है भूखा है, यह रोता है, चिल्लाता है (इसका रोना और चिल्लाना समर्पण भाव की ओर संकेत करता है) तो मां दौड़ी चली आती है और बच्चे की प्यास और भूख दूर कर देती है। अगर बच्चा सोचने लगे कि इसकी पात्रता है, योग्यता है कि इसे दूध पिलाया जाए तो जरूरी है कि बच्चा संकट में पड़ जाएगा। इसका रोना ही अपने आपको समर्पित कर देना है।

अतः समर्पण के पश्चात मनुष्य छोटे बच्चे की भांति सरल हो जाता है, जिसमें ‘मैं’ भाव अभी पैदा ही नहीं हुआ है और स्वभावतः जब छोटे बच्चे के सिर पर किसी प्रकार का बोझ रखा हो, तो हर एक हृदय चाहेगा कि बच्चे के सिर से बोझ उतार दिया जाए और इसे बोझ से मुक्त कर दिया जाए। जब मनुष्य छोटे से बालक की भांति सद्गुरु के सामने समर्पित भाव से उपस्थित होता है, तो अहंकार, आकांक्षा, वासना और विचार रूपी बोझ की पोटली जो यह (मनुष्य) अपने सिर पर लिए फिरता है उतर जाती है और फिर इस पर करुणा की वर्षा होनी शुरू हो जाती है। समर्पण युक्त मनुष्य एक बहती हुई नदी के पानी जैसा है, जो लगातार बहता रहता है और नित नया होता रहता है, क्योंकि नदी खोकर भी समाप्त नहीं होती। यह रोज भरती रहती है। इसी प्रकार मनुष्य जितना भी सदगुरु की कृपा से समर्पित हो जाता है उतना ही अपने आप को भरा हुआ पाता है। अपने भीतर रूपांतरण लाने की यही एक विधि है कि सदगुरु के चरणों में दिल और जान से समर्पित हो जाओ। समर्पण में अहंकार की जड़ कट जाती है और जहां अहंकार नहीं बल्कि समर्पण है, वहां पवित्रता है।


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