स्वच्छ ईंधन के लिए एथनोल का विकल्प

By: Aug 28th, 2018 12:05 am

कुलभूषण उपमन्यु

अध्यक्ष, हिमालयन नीति अभियान

इसलिए एथनोल को तरल ईंधन के विकल्प के रूप में विकसित करना और मान्यता देना जरूरी हो गया है। एथनोल प्रदूषणकारी नहीं है और भारत में इसके उत्पादन के लिए बहुत कच्चा माल भी है। एथनोल बनाने के लिए गन्ने का शीरा, सड़े-गले फल, मक्का, गेहूं काम आ सकता है…

वर्ष 2013 के आकलन के अनुसार भारत प्रतिदिन 3.7 मिलियन बैरल पेट्रोलियम उत्पाद उपयोग करता है, जबकि स्वयं भारत लगभग 1 मिलियन बैरल पेट्रोलियम तरल ईंधन का ही उत्पादन कर पाता है। चीन, अमरीका और रूस के बाद भारत दुनिया में चौथा सबसे बड़ा ऊर्जा का उपभोक्ता है। तरल पेट्रोलियम ईंधन की मांग अधिकतर परिवहन और औद्योगिक क्षेत्र में है। यह मांग लगातार बढ़ने ही वाली है। खनिज तेल पर ईंधन के लिए निर्भरता दुनियाभर में मजबूरी की हद तक पहुंच गई है। सौर ऊर्जा आदि विकल्प अभी तक उतने भरोसेमंद नहीं बन सके हैं, किंतु पेट्रोलियम ईंधन के साथ समस्या यह है कि एक तो यह प्रदूषण कारक हैं। घनी आबादी वाले दिल्ली जैसे शहरों की हालत जगजाहिर है, जहां अब सांस लेना भी दूभर होता जा रहा है। सरकारों के आगे भी यह एक बड़ी चुनौती पैदा हो गई है। सरकारों ने इस दिशा में कार्य करना आरंभ तो कर दिया है, किंतु जिस धीमी गति से यह चल रहा है, ऐसे में इस समस्या से पार पाना संभव नहीं हो पा रहा है। दूसरी समस्या, खनिज तेल की उपलब्धता का लगातार घटने का खतरा है। भारत को अपनी जरूरत का 65 प्रतिशत के लगभग खनिज तेल आयात करना पड़ता है। यह हमारे लिए भारी खर्च का बोझ बनने के साथ-साथ कूटनीतिक दबाव का कारण भी बना रहता है। यदि भारत की स्थिति को ध्यान में रखकर सोचें, तो अपने संसाधनों पर निर्भरता को बढ़ाना ही एक अच्छा विकल्प हो सकता है।

इसलिए एथनोल को तरल ईंधन के विकल्प के रूप में विकसित करना और मान्यता देना जरूरी हो गया है। एथनोल प्रदूषणकारी नहीं है और भारत में इसके उत्पादन के लिए बहुत कच्चा माल भी है। एथनोल बनाने के लिए गन्ने का शीरा, सड़े-गले फल, सड़ा-गला मक्का और गेहूं काम आ सकता है। यह पहली पीढ़ी का एथनोल है। भारत में इसका उत्पादन आरंभ हो चुका है, किंतु अभी मामला शुरुआती दौर में ही है। इस पहली पीढ़ी के एथनोल को बनाने के लिए उन सभी पदार्थों को प्रयोग किया जा सकता है, जिनमें शर्करा की अच्छी मात्रा उपलब्ध है। शर्करा को खमीर में सड़ाकर आसवन विधि द्वारा एथनोल बना लिया जाता है। इस पहली पीढ़ी के एथनोल के साथ समस्या यह है कि जिस गति से तरल ईंधन की मांग बढ़ती जा रही है, उस गति से और उतनी मात्रा में इसके लिए वांछित कच्चा माल पैदा नहीं किया जा सकता है। खासकर इससे कृषि क्षेत्र में अन्न उत्पादन की क्षमता पर बुरा असर पड़ सकता है। इसलिए अन्न सुरक्षा से कोई समझौता नहीं किया जा सकता। फिर भी काफी सारा कच्चा माल बिना खेती को हानि पहुंचाए ही उपलब्ध हो जाता है, जैसे गन्ने से खांड बनाने के बाद शीरा उप-उत्पाद बच जाता है। इसका सही आर्थिक प्रयोग करके किसानों को भी गन्ने की बेहतर लागत दी जा सकेगी और फालतू पदार्थ का सदुपयोग भी हो जाएगा। इसी तरह सड़े-गले फल और अनाज भी इस काम में आ सकते हैं। हिमाचल के निचले क्षेत्रों, सिरमौर, सोलन, बिलासपुर, हमीरपुर, कांगड़ा और चंबा में गोलानाख जैसे फलों को प्रोत्साहित करके एथनोल बनाने के काम में ला सकते हैं। इससे किसानों को भी अतिरिक्त आय के साधन उपलब्ध होंगे। उत्तराखंड के निचले शिवालिक क्षेत्रों में भी गोलानाख उत्पादन की संभावना है। इसमें पर्याप्त शर्करा होती है, किंतु यह खाने के लिए अच्छी पसंद नहीं है। अभी भारत सरकार ने पेट्रोल में 10 फीसदी एथनोल मिलाने की शुरुआत की है। इसे 2030 तक 22 फीसदी तक बढ़ाने की योजना है। ब्राजील में तो पेट्रोल में एथनोल मिलाने के साथ-साथ शुद्ध एथनोल से चलने वाले वाहनों का प्रचलन बढ़ रहा है। एथनोल प्रदूषण रहित ईंधन है। एथनोल की खपत लगातार बढ़ाने की जरूरत है, ताकि उसी अनुपात में पेट्रोलियम की खपत कम होती जाए। इसके लिए हमें पहली पीढ़ी के एथनोल के साथ-साथ दूसरी पीढ़ी का एथनोल बनाने की शुरुआत भी करनी होगी। दूसरी पीढ़ी के एथनोल के लिए सब तरह के वानस्पतिक अवशेष कच्चे माल के रूप में प्रयोग किए जा सकते हैं। खासकर धान का पुआल और गेहूं की तूड़ी भी एथनोल बनाने के काम आ सकती है। सभी तरह का वनों में पड़ा वानस्पतिक कचरा भी काम आ सकेगा।

वनस्पति से एथनोल बनाने के तीन चरण हैं। पहला प्राथमिक उपचारण है, जिसमें वनस्पति से लिग्निन और सेलुलोस को अलग किया जाता है। दूसरे चरण में सेलुलोस को हाइड्रोलीसिस विधि से शर्करा में परिवर्तित किया जाता है और तीसरे चरण में शर्करा को खमीर करके सड़ाकर आसवन से एथनोल तैयार किया जाता है। दूसरी पीढ़ी का एथनोल बनाने से किसानों को कृषि अवशेषों के अच्छे दाम मिल सकेंगे और उन्हें जलाकर प्रदूषण फैलाने की संभावना भी समाप्त हो जाएगी। वनों से फालतू अवशेष इकठ्ठा करने से लेकर एथनोल बनाने तक बड़े स्तर पर रोजगार भी पैदा हो सकेगा। ग्लोबल वार्मिंग के इस दौर में हम एथनोल का उपयोग बढ़ाकर खनिज पेट्रोलियम उत्पादों के उपयोग के कारण होने वाले कार्बन डाईआक्साइड के उत्सर्जन का स्तर भी लगातार कम करने में सफल हो सकते हैं, जिससे जलवायु परिवर्तन को लेकर अपनी प्रतिबद्धता को पूरा करना भी आसान हो जाएगा।


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