हिमाचल के औषधीय खजाने में ‘सेंध’
विदेशों में डिमांड के चलते अवैध दोहन में जुटे तस्कर, दर्जनों प्रजातियां लुप्त होने के कगार पर
सोलन— हिमाचल के जंगलों से चिरायता, बनककड़ी, जटामांसी, कुटकी, अतीस, कालिहारी इत्यादि दर्जनों औषधीय पौधे लुप्त होने के कगार पर है। प्रदेश के वनों से अवैध रूप से दोहन करके दर्लभ जड़ी-बूटियों को विदेशों में भेजा जा रहा है। पूरे विश्व में जितनी भी जड़ी-बूटियों को असाध्य रोगों के निदान के लिए चिन्हित किया गया है। उसमें से अकेले हिमाचल प्रदेश के वन क्षेत्र में 24 पौधे पाए जाते हैं। विदेशों में चुपके से ये जड़ी-बूटियां भेजकर वहां अनुसंधान भी हो रहा है और इसी कारण अंधाधुंध दोहन से प्रदेश में दुर्लभ औषधीय पौधे लुप्त भी हो रहे हैं। भारत देश पारंपरिक इलाज प्रणाली के ज्ञान व विलक्षण जड़ी-बूटियों के भंडार के लिए विश्वभर में विख्यात है। हिमाचल में प्राकृतिक तौर पर ही ऐसी जड़ी-बूटियां हैं जिनसे असाध्य रोगों को भी ठीक किया जा सकता है। प्रदेश में 3500 प्रकार के पेड़-पौधे पाए जाते हैं और इनमें से 500 पौधे औषधीय व 150 पौधे सुगंधित हैं। आंकड़ों के मुताबिक कुल प्रजातियों में से 70 प्रतिशत बूटियां, 15 प्रतिशत झाडिय़ां, 10 प्रतिशत वृक्ष व 5 प्रतिशत बेले हैं। यहां पर शिवालिक रेंज में सर्पगंधा, अश्वगंधा, ब्राह्मी व राखपुष्पी, शीत कटिबंधीय क्षेत्रों में सुगंधबाला, भूतकेसी, चोरा, बनख्शां, पाषाण भेद, सिंगली-मिंगली, वनककड़ी, चिरायता, सालम मिसरी और अधिक ऊंचाई वाले क्षेत्रों में आर्थिक व औषधीय तत्त्व की महत्त्व वाली जड़ी-बूटियों में चिरायता, कुटकी, सालम पंजा, धूप, पतराला, रेवंदचीनी, रतनजोत व जटामांसी, प्रमुख रूप से पाए जाते हैं। नौणी विवि के वन उत्पाद विभागाध्यक्ष डा. कुलवंत राय से जब इस संदर्भ में पूछा गया तो उन्होंने कहा कि हमारी प्राकृतिक जड़ी-बूटियों का विदेशों में एनालिसिस किया जा रहा है और हिमाचल में विलक्षण औषधीय पौधों का अवैज्ञानिक दोहन हो रहा है।
कैंसर-मधुमेह का भी उपचार
बनककड़ी (वनस्पतिक नाम पोडोफायलम हैग्जेंड्रम) का उपयोग कैंसर निदान के लिए, वायोल पिलोसा (बनख्शां) का मुंह व गले के कैंसर व अन्य रोग, कलिहारी (ग्लोरियोसा सुपरवा) का उपयोग कोढ़, गठिया में, चिरायता (स्वर्रिया चिरायता) का उपयोग मधुमेह बीमारी को दूर करने के लिए किया जाता है। लेकिन अवैज्ञानिक तरीके से इसका दोहन जारी है।
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