जीरो टालरेंस का अलार्म

By: Sep 20th, 2018 12:05 am

एक लंबे दौर की चर्चा में हिमाचली सुशासन की नब्ज पर हाथ रखते मुख्यमंत्री, अपनी प्राथमिकताएं रेखांकित करते हैं। विषयों की आंख से डीसी व एसपी की नजर का मिलन किस तरह या किस तरह नजरअंदाज होता है, इसी पर सुशासन की परिधि तय होती है। मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने जनता के विषयों के बीच जिस तरह जिला प्रशासन की समीक्षा की है, उससे दायित्व की परिभाषा में निखार आ सकता है। वह अगर हिमाचल के विभिन्न जिलों के डीसी व एसपी को जनता से जुड़ने की हिदायत देते हैं, तो ये अधिकारी अपने बाजुओं में सरकार होने का दम भर कर काम कर सकते हैं, वरना आम जनता के लिए दफ्तरी माहौल से मुलाकात कर पाना मुश्किल है। विडंबना यह है कि हिमाचल में आम जनता का सियासी अभिप्राय इतना बढ़ चुका है कि कोई भी सरकारी एजेंसी बेहतर व स्वतंत्र काम करने के बजाय, अपने लिए आदेशों का आका तय करती है। यहां कुर्सियों पर टंगे कोट दिहाड़ी लगा रहे हैं या आंकड़ों में माहिर वेतन बढ़ा रहे हैं। बेशक जनमंच के जरिए सरकार जनता के दर्द को सुन रही है, मगर किसी कार्यालय या संस्थान के कान खोलने के लिए वक्त की तमाम बेडि़यां तोड़नी होंगी और राजनीतिक घाटों की चिंता छोड़नी होगी। दुर्भाग्यवश दफ्तरों की गंदगी के ऊपर राजनीति का वरक कुछ इस तरह चढ़ गया है कि सरकार की सही मंशा भी केवल चिकनी चुपड़ी बनकर रह जाती है। परत दर परत कुछ इस तरह की व्यवस्था बन रही है कि जहां कर्त्तव्यपरायणता के मायने केवल सरकारी नौकरी को अपनी जेब और जुगत के हिसाब से लाभकारी बनाना है। हो यही रहा है और उपेक्षित वही है, जो सुशासन के भरोसे चलकर अपने नसीब बचाना चाहता है। सुशासन छोटे कार्यों की बड़ी तस्वीर है, लेकिन बड़े फ्रेम में सुरक्षित बने रहने की उमंगों ने इसे भी सिफारिशी बना दिया। यह साबित हो रहा है कि एक हिमाचल इतना साधन संपन्न तथा प्रभावी हो चुका है, जिसके कारण तरफदारी का साम्राज्य आम आदमी के विश्वास को नगण्य कर रहा है। यही हिमाचल वनों की जमीन पर सेब के पौधे उगाकर व्यापार करता है, तो कायदे कानूनों की धज्जियां उड़ा कर होटलों का अवैध निर्माण करता है। यहां नगर नियोजन की दिशा में तय किया कानून बगलंे झांकता है, तो अवैध खनन की साझेदारी में सरकारी तंत्र भी संदेहास्पद हो जाता है। इसलिए जब मुख्यमंत्री जीरो टालरेंस का अलार्म बजाते हैं, तो घड़ी की सूइयों पर लक्ष्य घूमना चाहिए। नशे के खिलाफ सरकार की प्राथमिकता से छिड़ा आंदोलन दिखाई देने लगा है। पुलिस चौकसी से कुछ परिणाम हर दिन गुनहगारों को पकड़ कर पेश कर रहे हैं, तो इस पहल का पक्का इरादा हर अभिभावक के साथ जुड़ेगा। चंबा में एक ही दिन में दस किलो के करीब चरस का पकड़ा जाना कई घरों की बर्बादी रोकेगा, तो ऐसे अभियान की जद में आकर आपराधिक गठबंधन भी टूटेंगे। कुछ इसी अंदाज में ‘नो हेल्मेट-नो पेट्रोल’ जैसी मुहिम का राज्यव्यापी आगाज, युवा पीढ़ी के सलीके बदल सकता है। सुशासन की कर्मठता में मुख्यमंत्री की बैठक का असर अगर सरकारी कार्यसंस्कृति की तहजीब बदल दे, तो निश्चित रूप से परिवर्तन का यह एहसास महसूस किया जाएगा। अकसर स्वच्छता अभियान के बैनर तले प्रशासनिक मेहनत का असर उस समय विकराल हो जाता है, जब कई जिलाधीशों के अपने कार्यालय के बाहर गंदगी व झाडि़यों की तस्वीर प्रतिकूल टिप्पणी करती है। ट्रैफिक नियंत्रण में पुलिस की मशीन आदमी-आदमी में फर्क करती है या अस्पतालों में डाक्टर की उपलब्धता उसके मूड की हिफाजत करती है। कार्यालयों का बाबू साम्राज्य टरकाता है, तो फील्ड स्टाफ की फिरौती में सरकारी सेवाओं का तरीका कराहता है। ऐसे में दस्तूर बदलने की ख्वाहिश में पूरा कारवां बदलना पड़ेगा और यह समझौता नहीं, समय पर कड़क लिखाई में लिखने का संकल्प बनाकर ही संभव होगा।


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