परमात्मा के रंग में बाबा हरदेव
अब सद्गुरु की छत्रछाया में बैठने का अर्थ है प्रार्थना युक्त होकर सद्गुरु के पास बैठना, मनुष्य के मन का पूर्णतौर पर डूब जाना। सद्गुरु के साथ आत्मिक प्रेम में पड़ जाना एक ऐसा परम प्रेम है, जिसकी कोई व्याख्या नहीं हो सकती। सद्गुरु के रंग में रंग जाना क्योंकि सद्गुरु रंगरेज भी है…
नाम है दारू सभ रोगां दा सभे दुख मिटावे नाम
अंत में कहना पड़ेगा कि अज्ञान ही पाप है न जानना ही बंधन है। उदाहरण के तौर पर क्रोध क्या है। जिस दिन हम क्रोध को परिपूर्णता से जान लेते हैं, जिस दिन हम क्रोध में प्रवेश कर जाते हैं, क्रोध की परत-परत को जान लेते हैं, उसी दिन क्रोध से हमें छुटकारा मिल जाता है। फिर ऐसा नहीं कि क्रोध को जानने के बाद छुटकारे के लिए हमें कुछ और करना पड़ता है। मानो ऐसा नहीं है कि पहले जान लेते हैं कि ये क्रोध है और फिर उसे छोड़ने के लिए कोई उपाय करना पड़ता है ऐसा नहीं है, क्रोध को जानना ही इससे छूट जाना है। इसी प्रकार सद्गुरु कृपा से पाप और पुण्य को परिपूर्णता से जान लेना ही पाप और पुण्य से मुक्त हो जाना है।
खाकसारी का है गाफिल बहुत ऊंचा मरतबा
ये जमीं वो है कि जिस पर आसमां कोई नहीं
महात्माओं का कथन है कि सद्गुरु की छत्रछाया में होने का सद्गुरु के पास होने का, इतना ही अर्थ है कि मनुष्य ने अपने अहंकार पर भरोसा पूर्ण तौर पर खो दिया। इस सूरत में मनुष्य हृदय से महसूस करने लग जाता है कि मनुष्य अहंकार को मानकर बहुत चल लिया, मगर कहीं भी पहुंचा नहीं सिर्फ मनुष्य ने दुख ही पाया, पीड़ा ही पाई। मनुष्य के अहंकार ने इसे भटकाया ही, उलझाया ही, मानो जैसे कोई मनुष्य थक हार कर गर्मी से तंग आकर किसी छायादार वृक्ष की जरूरत महसूस करता है इसी प्रकार प्रभु प्रेम का दीवाना नाना प्रकार के कर्मकांड से उक्ताकर, चूर-चूर होकर पूर्ण सद्गुरु की ओर खींचा चला आने लगता है। संपूर्ण अवतार वाणी मनुष्य की ऐसी दशा को यूं दर्शाती हैः
होछा मूर्ख सार ने जाणां भुल्ला रस्ते पा देवो।
ला के अपने ज्ञान दी तीली मन दी जोत जगा देवो।
गुण ते सित नहीं कुझ पल्ले नीचों नीच अनजान हां मैं।
मेहर तेरी दे साये हेठां आ पहुंचा भगवान हां मैं।
मनुष्य बजाय अपने अहंकार की सुनने के अब किसी प्रज्ञ पुरुष की वाणी पर भरोसा करना शुरू कर देता है मानो मनुष्य को अब इस बात की समझ आने लग जाती है कि प्रज्ञा पुरुष की वाणी किसी दूसरे की वाणी नहीं है, बल्कि मनुष्य के अंतरतम की ही वाणी है, क्योंकि सद्गुरु सदा हमारे भीतर छिपे अंतरतम की वाणी बोलता है, जो हम अपने भीतर नहीं खोज पाते वो पूर्ण सद्गुरु बाहर हमें सुनाता है। अब अगरचे सद्गुरु की आलौकिक बातें हमारी समझ में एकदम से पूरी नहीं आ पाती और इन बातों के गूढ़ रहस्य का, भेद का भी हमें पता पूर्णतौर पर नहीं चल पाता तो अगर सद्गुरु हमसे बोले यही क्या कम है? सद्गुरु ने हमें कहने योग्य समझा, सद्गुरु ने अपने आपको उडेला है शुक्र है, इस दिव्य देही (पूर्ण सद्गुरु) ने हमें पात्र समझा यही क्या कम है। अब सद्गुरु की छत्रछाया में बैठने का अर्थ है प्रार्थना युक्त होकर सद्गुरु के पास बैठना, मनुष्य के मन का पूर्णतौर पर डूब जाना। सद्गुरु के साथ आत्मिक प्रेम में पड़ जाना एक ऐसा परम प्रेम है, जिसकी कोई व्याख्या नहीं हो सकती। सद्गुरु के रंग में रंग जाना क्योंकि सद्गुरु रंगरेज भी है। ये हमारी आत्मा रूपी ओढ़नी को परमात्मा के रंग में पूरी तरह से रंग देता है।
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