हिमाचल पहले तो ऐसा नहीं था!

By: Sep 28th, 2018 12:07 am

कुलभूषण उपमन्यु

लेखक, हिमालय नीति अभियान के अध्यक्ष हैं

हमें उम्मीद करनी चाहिए कि जिंदान को न्याय तो मिले ही, किंतु इस बहाने इस क्षेत्र में गहरी बैठी जातिगत भेदभाव की दीवारों को तोड़ने के भी प्रयास इस तरह से हों कि समाज में टकराव के स्थान पर मानवाधिकारों और समाज की एकता को स्थापित करने का कर्त्तव्यबोध जागे। इसलिए  सभी संबंधित पक्ष जिंदान को न्याय दिलाने का कार्य करें…

हिमाचल प्रदेश में अपराध का बढ़ता साया चिंता का कारण बनता जा रहा है। लगभग हर दिन गंभीर अपराध सामने आ रहे हैं। यह सिलसिला पिछले एक-दो दशकों से लगातार बढ़ता ही जा रहा है। इसके सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और मनोवैज्ञानिक कारणों की समीक्षा होनी चाहिए। इस मुद्दे को कतई तौर पर राजनीतिक दृष्टि से देखना और शासक दलों की निजी तू तू-मैं मैं में बदलकर रख देना वांछित नहीं होगा। इससे राजनीतिक दल मुद्दे से भटक कर अपनी-अपनी सफाई या बहादुरी बयां करने में ही सारी ऊर्जा खपा देते हैं और मुद्दा वहीं का वहीं रह जाता है। बिटिया प्रकरण हो या अपनी बूढ़ी मां को कैद करके झरोखे से रोटी डालते रहने का पशुतापूर्ण व्यवहार हो, हत्या और बजुर्गों व महिलाओं से अमानवीय व्यवहार के मामले बढ़ते जा रहे हैं। अवैध शराब, भांग और अन्य ड्रग्स का रोज पकड़ा जाना समाज में गैर कानूनी गतिविधियों में समाज की संलिप्तता बढ़ते जाने की कहानी बयां करता है। नया मामला 43 वर्षीय अनुसूचित जाति से संबंधित वकील केदार सिंह जिंदान की क्रूरतापूर्ण अमानवीय हत्या का है। दिनदहाड़े ऐसे अपराध की घटना का होना चिंता का विषय है। खासकर अपराधी का खुद यह कहना कि इस आदमी ने आरटीआई एक्ट का प्रयोग करके नाक में दम कर रखा था और लगातार धमकी देता था कि आपको सड़क पर लाकर छोडूंगा। इसी टकराव के चलते 7 सितंबर की सुबह पहले जिंदान को लाठी-डंडों से पीटा गया और बाद में गाड़ी से कुचल कर बकरास गांव में उसकी हत्या कर दी गई। जिंदान जिला सिरमौर के गांव पाब, पंचायत गुंदाहा, ब्लॉक शिलाई का रहने वाला था।

मुख्य अभियुक्त जय प्रकाश, जिसने जिंदान पर गाड़ी चढ़ाई, ने अपने खाते-जीते रिश्तेदारों के लिए बीपीएल परिवार के प्रमाण पत्र बनवा दिए थे, जिनके आधार पर उन्होंने सरकारी नौकरियां प्राप्त कर ली थीं। इस वर्ष जून मास में जिंदान ने शिमला में पत्रकार वार्ता करके आरटीआई के माध्यम से प्राप्त जानकारी के आधार पर इन गलत बीपीएल प्रमाण पत्रों का भंडाफोड़ किया था, जिसके चलते जय प्रकाश के रिश्तेदारों को गलत प्रमाणपत्रों के आधार पर प्राप्त नौकरियों से हाथ धोना पड़ा था। इसके अलावा भी जिंदान ने कई रहस्योद्घाटन अपने इलाके की जन सेवाओं को लेकर किए थे। जिंदान अपने इलाके में भ्रष्टाचार और जाति आधारित भेदभाव के विरुद्ध एक सशक्त आवाज बन गया था। 14 सितंबर को मानवाधिकार संरक्षक और सामाजिक कार्यकर्ताओं के एक 7 सदस्यीय दल ने मौके पर जाकर स्थानीय पंचायत, प्रशासन, जिंदान के परिवार के सदस्यों और स्थानीय समुदाय से बातचीत करके इन तथ्यों की जानकारी प्राप्त की। जिंदान के परिवार वालों ने बताया कि पिछले वर्ष भी जिंदान को सतौन में मारपीट कर रेत के ढेर में दबाकर मरने के लिए छोड़ दिया गया था, किंतु वह भाग्य से बच गया। उसने बहुत से लोगों की करतूतों का भंडाफोड़ किया था।

अतः कहीं न कहीं उन सभी की इस हत्या में संलिप्तता के कोण से भी जांच की जानी चाहिए। जिंदान तो वैधानिक सीमाओं के आधार पर सच्चाई को सामने लाने का प्रयास कर रहा था, यदि किसी को लगता था कि वह गलत तरीके से उन्हें तंग कर रहा है, तो उनके लिए भी कानून के दरवाजे खुले थे। वे पुलिस या न्यायालय की शरण में जाते, किंतु कानून को अपने हाथ में लेकर इस तरह का जघन्य अपराध करना क्षम्य नहीं हो सकता है। जिंदान के हत्यारों के खिलाफ भारतीय दंड संहिता की धारा 302ए और अनुसूचित जाति व जन जाति (अत्याचार निरोध कानून) की धारा 3.2-5 के अंतर्गत मुकद्दमा दर्ज किया गया है, किंतु स्थानीय राजपूत सभा अनुसूचित जाति व जनजाति एक्ट के तहत मुकद्दमा दर्ज न करने की मांग कर रही है। ऐसी मांग संदेह को और बढ़ाती है कि इस मामले में जातीय कोण भी हो सकता है। जब पुलिस ने धारा लगाई है, तो पुलिस को निष्पक्ष कार्य करने देना चाहिए और उसके कार्य को इस तरह से प्रभावित करने के प्रयास शक को साबित करते हैं। इन दूर-दराज के अंदरूनी इलाकों में जातीय भेदभाव के मामले अकसर सामने आते रहते हैं। इसलिए एक ओर तो मुकद्दमे की निष्पक्ष जांच के बाद न्यायिक कार्रवाई को सुनिश्चित किया ही जाना चाहिए और दूसरी तरफ सामाजिक स्तर पर इन क्षेत्रों में जातिगत भेदभाव दूर करने के संगठित प्रयास करने की जरूरत है। इसकी पहल स्थानीय पंचायतों, सामाजिक संगठनों और सरकार को मिलकर करनी चाहिए।

सरकार का शामिल होना इसलिए भी जरूरी हो जाता है, क्योंकि ऐसे भय के वातावरण में आम आदमी चक्कर में पड़ना नहीं चाहता। हां, सरकार आगे आ जाए तो हर समझदार व्यक्ति अपना योगदान देने आगे आ सकता है। कुछ सांस्कृतिक मामलों में भी मनोवैज्ञानिक संशोधन करने के लिए हस्तक्षेप करने की जरूरत होती ही है। सरकार को ध्यान देना चाहिए कि सामाजिक कुरीतियों को दूर करने का मार्ग थोड़ा टेढ़ा होता है। हम केवल कानून बनाकर ही चुप नहीं बैठ सकते, बल्कि समाज के मन में बसी गलत धारणाओं को दूर करने के तार्किक प्रयास भी करने पड़ सकते हैं। हमें उम्मीद करनी चाहिए कि जिंदान को न्याय तो मिले ही, किंतु इस बहाने इस क्षेत्र में गहरी बैठी जातिगत भेदभाव की दीवारों को तोड़ने के भी प्रयास इस तरह से हों कि समाज में टकराव के स्थान पर मानवाधिकारों और समाज की एकता को स्थापित करने का कर्त्तव्यबोध जागे, आपसी विश्वास जागे। इसलिए सभी संबंधित पक्षों का कर्त्तव्य है कि जिंदान को न्याय दिलाने का कार्य करें, जो सक्रिय योगदान न दे सकें वे चुप रहें, परंतु अविश्वास पैदा करने वाले कार्य कतई न करें।


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