फैसले पर सवार आस्था

By: Oct 29th, 2018 12:05 am

सोमवार से अयोध्या विवाद पर निर्णायक सुनवाई सर्वोच्च न्यायालय में शुरू हो रही है। चूंकि प्रधान न्यायाधीश जस्टिस रंजन गोगोई बन गए हैं, लिहाजा न्यायिक पीठ बिलकुल नई होगी। जस्टिस गोगोई के साथ जस्टिस केएम जोसेफ और जस्टिस एसके कौल इस विवादास्पद मुद्दे की सुनवाई करेंगे। संभव है कि मामला कुछ देर के लिए लटक जाए, लेकिन अब इस मुद्दे पर घोर उत्तेजना का माहौल है। परिस्थितियां ऐसी हैं कि अब प्रत्यक्ष तौर पर कोई भी राजनीतिक दल राममंदिर निर्माण के खिलाफ नहीं है। उनके भीतर क्या चल रहा है, उसका विश्लेषण नहीं किया जा सकता। इसी दौरान भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने केरल के कन्नूर में बोला है कि सरकार और अदालतों को आस्था के मामलों में ऐसे फैसले करने चाहिए, जिनका पालन किया जा सके। हालांकि उन्होंने यह केरल के सबरीमला मंदिर के संदर्भ में कहा है। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बावजूद महिलाएं अब भी मंदिर में प्रवेश नहीं कर पाई हैं। तनाव का माहौल बना रहा। फिलहाल इस मुद्दे पर पुनर्विचार याचिका शीर्ष अदालत में विचाराधीन है। सबरीमला मंदिर पर बोला अमित शाह का वक्तव्य राम मंदिर के संदर्भ में भी देखा जा रहा है। सवाल है कि अयोध्या विवाद पर फैसला देते हुए सर्वोच्च न्यायालय की सोच पर क्या आस्था ही सवार रहेगी? क्या सुप्रीम कोर्ट भूमि विवाद के बजाय आस्था के आधार पर भी फैसला सुना सकती है? क्या अमित शाह का बयान अवचेतन रूप से न्यायिक पीठ के न्यायाधीशों के मानस को प्रभावित कर सकता है? क्या इस बयान को न्यायपालिका को डराने की परोक्ष कोशिश भी माना जा सकता है? इन सवालों के अतिरिक्त सरकार के भीतर जारी गतिविधियों पर भी सवाल किए जा रहे हैं। क्या सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बावजूद मोदी सरकार राम मंदिर निर्माण पर अध्यादेश ला सकती है? या सरकार संसद के शीतकालीन सत्र के दौरान बिल पेश कर सकती है और फिर उस पर  विस्तृत बहस के बाद उसे पारित भी करा सकती है? अथवा सरकार संसद का विशेष संयुक्त सत्र भी बुला सकती है? बहरहाल राम मंदिर पर जो कुछ भी किया जाना है, उसे अब लंबित नहीं छोड़ा जा सकता, लेकिन राजनीति यह भी है कि अयोध्या विवाद पर जब तक हिंदू-मुसलमान टकराव की स्थितियां नहीं बनतीं, तब तक भाजपा वोटों की भरपूर फसल नहीं काट सकती। यदि भाजपा को राजनीतिक लाभ नहीं होगा, वह राम मंदिर को बनाने की कोशिश क्यों करेगी? भाजपा की इस सियासत पर भी विचार करना होगा। यह विवाद 1988 से ही राजनीतिक रूप धारण कर चुका है, जब भाजपा ने हिमाचल के पालमपुर में राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में अयोध्या में भव्य राम मंदिर निर्माण का प्रस्ताव पारित किया था। नतीजतन 1989 के लोकसभा चुनावों में भाजपा ने 2 से 85 सीटों तक उछाल लगाई थी। 1996 में 161 सीटों के साथ भाजपा लोकसभा में पहली बार सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरी थी, लेकिन जनादेश अधूरा होने के कारण वाजपेयी सरकार 13 दिनों तक ही टिकी रह सकी। बहरहाल वाजपेयी सरकार 1998 से 2004 तक रही, क्योंकि भाजपा की सीटें 182 थीं और एनडीए के रूप में एक सशक्त, व्यापक गठबंधन उभरकर सामने आया था, लेकिन राम मंदिर बनाने की शुरुआत तक नहीं हो सकी, क्योंकि गठबंधन के कई दल सहमत नहीं थे। आज स्थितियां भिन्न हैं। मोदी सरकार के पास गठबंधन समेत पर्याप्त बहुमत है। राज्यसभा में भी भाजपा-एनडीए सबसे बड़ा पक्ष हैं। कुछ और दलों के ध्रुवीकरण से बहुमत के आसार भी बन सकते हैं, जिस तरह राज्यसभा के उपसभापति चुनाव में हुआ था। आरएसएस के सरसंघचालक का भी स्पष्ट समर्थन है। गठबंधन के घटक दल भी भाजपा के समर्थन में हैं और सुप्रीम कोर्ट ने भी सुनवाई शुरू कर दी है, लिहाजा अब इस मुद्दे को और अधिक खींचने या टालने की कोई भी तुक नहीं है। यदि भाजपा को हिंदुओं की इतनी ही चिंता है, तो अब इस दौर में राम मंदिर बन जाना चाहिए। अलबत्ता इस मुद्दे को छोड़ देना चाहिए, क्योंकि दूसरे कई मुद्दे भी अहम हैं, जिनकी अनदेखी होती रही है।

 


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