वैराग्य की पाठशाला

By: Oct 6th, 2018 12:05 am

श्रीराम शर्मा

शांत हो जा वत्स! ईश्वर को पाना एक बड़ी भारी कसौटी है। वैरागी को संतोषी, धैर्यवान और सहिष्णु होना पड़ता है, यदि तू पहले यही नहीं सीख सका तो क्या बनेगा, ईश्वर निष्ठा, दया, करुणा, उदारता, संयम, सेवा ही नहीं, मिष्ट भाषण, धैर्य और सहिष्णुता भी ईश्वर निष्ठा के आवश्यक गुण हैं…

गतांक से आगे…

उस दिन भी भोजन बनाकर तैयार होने में थोड़ा अधिक समय लग गया। देवदत्त घर लौटे और भोजन तैयार न मिला तो बहुत कुपित हुए, वहीं चिर-परिचित अस्त्र उठाया और बोले, आज पहले यह बता दो कल से भोजन समय पर मिलेगा या नहीं, अन्यथा मैं अभी चला जाऊंगा और संन्यासी हो जाऊंगा। विद्यावती के मुख पर आज भय नहीं, मुस्कान थी। हलकी हंसी हंसती हुई बोलीं, अजी! अभी ऐसी शाम नहीं हो गई, कल की कौन जाने, आज ही चले जाइए और संन्यासी हो जाइए। मुझे उसका जरा भी भय नहीं। जलती आग में घृत डालो तो आग और तीव्र हो उठती है। क्रोध भी असह्य जो जाता है, फिर यहां तो घृत उलीचा गया। देवदत्त ने पीछे मुड़कर भी नहीं देखा तुरंत आश्रम की ओर चल पड़े। रात उन्होंने आश्रम जाकर बिताई। सवेरा हुआ। महर्षि पुनीत का सत्संग जुड़ा। आज उसमें एक नए अतिथि भी थे। महर्षि ने मुस्कराते हुए देवदत्त की कुशल मंगल पूछी। देवदत्त ने कहा, भगवन! संन्यास दीक्षा लेना चाहता हूं, उसका प्रबंध आज ही करा देने का अनुग्रह करें। उसी तरह मुस्कराते हुए संत पुनीत ने कहा, हां, हां वत्स! तू वस्त्र उतारकर यहां रख दे और गोदावरी स्नान कर, शीघ्र वापस आ जा। अभी दीक्षा का प्रबंध किए देता हूं। देवदत्त उठे और अपने वस्त्र उतार कर एक ओर चल पड़े। इधर संत ने उनके सब कपड़े फाड़कर फेंक दिए। खाने के लिए कुछ कड़वे और कसैले फल मंगा लिए। देवदत्त स्नान करके आए तो अपने कपड़े मांगे। संत ने चिथड़ों की ओर संकेत किया, देवदत्त फटे कपड़े देख कर हो तो उठा क्रुद्ध, पर कुछ बोल न सका। महर्षि ने कहा, क्या देखते हो, संन्यासियों को अपरिग्रही बनना पड़ता है। कम से कम वस्तुओं में काम चलाना पड़ता है। अच्छा ले भोजन कर ले। यह कहकर वही कड़वे फल आगे कर दिए। देवदत्त से एक फल बड़ी कठिनाई से खाया। दूसरा तो मुख में रखते ही थूक दिया और बिगड़कर बोले, मैं ऐसे कड़वे फल खाऊंगा? यह तो जानवर भी नहीं खाते। शांत हो जा वत्स! ईश्वर को पाना एक बड़ी भारी कसौटी है। वैरागी को संतोषी धैर्यवान और सहिष्णु होना पड़ता है, यदि तू पहले यही नहीं सीख सका तो क्या बनेगा, ईश्वर निष्ठा, दया, करुणा, उदारता, संयम, सेवा ही नहीं, मिष्ट भाषण, धैर्य और सहिष्णुता भी ईश्वर निष्ठा के आवश्यक गुण हैं। इनका तुझे अनिवार्य रूप से अभ्यास करना पड़ेगा। अपनी अब तक की क्षुब्धता से उबलते हुए देवदत्त ने कहा, तो फिर इनका अभ्यास तो मैं अपने घर में ही कर सकता था। आपके पास तो मैं इस कामना से आया था कि आप हमें कुछ विशेष विभूतियां और साधनाएं सिखाएंगे।    महर्षि ने हंसकर कहा, तात। यह बाद की बातें हैं, अभी तो तू घर लौट जा और वहीं रहकर सद्गणों का अभ्यास कर। देवदत्त की समझ में बात आ गई। वे घर लौट आए और धर्मपत्नी से क्षमा मांगते हुए कहा, मुझे पता नहीं था, वैराग्य की पहली पाठशाला गृहस्थ है। अन्यथा अब तक तुम्हें जो कष्ट दिया, वह न दिया होता।


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