सबरीमाला मंदिर का विवाद और आस्था

By: Oct 20th, 2018 12:07 am

डा. कुलदीप चंद अग्निहोत्री

लेखक, वरिष्ठ स्तंभकार हैं

केरल में सीपीएम की सरकार है। सीपीएम के लिए धर्म अफीम के समान है। इसलिए लोगों के मन से धर्म के प्रभाव को समाप्त करना उनकी विचारधारा का हिस्सा है। शायद इसीलिए कुछ लोग यह भी आरोप लगाते हैं कि केरल की कम्युनिस्ट सरकार ने जानबूझकर कर उच्चतम न्यायालय में भगवान अयप्पा का केस इस तरीके से प्रस्तुत किया कि वे हार जाएं और उनके घर-मंदिर में भक्त के वेश में कुछ लोग सभी मर्यादाओं को भंग करते हुए जबरदस्ती घुस जाएं और वही हुआ…

उच्चतम न्यायालय का कहना है कि केरल में जो भगवान अयप्पा का सबरीमाला मंदिर है, उसमें स्त्रियों को भी दाखिल होने का अधिकार है। ऐसा नहीं कि इस मंदिर में महिलाएं प्रवेश नहीं कर सकतीं। दस से नीचे और पचास से ज्यादा साल की महिलाएं मंदिर में पहले से ही जाती हैं, लेकिन उच्चतम न्यायालय का कहना है कि किसी भी उम्र की महिला मंदिर में जा सकती हैं। वैसे इससे जुड़ा एक बहुत बड़ा प्रश्न है कि लोग आखिर किसी मंदिर में क्यों जाते हैं? इसका उत्तर भी सरल है, जिसकी उस देवता में आस्था है, वह उसकी पूजा करने के लिए उस मंदिर में जाता है। हर देवता का अपना स्वभाव है और उसके अपने गुण हैं। एक ही देवता के अलग-अलग मंदिर में अलग-अलग रूप हैं। इसलिए हर मंदिर और हर देवता की अपनी एक मर्यादा बन जाती है। यह मर्यादा परंपरा से पुख्ता हो जाती है और जो सचमुच उस देवता या मंदिर में आस्था रखते हैं, वे निष्ठा से उस मर्यादा का पालन करते हैं। वैसे तो कोई पूछ सकता है कि किसी देवता या मंदिर की मर्यादा आखिर पंडित या पुजारी ही तय करते हैं। वे विभेदकारी मर्यादा भी तय कर सकते हैं। यह हो सकता है, लेकिन किसी देवता की कल्पना और उसके स्वभाव की कल्पना भी तो आखिर सांसारिक प्राणी ही तय करते हैं। ये प्रश्न ऐसे हैं जिन पर या तो विश्वास किया जा सकता है या फिर अविश्वास किया जा सकता है। इन पर तर्क नहीं किया जा सकता।

आस्था तर्क का विषय नहीं है, यह भक्ति का विषय है। यदि तर्क की कसौटी पर ही सबरीमाला के मंदिर से जुड़े प्रश्नों का निर्णय कंरना हो फिर तो क्या अय्यप्पा और क्या गणेश सभी के अस्तित्व पर भी प्रश्न खड़ा किया जा सकता है और यदि यह निर्णय केवल तर्कों की कसौटी पर ही उच्चतम न्यायालय ने ही करना हो, तो यकीनन उनका निर्णय उनके अस्तित्व के खिलाफ ही जाएगा। इसलिए भगवान अयप्पा की पूजा कौन कर सकता है, कौन नहीं, इसका निर्णय किसी अनुच्छेद के आधार पर तो नहीं हो सकता। जिनको लगता है कि भगवान अयप्पा उनको अपने घर में आने से कैसे रोक सकते हैं, उनको ध्यान रखना चाहिए किसी के घर में जाकर आपको कैसा व्यवहार करना है, इसका निर्णय आप नहीं कर सकते, बल्कि जिसके घर में जाना है, वह घर का मालिक ही तय करता है। यदि किसी को देवता का व्यवहार पसंद नहीं है, तो वह उस देवता में आस्था रखना बंद कर सकता है, लेकिन उसके घर में जाकर मनमानी नहीं कर सकता। कुछ लोग अपने आपको अयप्पा का भक्त घोषित करके उसके घर की मर्यादा तोड़कर बलपूर्वक घुसना चाहते हैं। इस घुसपैठ के लिए वे उच्चतम न्यायालय को ढाल के तौर पर इस्तेमाल कर रहे हैं। जाहिर है इस प्रकार के घुसपैठिए अयप्पा के भक्त तो नहीं हो सकते, बल्कि वे तो अयप्पा को नीचा दिखाने की कोशिश कर रहे हैं कि देखो, हमने आपके घर की सारी मर्यादा को भंग कर जबरदस्ती प्रवेश कर लिया है।

कुछ अनास्थावान समूह भारतीय जनमानस की परंपराओं को षड्यंत्र के तहत भंग करने के प्रयास कर रहे हैं। केरल में सीपीएम की सरकार है। सीपीएम के लिए धर्म अफीम के समान है। इसलिए लोगों के मन से धर्म के प्रभाव को समाप्त करना उनकी विचारधारा का हिस्सा है। शायद इसीलिए कुछ लोग यह भी आरोप लगाते हैं केरल की कम्युनिस्ट सरकार ने जानबूझकर कर उच्चतम न्यायालय में भगवान अयप्पा का केस इस तरीके से प्रस्तुत किया कि वे हार जाएं और उनके घर-मंदिर में भक्त के वेश में कुछ लोग सभी मर्यादाओं को भंग करते हुए जबरदस्ती घुस जाएं और वही हुआ। केरल में भगवान अयप्पा के उपासकों ने सरकार से गुहार लगाई कि सरकार तुरंत न्यायालय के इस निर्णय के खिलाफ एसएसपी दायर करें, लेकिन कम्युनिस्ट भला ऐसा क्यों करती? उसने जगह पुलिस तैनात कर दी कि जो भी तथाकथित भक्त मर्यादा को भंग कर मंदिर में घुसना चाहता हो, उसकी हर प्रकार से सहायता की जाएगी।

साम्यवादी तो प्रसन्न थे कि एक हिंदु मंदिर की नौ सौ साल से चली आ रही परंपरा को धूल चटा दी। कार्ल मार्क्स अपनी कब्र में भी प्रसन्न हो रहे होंगे, लेकिन केरल की जनता कम्युनिस्टों के इस व्यवहार से दुखी है। कम्युनिस्ट स्वयं अयप्पा में विश्वास रखें या न रखें, यह उनका अपना मामला है, लेकिन इनको किसी देवता का अपमान करने का तो अधिकार नहीं है, लेकिन केरल सरकार ने पहले ही राज्य के तमाम हिंदु मंदिरों पर सरकारी कब्जा जमा रखा है। जिस  सरकार पर मंदिरों की मर्यादा की रक्षा का भार था, यदि वही सरकार मर्यादा तोड़ने लगे, तब क्या हो सकता है। केरल में यही हो रहा है। एक ओर नौ सौ साल की परंपरा है और साथ ही अयप्पा के घर की सुरक्षा कर रहे लाखों केरल वासियों का प्रण है। दूसरी ओर उच्चतम न्यायालय के आदेश को लहराती केरल सरकार है। दरअसल नक्सलवादी और माओवादी पूरे देश में भारतीय परंपराओं को खंडित करने के राष्ट्रघाती अभियान में लगे हुए हैं। सबरीमाला का मंदिर तो लड़ाई की पहली सीढ़ी है।

ई-मेलः kuldeepagnihotri@gmail.com


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