सुरक्षित भविष्य के लिए जरूरी है सामूहिक प्रयास

By: Oct 1st, 2018 12:08 am

अजय पाराशर

लेखक, सूचना एवं जन संप0र्क विभाग के क्षेत्रीय कार्यालय, धर्मशाला में उप निदेशक हैं

महात्मा गांधी ने प्रकृति द्वारा मनुष्य की तमाम जरूरतों को पूरा करने की बात कही है, लेकिन साथ ही उसे लालची बनने पर चेताया भी है। प्रकृति का दूसरा सबक है कि अगर हम उसका उत्पीड़न करेंगे और उसकी निर्धारित सीमाओं का उल्लंघन करेंगे, तो वह अपना कर्ज भी वसूलेगी और दंड भी देगी…

प्रकृति ने हिमाचल को अपने सौंदर्य से निहाल करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी है। धर्मशाला के संदर्भ में अगर बात करें, तो धौलाधार पर्वत शृंखला का अनुपम प्राकृतिक सौंदर्य बेमिसाल है। इसके बावजूद एक सचेत, संवेदनशील व्यक्ति तब चिंतित हुए बिना नहीं रह पाता है जब उसे धर्मशाला और इसके आस-पास के क्षेत्रों में जगह-जगह हो रहे भू-स्खलन और भू-क्षरण नजर आते हैं। अगर समय रहते इन्हें रोकने के उपाय नहीं किए गए, तो इस पूरे इलाके का भविष्य सुरक्षित नहीं होगा। तीन साल पहले धर्मशाला कैंट के सिग्नल सैंटर एरिया, पिछले साल गमरू और टिल्लू गांव, इस साल अगस्त में गमरू, तोतारानी, तपोवन-कनैड़ के वनों तथा पिछले सप्ताह कालापुल के समीप हुए भू-स्खलन को देखते हुए सुरक्षित भविष्य के लिए सामूहिक प्रयास किए जाने अनिवार्य हैं। ध्यातव्य है कि हिमाचल प्रदेश का अधिकांश क्षेत्र भूकंप की दृष्टि से अति संवेदनशील जोन फाईव में आता है, किंतु नियमों को ताक पर धर कर धड़ाधड़ निजी और व्यावसायिक भवन बनाए जा रहे हैं। केवल हिमाचल ही नहीं, देश भर में आपसी सांठगांठ से अनियंत्रित और अवैज्ञानिक खनन हो रहा है, जिसमें स्थानीय ठेकेदार प्रकृति को बर्बाद कर रहे हैं। साल 2013 में उत्तराखंड, उसके बाद कश्मीर और इस साल केरल की बाढ़ देखने के बाद लगता है कि हम समय पर नहीं चेते, तो आने वाले समय में पहाड़ और मैदान बराबर हो जाएंगे।

हैरानगी तब होती है जब हम संभावित विनाश की ओर से मुंह मोड़ लेते हैं। एचपीसीए स्टेडियम के दस नंबर गेट से चरान खड्ड पर डिग्री कालेज, पुलिस लाईंस और धर्मशाला सिविल चुंगी के कैंची मोड़ पर हो रहे भू-क्षरण को देखकर भी अनदेखा किया जा रहा है। एचपीसीए स्टेडियम के दस नंबर गेट से आगे की पहाड़ी तो इन बरसातों में तीन-चार जगह से दरकी भी है। सुधेड़ ग्राम पंचायत के सिंकिंग जोन में कई मंजिला भवन बनाए जा रहे हैं। इसी तरह मैक्लोड़गंज, गमरू, भागसूनाग, धर्मकोट, नड्डी, सतोबरी आदि का सीना छीलने में लोग कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं। रात को गुपचुप पेड़ काटे जा रहे हैं और पहाडि़यों को काटने और पुराने भवनों को गिराए जाने के बाद स्थानीय जंगलों और खड्डों में मलबे के ढेर लगाए जा रहे हैं। वैसे तो इस साल की केरल बाढ़ से सबक लेते हुए हमें अभी से भविष्य को सुरक्षित बनाने के लिए कदम उठाने आरंभ कर देने चाहिए। अगर भारत के सबसे साक्षर प्रदेश का यह हाल हो सकता है, तो बाकी राज्यों का क्या हाल होगा? डा. माधव गाडगिल ने साल 2013 में प्रस्तुत अपनी रिपोर्ट में पश्चिमी घाट के अंधाधुंध उत्खनन से केरल के असुरक्षित भविष्य की बात कही थी। उनके अनुसार यही हाल रहा, तो इसके बाद गोवा तैयार रहे। कर्नाटक और महाराष्ट्र भी सुरक्षित नहीं।

लालच ने पूर्वोत्तर के राज्यों को भी नहीं छोड़ा। महज नाम बदल देने से मुंबई का खतरा नहीं टल गया। हर साल मुंबई जरा सी अप्रत्याशित बारिश होने पर कीचड़ का गोदाम बन जाती है। इस साल गुरूग्राम ने भी वही राह पकड़ ली है। ये सभी अनियोजित विकास के उत्तम उदाहरण हैं। केरल की बाढ़ बेहतर सबक है कि कोई भी प्राकृतिक आपदा, लालची और चालाक आदमियों द्वारा बांटने और राज करने के लिए तैयार तरीकों में फर्क नहीं करती। महात्मा गांधी ने प्रकृति द्वारा मनुष्य की तमाम जरूरतों को पूरा करने की बात कही है, लेकिन साथ ही उसे लालची बनने पर चेताया भी है। प्रकृति का दूसरा सबक है कि अगर हम उसका उत्पीड़न करेंगे और उसकी निर्धारित सीमाओं का उल्लघंन करेंगे, तो वह अपना कर्ज भी वसूलेगी और दंड भी देगी। भले ही हमारे नियम परिस्थिति, समाज, देश और भौगोलिक दशाओं के हिसाब से बदलते हैं, लेकिन कुदरत के नियम हर जगह एक से हैं और अटल हैं। हिमालय का एक भी राज्य ऐसा नहीं है, जहां पारिस्थितिकी असंतुलन न दिखाई दे रहा हो। इस संवेदनशील पहाड़ी शृंखला में आर्थिक योजनाओं को बढ़ावा देने से अधिक भला नहीं होगा। हिमालय को बचाने के लिए इसकी पारिस्थितिकी को ज्यादा महत्त्व देना अनिवार्य है। वन कटान, नदियों और पेयजल स्रोतों से छेड़छाड़, उत्खनन और सड़कों तथा भवनों के लिए लापरवाही से पहाड़ों को छीलना, हमें भयंकर तबाही की ओर ले जा रहा है। इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि वर्ष 1998 में किन्नौर की भीषण त्रासदी को भुलाकर हमने पहाड़ों को छीलना जारी रखा और नतीजा हमारे सामने है। शायद ही कोई साल खाली जाता हो, जब हिमाचल में पहाड़ न हिलते हों, बादल न फटते हों, बाढ़ न आती हो या कुछ इलाके सूखे की चपेट में न आते हों। धर्मशाला के आस-पास देखें तो लगता है नड्डी, सतोबरी, डल झील, धर्मकोट, भागसू नाग, मैक्लोडगंज, फरसेठगंज, गमरू, तोतारानी, कालापुल, सुधेड़, इंद्रुनाग, खनियारा, टिल्लू, योल के पहाड़, सकोह वगैरह मानो किसी भीषण त्रासदी का इंतजार कर रहे हैं। गुम्मा तथा त्रिलोकपुर का भू-स्खलन पिछले कई सालों से तंग कर रहा है। नूरपुर से लेकर कुल्लू-मनाली और लाहौल-स्पीति तक के पहाड़ दरक रहे हैं। लगता है अभी पहाड़ हमारे लालच, अवैज्ञानिक खनन, अनियोजित तथा अनियंत्रित विकास के विरोध में बस कदम भर ही उठा रहे हैं। जो बोया है, वह भी काटना पड़ेगा और जो बो रहे हैं, वह भी काटना ही पड़ेगा।


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