सुरेश निशांत की याद में खूब रोई कविता

By: Oct 28th, 2018 12:03 am

कवियों की विचारधारा का मीटर पकड़ना आसान नहीं, फिर भी निशांत के भाव की कविता का अपना उदय काल तय था। वह नदी तल में अपने अस्तित्व पर चोट खाते किसी पहाड़ी पत्थर की तरह घिसते-घिसते गोलाकार हुए और इसी स्वरूप में उनकी अभिव्यक्ति प्रवाहित तथा स्पंदित रही। साधारण के बीच असाधारण पाने की सदाशयता ने उनकी अपनी एक अलग भाषा गढ़ दी और वह देश की चर्चित साहित्यिक पत्रिकाओं तक अपनी पर्वतीय लकीरों से निकल कर पहुंच गए। सुरेश सेन निशांत का मानना था, ‘हर लेखक का लेखन बचपन की स्मृतियों, समाज से अर्जित अनुभवों और अपने समकालीन तथा अग्रज कवियों के अध्ययन से प्रभावित रहता है। इसमें हमारे स्वभाव का भी योगदान रहता है।’ वह प्रकृति प्रेमी और अपने द्वंद्व के चितेरे बन कर पेड़, नदियों, पत्तियों और पत्थरों से जीवन की जीवंतता ढूंढ पाए। अभिव्यक्ति के सामाजिक दर्पण से बड़ी तस्वीर की ख्वाहिश में सुरेश सेन में निराला, मुक्तिबोध तथा त्रिलोचन की कविताओं का अक्स देखा जा सकता है। वह कविता के करीब पहुंचने से पहले अपने अध्ययन की गहनता, विवेक की प्रौढ़ता तथा अनुभव की पराकाष्ठा से उन्नत हुए और इसलिए वह पाठक के मर्म पर खुद को चिन्हित करके विषयों का ऐसा अंबार छोड़ गए, जो सदा हमारे अपने तथा परिवेश के नजदीक रहेगा। उन्हीं के शब्दों में, ‘मैं क्या गलत करता हूं, जो कविता से मांगता हूं अंधेरे में कंदील भर रोशनी। धूप में पेड़ भर छांव-प्यास में घूंट भर जल।’

निशांत का कवितामय जीवन

बीज हूं मैं तुम्हारे हाथों में, तुम्हारे खेतों में

पेड़ पौधों की फुनगियों से सजा, धरती की नसों में करवट बदलता

तुम्हारे सपनों में फलता, बीज हूं मैं

मुझे तुम्हारे पास लाए पुरखे, कभी-कभी मैं

खुद ही हवा पानी के संग, डोलता हुआ आ गया।।

मैं हूं तो

बची हुई है, तुम्हारे जिंदा रहने की खबर

मैं हूं तो

सजते रहेंगे गांव हाट में, छोटी-छोटी खुशियों के मेले

मैं हूं तो

जरा सा भीगने पर, पुलक से भर जर जाती है परती धरती।।

उपले

पहाड़ वाले उस कच्चे घर की

दीवारों पे उपड़े हुए हैं ताजे उपले

उस औरत की दिनचर्या का

पहला जरूरी काम।

इन्हीं के नीचे दबाकर बचाए रखेगी वह

अपने चूल्हे की आग-जीवन की तपिश।।

सोशल मीडिया के पांव पर किस्से

लेखक हृदय अगर किसी के दिल के करीब जाना चाहे, तो कविता जीवन और जीवन कवितामय हो जाता है। अपनी कतार के लेखक, संवेदनशील कवि और शब्दों की सौम्यता के प्रतीक डा. हृदय पाल सिंह इसी हफ्ते अपनी चौथी किताब लेकर हाजिर हैं। चार खंडों में ‘दिल के करीब’ उनकी कविताओं का स्पर्श है, हालांकि वह अंद्रेटा के अंचल में गुनगुनाती प्रकृति से पूछते हैं कि बहुत हो गई कविता, लेकिन उनकी काव्यात्मक शख्सियत तो अविरल और अवतरित पगडंडियों पर साहित्य का अनूठा सफर लिख रही है। हिमाचल में दो किताबें सोशल मीडिया में अपनी हैसियत का जिक्र करती हैं, तो मानो लेखन अब खुद चल कर करीब आता है। किसी भी मुख्यमंत्री के आसपास किस्सों की कमी नहीं, लेकिन इन्हें बारीकी से पढ़कर एक पेशेवर वकील भी लेखक बन गया। यह पुस्तक समीक्षा की कसौटी पर कहां ठहरती है, लेकिन विनय शर्मा ने ‘राजा तां फकीर है…’ छाप कर लिखने को एक विषय जरूर दे दिया। दूसरी ओर एक किताब जो अपने पांव में घुंघरू बांध कर निकली है और जिसकी अनेकों बार सोशल मीडिया पर समीक्षा हुई है, खासी चर्चा में है। साहित्य संवाद को समर्पित यह पुस्तक अपने रोचक हेडिंग की बदौलत भी सोचने पर विवश करती है कि बिल्ली के पांव पर किस्से कैसे चलते होंगे। लेखक गणेश गनी को ‘किस्से चलते हैं, बिल्ली के पांव पर’ ने मीलों आगे बढ़ाया है, शुभकामनाएं।


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