आखिर हम हैं किस युग में

By: Nov 24th, 2018 12:05 am

समाज की प्रगतिशीलता पर कोई भी देवता न तो प्रतिबंध लगाता है और न आस्था का ऐसा कोई दस्तूर आज के युग में स्वीकार्य है, फिर भी इनसानी फितरत का भदेसपन हमारे सामाजिक आईने को चकनाचूर कर देता है। कुल्लू के देवसमाज का अभिप्राय मानव इतिहास की सांस्कृतिक ऊर्जा है, लेकिन इसकी छांव में समाज के कुछ कलंकित काले साये भयभीत करते हैं। देवताओं के नाम पर मानवीय आचरण की हालिया घटना पर गौर करें, तो हिमाचल अनपढ़, गंवार और जातीय वैमनस्य का शिकार हो जाता है। कुल्लू में परिवहन निगम के चालकों-परिचालकों को जातीय आधार पर मिली प्रताड़ना के सदके अब मामला विभागीय चिंता तथा प्रशासनिक हस्तक्षेप तक पहुंच गया है। देवभूमि में छूआछात की विषाक्त परंपरा से आजिज एचआरटीसी कर्मी को अगर दस हजार का जुर्माना अदा करना पड़े, तो कसूर की परतों में सारा परिवेश घिनौना दिखाई देता है। यह अनूठा अपराध और इसकी व्याख्या इससे भी अधिक वीभत्स। गांव की दहलीज ने यह कैसे चुन लिया कि वहां केवल सवर्ण जाति के लोग ही सांस ले सकते हैं और इस पहरेदारी का शिकार कोई सरकारी कर्मचारी कैसे हो सकता है। कानूनन ऐसे मामले का प्रकाश में आना सख्त सजा का आदेश देता है, लेकिन उस सोच का क्या करें जो आज भी समाज के भीतर इस तरह के अंधेरे पैदा करता है। इससे पहले भी एक मामले में मिड-डे मील के दौरान जातीय आधार पर लगी पांत में समाज बंट गया था, तो अब गांव की सरहद में घुसते ही जाति लुट गई। यह कौन सा कानून था, जिसमें जातीय पहचान को खंगाला जा रहा है, ताकि सामाजिक तरक्की के रास्ते अवरुद्ध रहें। क्यों न ऐसी परंपराओं का पालन करते वर्ग को ही राष्ट्रीय प्रगति से दरकिनार करते हुए सबक सिखाया जाए। जिस गांव की परिक्रमा में जातीय विद्वेष की दीवारें खड़ी हों, वहां सशर्त राजकीय सुविधाएं हटाई जाएं। यह इस तर्क के आधार पर कि राष्ट्रीय या राज्यीय मेनहत के फलक हर जाति, समूह या वर्ग का योगदान बिना पहचान के होता है। कोई गेहूं के दाने को देखकर बता सकता है कि इसकी जाति क्या है। सरहद पर तैनात देश के रक्षक का रक्त कोई जाति विशेष पैदा नहीं करती और न ही जज्बात की कोई जात है। ऐसे में सरकारी तौर पर उस गांव का हुक्का-पानी बंद करना होगा, जहां ईश्वर के हवाले से जुल्म के फौजदार बसते हों। अगर कुल्लू का एक गांव सरकारी बस कंडक्टर को जातीय आधार पर दस हजार जुर्माना इस वजह से लगा सकता है कि उसने एक रात्रि विश्राम किया, तो वहां की बस्ती को लोकतांत्रिक मर्यादा का हनन करने की सजा मिलनी चाहिए। सर्वप्रथम ऐसे गांव की परिवहन, विद्युत व जलापूर्ति सेवाएं बंद करनी होंगी तथा हर तरह की सुविधाओं पर पाबंदी लगा कर पूछा जाए कि वे अपना जातिगत महिमामंडन अब किस आधार पर करेंगे। स्वास्थ्य से चिकित्सा क्षेत्र तक अगर जातीय आधार पर कर्मचारियों की टोह लेनी हैं, तो बेहतर होगा ऐसे गांव को पाषाण काल में स्वतंत्र निर्वहन का हक दिया जाए। जब गांव का चूल्हा ठंडा पड़ेगा या आवश्यक सुविधाओं की राख नसीब होगी, तो मालूम होगा कि मात्र सवर्ण होने से सुरखाब के पर नहीं लगते, बल्कि इनसानी भाईचारा जीवनपर्यंत एक अनिवार्यता है। आखिर हम रह किस युग में रहे हैं। हद तो यह कि जातीय अहंकार के लिए अनावश्यक रूप से देव परंपराओं का चोला पहन कर मानवता विरोधी कदम उठाए जा रहे हैं। देवता का मुखौटा पहनकर जो समाज, इनसान के बीच वैमनस्य पैदा करे उसके खिलाफ सख्त कार्रवाई की सदा दरकार रहेगी। कुल्लू की घटना ने एक कंडक्टर को जातीय आधार पर अपमानित नहीं किया, बल्कि हिमाचल के प्रगतिशील चेहरे को बदनाम किया है। हिमाचल को न केवल सर्वश्रेष्ठ साक्षरता धारण करने का गौरव हासिल है, बल्कि इसे सामाजिक समरसता, धार्मिक सद्भावना तथा जातिहीन व्यवस्था में उन्नतिशील राज्य के रूप में देखा जाता है।  ऐसे में कुल्लू जैसी घटनाओं के खिलाफ हिमाचली समाज को अपनी सांस्कृतिक एकता को हरसूरत निरूपति करते हुए, ऐसे तत्त्वों को दरकिनार करना होगा।

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