आत्म पुराण

By: Nov 24th, 2018 12:04 am

त्याग और तप की दृष्टि से तुम ब्रह्म विद्या के अधिकारी भी हो। इसलिए हमने यही सोचा कि यदि मैं श्वेताश्वर ऋषि इनको ब्रह्म विद्या का उपदेश नहीं दूंगा, तो ये फिर कहां जाएंगे। इस विद्या के जानने वाले बहुत कम हैं और दध्यङ अथवर्ण ऋषि को तरह मैंने भी सब जीवों के उपहार के लिए इस विद्या के प्रचार का भार ग्रहण किया है। फिर इस प्रकार अधिकारीजनों को इस विद्या का उपदेश करने से परमेश्वर भी प्रसन्न होता है। इस बात को स्वयं भगवान कृष्ण ने भगवद्गीता में कहा है-

य इदं परमं ब्रह्मं मदभक्तेष्वभिधास्य ति।

भक्ति मयि परांकृत्वा मामवैषत्य संशयः।

न च तस्मान्मनुष्पेषु कश्चित् मे प्रियकृत्तमः।

भवितानं चमेतस्मादन्यः प्रियतरो भुविः।

अर्थात-हे अर्जुन! तुम्हारे लिए हमने जो यह परम गुह्य आत्म ज्ञान उपदेश किया है, इसको जो विद्वान पुरुष मेरे भक्तों को देगा, वह विद्वान परम भक्ति द्वारा मुझको ही प्राप्त करेगा, इसमें तनिक भी संदेह नहीं। ऐसे विद्वान पुरुष से अधिक मैं और किसी से प्रसन्न नहीं होता। वह निश्चित रूप से मुझे प्रसन्न करता है और ऐसा ब्रह्म वेत्ता सदा मुझे प्रिय होता है।’ इतना कहकर श्वेताश्वर ऋषि ने मौन धारण कर लिया। तब गुरु ने कहा हे शिष्य इस प्रकार उन संन्यासियों ने श्वेताश्वर  में वह आत्म ज्ञान प्राप्त किया, जो अन्यत्र मिल सकना संभव नहीं। क्योंकि कोई भी गुरु जब तक शिष्य की योग्यता और आचरण को अच्छी तरह परख नहीं लेता, तब तक इसे विद्या का उपदेश नहीं करेगा। इसके लिए शिष्य का शम, दम आदि साधनों से युक्त और आचार वान होना ही पर्याप्त नहीं है, किंतु उसमें गुरु के प्रति आंतरिक श्रद्धा अथवा पुत्र भाव अथवा शिष्य भाव होना भी अनिवार्य है। अज्ञात कुल शील के व्यक्ति को अकस्मात इस विद्या का उपदेश देना उचित नहीं। बिना श्रद्धा के न शिष्य हृदय से विश्वास कर सकेगा, न गुरु संपूर्ण विद्या को स्पष्ट रूप में वर्णन कर सकेगा। व्यास भगवान ने इस तथ्य को स्पष्ट रूप से कह दिया है-

गुरु योमानवैरन्यैः समयश्यति मोहतः।

न तस्यास्मिभवेल्लोकै सुखंनैव परत्रवा।

अर्थात-जो कोई पुरुष प्रमादवश अपने ब्रह्म विद्या का उपदेश करने वाले गुरु को अन्य मनुष्यों के सदृश्य समझता है, उसको इस लोक अथवा परलोक में तनिक भी सुख की प्राप्ति नहीं होती।’

हे शिष्य! पूर्वकाल में ब्रह्मवेता विद्वानों ने माया शक्ति के दर्शन करके जिस ब्रह्म विद्या का ज्ञान प्राप्त किया था, उसी ब्रह्म विद्या को श्वेताश्वर ऋषि ने संन्यासियों को सुनाया था और उसी का उपदेश इस समय तुमको किया गया है। यह कथानाक श्वेताश्वर उपनिषद के सारांश और व्याख्या रूप है, अब इसके पश्चात तुम्हारी जो जिज्ञासा हो, उसे प्रकट करो, तो उसी का विवेचन किया जाएगा।

शिष्य ने कहा, हे गुरुदेव! आपने अष्टम अध्याय में एक स्थान पर कहा था कि देवगण भी किसी को शीघ्र ब्रह्म विद्या का उपदेश नहीं देते। केवल जब वे वचनबद्ध हो जाते हैं, तभी विवश होकर उसको बतलाते हैं।

नचिकेता नामक ब्रह्मचारी ने यमराज से इसी प्रकार ब्रह्म विद्या का सारांश सुना था, तो आप कृपा कर बतलाएं कि वह नचिकेता कौन था, वह यमराज के समीप किस प्रकार पहुंचा और किस उपाय से उसने ब्रह्म विद्या का उपदेश ग्रहण किया। शिष्य की प्रार्थना सुनकर गुरुदेव प्रसन्न होकर कहने लगे,हे शिष्य! प्राचीनकाल में अरुणि ऋषि का पुत्र उद्दालक समस्त वेदवेत्ता ब्राह्मणों में श्रेष्ठ था।

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