गीता रहस्य

By: Nov 24th, 2018 12:04 am

देवयान मार्ग पर चलने वाले साधक वेदों के ज्ञाता, विद्वान, आचार्य से इन तीन विद्याओं का प्रथम शब्द ब्रह्म अर्थात वेदों से अध्ययन करते हैं। पुनः ईश्वर नाम स्मरण अष्टांग योग विद्या का अभ्यास करते हुए असम्प्रज्ञात समाधि की अवस्था में पहुंचते हैं जहां उन्हें ईश्वर की अनुभूति होती है और मोक्ष पद प्राप्त होता है…

 इसी आधार पर श्लोक 8/25 में श्रीकृष्ण महाराज ने शुक्ल और कृष्ण अर्थात देवयान और पितृयान दोनों मार्गों को सनातन मार्ग कहा है, क्योंकि दोनों मार्गों का वर्णन वेदों में है।

वेद सनातन हैं अतः यह दोनों मार्ग भी सनातन हैं। पुनः श्रीकृष्ण महाराज ने कहा एक मार्ग जो देवयान मार्ग है, उसको प्राप्त हुआ योगी अनावृत्तिम यातिम अर्थात पुनः वापस जन्म लेने नहीं आता और दूसरा मार्ग जो पितृयान है उस पर चला हुआ प्राणी पुनः जन्म लेता रहता है।

हम यह विचार करें कि यदि हम वेदों की विद्या को नहीं जानेंगे, तब योगेश्वर श्रीकृष्ण महाराज के गीता में कहे हुए वैदिक प्रवचन के सत्य स्वरूप को नहीं जान पाएंगे। अतः हम भारत वासियों का कर्त्तव्य है कि पुनः देश विश्वगुरु की पदवी को प्राप्त करने के लिए वेदों की और लौटें और वेद विद्या को आचार्य से सुनें तथा विद्वान बनेें।

टिप्पणी- वास्वत में सूर्य केवल अपनी धुरी पर ही घूमता है, वह कहीं आता-जाता नहीं है परंतु केवल पृथ्वी ही सूर्य के चारों ओर घूमती है और एक समय अपनी धुरी पर घूमती है, जिसके कारण ऐसा लगता है कि सूर्य अपने स्थान बसंत सम्पात से दक्षिण और उत्तर की ओर आया- जाया करता है। श्लोक 8/27 में श्रीकृष्ण महाराज अर्जुन से कह रहे हैं कि हे अर्जुन इन दोनों मार्गों को जानता हुआ कोई भी योगी मोह को प्राप्त नहीं होता। अतः हे अर्जुन सब काल में योग युक्त हो।

भाव- देवयान मार्ग वेदों के ज्ञाता विद्वानों की विद्या को आचरण में लाने वाला मार्ग है। वेदों में तीन विद्याएं कही हैं ज्ञान कांड, कर्म कांड एवं उपासना कांड और इन तीन विद्याओं का पिछले कई श्लोकों में विस्तार से वर्णन किया गया।

देवयान मार्ग पर चलने वाले साधक वेदों के ज्ञाता, विद्वान, आचार्य से इन तीन विद्याओं का प्रथम शब्द ब्रह्म अर्थात वेदों से अध्ययन करते हैं। पुनः ईश्वर नाम स्मरण अष्टांग योग विद्या का अभ्यास करते हुए असम्प्रज्ञात समाधि की अवस्था में पहुंचते हैं जहां उन्हें ईश्वर की अनुभूति होती है और मोक्ष पद प्राप्त होता है।

यह ज्ञान मार्ग है। अथर्ववेद मंत्र 6/117/3 में कहा कि ब्रह्मचर्य आश्रम में ब्रह्मचर्य आदि धारण करके ऋषि ऋण को उतारें, गृहस्थाश्रम में परिवार पालन, माता-पिता, वृद्धों की सेवा आदि के द्वारा पितृऋण चुकाएं, वानप्रस्थ में पुनः वेदाध्ययन, यज्ञों आदि के द्वारा देवऋण उतारें और जीवन के अंतिम पड़ाव में जब हमारे ऊपर कोई भी ऋण शेष न रहे, तब पूर्ण रूप से अपने शुभ कर्म एवं तपस्या के आधार पर देवयान मार्ग अथवा पितृयान मार्ग को प्राप्त हों।

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