पुराणों में वर्णित शनिदेव से जुड़े रहस्य

By: Nov 24th, 2018 12:04 am

शनि ग्रह के प्रति अनेक आख्यान पुराणों में प्राप्त होते हैं। शनि को सूर्य पुत्र माना जाता है, लेकिन साथ ही पितृ शत्रु भी। शनि ग्रह के संबंध मंे अनेक भ्रांतियां और इस लिए उसे मारक, अशुभ और दुख कारक माना जाता है। पाश्चात्य ज्योतिषी भी उसे दुख देने वाला मानते हैं। शनि उतना अशुभ और मारक नहीं है, जितना उसे माना जाता है। इसलिए वह शत्रु नहीं मित्र है। मोक्ष को देने वाला एक मात्र शनि ग्रह ही है।

सत्य तो यह है कि शनि प्रकृति में संतुलन पैदा करता है और हर प्राणी के साथ न्याय करता है। जो लोग अनुचित विषमता और अस्वाभाविक समता को आश्रय देते हैं, शनि केवल उन्हीं को प्रताडि़त करता है। शनि ग्रह वैदूर्यरत्न अथवा बाणफूल या अलसी के फूल जैसे निर्मल रंग से जब प्रकाशित होता है, तो उस समय प्रजा के लिए शुभ फल देता है यह अन्य वर्णों को प्रकाश देता है, तो उच्च वर्णों को समाप्त करता है, ऐसा ऋषि महात्मा कहते हैं।

इस कारण शनि है पितृ शत्रु- धर्म ग्रंथो के अनुसार सूर्य की द्वितीय पत्नी के गर्भ से शनि देव का जन्म हुआ, जब शनि देव छाया के गर्भ में थे, तब छाया भगवन शंकर की भक्ति में इतनी ध्यान मग्न थी कि उसने अपने खाने पीने की सुध नहीं थी, जिसका प्रभाव उसके पुत्र पर पड़ा और उसका वर्ण श्याम हो गया। शनि के श्यामवर्ण को देखकर सूर्य ने अपनी पत्नी छाया पर आरोप लगाया की शनि मेरा पुत्र नहीं है। तभी से शनि अपने पिता से शत्रु भाव रखता है। शनि देव ने अपनी साधना तपस्या द्वारा शिवजी को प्रसन्न कर अपने पिता सूर्य की भांति शक्ति प्राप्त की और शिवजी ने शनि देव को वरदान मांगने को कहा, तब शनि देव ने प्रार्थना की कि युगों युगों में मेरी माता छाया की पराजय होती रही है, मेरे पिता पिता सूर्य द्वारा अनेक बार अपमानित व प्रताडि़त किया गया है।

अतः माता की इच्छा है कि मेरा पुत्र अपने पिता से मेरे अपमान का बदला ले और उनसे भी ज्यादा शक्तिशाली बने, तब भगवान शंकर ने वरदान देते हुए कहा कि नवग्रहों में तुम्हारा सर्वश्रेष्ठ स्थान होगा। मानव तो क्या देवता भी तुम्हारे नाम से भयभीत रहेंगे। शनि के संबंध में हमे पुराणों में अनेक आख्यान मिलते हैं। माता के छल के कारण पिता ने उसे श्राप दिया। पिता अर्थात सूर्य ने कहा, आप क्रूरतापूर्ण दृष्टि देखने वाले मंदगामी ग्रह हो जाएं। यह भी आख्यान मिलता है कि शनि के प्रकोप से ही अपने राज्य को घोर दुर्भिक्ष से बचाने के लिए राजा दशरथ उनसे मुकाबला करने पहुंचे, तो उनका पुरुषार्थ देख कर शनि ने उनसे वरदान मांगने के लिए कहा, राजा दशरथ ने विधिवत स्तुति कर उन्हें प्रसन्न किया। पद्म पुराण में इस प्रसंग का सविस्तार वर्णन है। ब्रह्मवैवर्त पुराण में शनि ने जगत जननी पार्वती को बताया है कि मैं सौ जन्मों तक जातक की करनी का फल भुगतान करता हूं। एक बार जब विष्णु प्रिया लक्ष्मी ने शनि से पूछा कि तुम क्यों जातकों को धन हानि करते हो, क्यों सभी तुम्हारे प्रभाव से प्रताडि़त रहते हैं, तो शनि महाराज ने उत्तर दिया, मातेश्वरी उसमंे मेरा कोई दोष नहीं है, परमपिता परमात्मा ने मुझे तीनों लोकों का न्यायाधीश नियुक्त किया हुआ है, इसलिए जो भी तीनों लोकों के अंदर अन्याय करता है, उसे दंड देना मेरा काम है। ऋषि अगस्त्य ने जब शनि देव से प्रार्थना की थी, तो उन्होंने राक्षसों से उनको मुक्ति दिलवाई थी।

जिस किसी ने भी अन्याय किया, उनको ही उन्होंने दंड दिया, चाहे वह भगवान शिव की अर्द्धांगिनी सती रही हों, जिन्होंने सीता का रूप रखने के बाद बाबा भोले नाथ से झूठ बोलकर अपनी सफाई दी और परिणाम में उनको अपने ही पिता की यज्ञ में हवन कुंड मंे जल कर मरने के लिए शनि देव ने विवश कर दिया।

राजा हरिश्चंद्र रहे हों, जिनके दान देने के अभिमान के कारण सप्तनीक बाजार मे बिकना पड़ा और श्मशान की रखवाली तक करनी पड़ी या राजा नल और दमयंती को ही ले लीजिए, जिनके तुच्छ पापों की सजा के लिए उन्हंे दर-दर भटकना पड़ा और भूनी हुई मछलियां तक पानी में तैर कर भाग गईं या  फिर साधारण मनुष्य के द्वारा जो भी मनसा, वाचा,  कर्मणा, पाप कर दिया जाता है, वह चाहे जाने में किया जाए या अनजाने में, उसे भुगतना तो पड़ेगा ही।

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