भारत में बेरोजगारी का परिदृश्य

By: Nov 3rd, 2018 12:07 am

कुलभूषण उपमन्यु

लेखक, हिमालय नीति अभ्यिन के अध्यक्ष हैं

गांव-गांव को उत्पादन केकेंद्र के रूप में विकसित किया जाए और उस छोटे पैमाने के विकेंद्रित उत्पादन के अनुकूल छोटी-छोटी मशीनों की खोज की जाए और उत्पादन की गुणवत्ता और मात्रा को जरूरत के मुताबिक बढ़ाया जाए। छोटी-छोटी मशीनों पर घर-घर उत्पादन होगा, तो रोजगार के अपार अवसर पैदा होंगे, किंतु इस रास्ते को न अपना कर केंद्रीकरण के मार्ग को अपनाया गया। कुछ मूल उद्योगों के लिए तो यह ठीक फैसला हो सकता था,  किंतु तमाम उत्पादन प्रक्रिया को केंद्रीकृत करना ठीक नहीं…

भारत में वर्तमान बेरोजगारों की पंजीकृत संख्या 31 मिलियन है। कितने ही लोग पंजीकरण की सीमा से ही बाहर होते हैं, जिसका कारण शिक्षा का अभाव या मोहभंग भी हो सकता है। अर्ध बेरोजगारों की संख्या में अधिकतर कृषि कार्य में लगे लोग हैं, जो वर्ष में लगभग 6 माह बेरोजगार रहने के लिए बाध्य होते हैं। मशीनीकरण के वर्तमान मॉडल में उत्पादन का केंद्रीकरण ही इसका मूल कारण है। देश की कार्यक्षम शक्ति का इतना बड़ा भाग अनुत्पादक रहे, तो यह देश और उससे जुड़े हर ठीक सोच वाले व्यक्ति के लिए चिंता का विषय है। औद्योगिक क्रांति के बाद गांधी जी ने मशीनों पर अपने विचार प्रकट करते हुए ऐसी आशंका व्यक्त की थी और कहा था कि गधा मजूरी से बचाने के लिए तो मशीन एक अच्छा उपकरण सिद्ध हो सकती है, किंतु जब यह किसी के हाथ का काम छीनने का साधन बन जाती है, तो समाज का हित करने के बजाय अहित ज्यादा करती है। इसके साथ ही अंधाधुंध मशीनीकरण मनुष्य को मशीनों का गुलाम बना देने के साथ एक केंद्रीकृत उत्पादन व्यवस्था को जन्म देगी, जो आगे चलकर निरंकुश शासन और अफसरशाही के बूते एकाधिकारवादी उत्पादन व्यवस्था का रूप ले लेगी। इससे गरीब और अमीर के बीच की खाई बढ़ती जाएगी। दूसरी ओर प्रकृति के दोहन की असीम शक्ति मशीनों के कारण मनुष्य के हाथ लग जाएगी। परिणामस्वरूप प्रकृति का अंधाधुंध दोहन होगा, जो टिकाऊ विकास का आधार नहीं हो सकता। गांधी जी के शब्दों में ‘प्रकृति के पास सबकी आवश्यकता पूर्ति के लिए काफी है, किंतु किसी के लालच के लिए कुछ नहीं’- टिकाऊ विकास पर मशीनीकरण के खतरे की ओर ही इशारा किया गया है। पहली पीढ़ी के औद्योगिक विकास के बाद हम दूसरी और तीसरी पीढ़ी के विकास की पीढि़यां चढ़ते जा रहे हैं।

औद्योगिक उत्पादन के विशाल भंडारों के खड़े होने के दो परिणाम सामने आए हैं। एक ओर तो लोगों के जीवन स्तर में अप्रत्याशित सुधार हुआ है, जो सामने दिखता है और लुभाता भी है। दूसरी ओर उत्पादन के साधन और उत्पादन प्रक्रियाओं पर कुछ लोगों और देशों का कब्जा होता जा रहा है। यह प्रवृत्ति लगातार बढ़ती ही जा रही है। इससे उत्पादन तो लगातार बढ़ता जा रहा है, किंतु मशीनों के उत्तरोत्तर विकास के चलते मशीनों पर काम करने वालों की मांग अनुपातिक रूप में घटती जा रही है। वर्तमान स्थिति को ‘जॉबलैस ग्रोथ’ के रूप में परिभाषित किया जा रहा है। यानी देश में उत्पादन और अर्थव्यवस्था तो आगे बढ़ रहे हैं, किंतु रोजगार के अवसर नहीं बढ़ रहे हैं, क्योंकि नई मशीनें स्वचालित होती जा रही हैं। इसलिए आर्थिक वृद्धि दर के बढ़ने के बावजूद रोजगार बढ़ने के अवसर कम ही खड़े हो रहे हैं। गांधी जी ने सूत्र रूप में यह रास्ता सुझाया था कि केंद्रीकृत उत्पादन व्यवस्था के स्थान पर विकेंद्रित उत्पादन व्यवस्था को अपनाया जाए। गांव-गांव को उत्पादन केकेंद्र के रूप में विकसित किया जाए और उस छोटे पैमाने के विकेंद्रित उत्पादन के अनुकूल छोटी-छोटी मशीनों की खोज की जाए और उत्पादन की गुणवत्ता और मात्रा को जरूरत के मुताबिक बढ़ाया जाए।

छोटी-छोटी मशीनों पर घर-घर उत्पादन होगा, तो रोजगार के अपार अवसर पैदा होंगे, किंतु इस रास्ते को न अपना कर केंद्रीकरण के मार्ग को अपनाया गया। कुछ मूल उद्योगों के लिए तो यह ठीक फैसला हो सकता था, जैसे कि स्टील प्लांट, छोटी मशीनें बनाने वाले बड़े उद्योग, रेल, जहाज, हवाई जहाज  आदि ऐसे काम जो छोटे उपक्रमों से नहीं हो सकते थे, किंतु तमाम उत्पादन प्रक्रिया को केंद्रीकृत करके भारत की विशाल आबादी के रोजगार की व्यवस्थाएं करना कठिनतर होता गया। गांव जो पुराने समय उत्पादन का गढ़ होते थे, उनको नई समयानुकूल उत्पादक व्यवस्थाओं में बदलने के बजाय उन्हें उजड़ने दिया गया और शहर गांवों से आए बेरोजगारों की भीड़ से पटते गए। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के आगमन और विश्व को एक बाजार में बदल देने के कारण बचे-खुचे ग्रामीण उद्योग और लघु उद्योग बहुराष्ट्रीय कंपनियों के साथ प्रतिस्पर्धा में मात खा गए। अब त्योहारों में लगने वाली सामग्रियां जो बखूबी ग्रामीण उद्योगों में बन सकती हैं, वे तक चीन आदि देशों से आयात होकर आने लगी हैं। यह बात ठीक हो सकती है कि प्रतिस्पर्धा से सामान की गुणवत्ता में सुधार होता है और कीमत कम होती जाती है, किंतु असमान प्रतिस्पर्धा भी सशक्त के हित साधन का माध्यम बन जाती है। ग्रामीण स्तर की उत्पादक इकाइयों में प्रतिस्पर्धा की व्यवस्था होनी चाहिए और उनके लिए उन्नत तकनीक और नवाचार का कार्य करने वाली इकाइयों में प्रतिस्पर्धा होनी चाहिए, इसलिए यह जरूरी है कि अपने देश की वे जरूरतें जिनको अपने देश में बना कर पूरा किया जा सकता है, उन उत्पादों को देश में ग्रामीण कुटीर और लघु उद्योगों में बना कर पूरा करने की बृहद योजनाएं बनाई जानी चाहिए। वर्तमान प्रयास तो ऐसे उत्पादों तक ही सीमित रहने वाले हैं जिनके निर्माण में कुटीर उद्योगों की भूमिका नगण्य ही रहने वाली है। ऐसे में रोजगार सृजन की क्षमता भी सीमित ही रहने वाली है। सेवा क्षेत्र सबसे तेज गति से बढ़ने वाला आर्थिक क्षेत्र बन गया है, इस पर उचित ध्यान तो दिया जाना चाहिए किंतु इसकी भी सीमाओं को ध्यान में रखना होगा। अतः उत्पादक उद्योगों की भूमिका को कमतर करके नहीं आंका जा सकता। अमरीका जैसे देश एक सीमा तक संरक्षणवाद का सहारा लेने को मजबूर हो रहे हैं तो हम भी ऐसे उत्पादों को संरक्षण दे कर प्रोत्साहित कर सकते हैं जो गांवों में कुटीर और लघु उद्योगों में पैदा किए जा सकते हैं और रोजगार पैदा करने की भरपूर क्षमता रखते हैं। गांधी जी ने कुछ बने बनाए समाधान थोपने की बात कभी नहीं की, बल्कि सत्य के प्रयोग किए और आगे आने वाली पीढि़यों से यह उम्मीद की कि वे अपने समय और परिस्थिति के अनुरूप अपने समाधान स्वयं खोजने के लिए प्रवृत्त हों। हम विकेंद्रित ग्राम आधारित रोजगार संवर्धक व्यवस्था का सूत्र वाक्य याद रख कर आगे बढ़ सकते हैं।

वर्तमान अर्थव्यवस्था का एक दूसरा खोट यह है कि यह अनावश्यक उत्पादन को भी प्रोत्साहित करती है और विकास के लिए संसाधनों की बर्बादी को जरूरी मानती है। विकेंद्रित व्यवस्था इस खतरे से भी बचाती है। अनावश्यक उत्पादन को बाजार उपलब्ध करवाने के लिए ही दो विश्व युद्ध हो चुके हैं। आज फिर चीन और अमरीका व्यापारिक युद्ध में उलझ गए हैं। इसके विकल्प में गांधियन अर्थव्यवस्था अहिंसक विश्व व्यवस्था के निर्माण में सहायक है।


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