श्रीविश्वकर्मा पुराण

By: Nov 24th, 2018 12:04 am

इस नियम के आधार से राज्य के सातों पूर्वजों के महल एक ही लाइन में खड़े थे तथा उन सबके पास प्राचीन ब्रह्मर्षि का महल भी था। ये सब महल एक ही डिजाइन के थे और राज्य शिल्पी की सूचना के अनुसार तैयार किए हुए थे। अजनबी बात तो यह थी कि ये सब महल जमीन के अंदर हवा में एक मात्र खंभे के आधार से बने हुए थे। अब यहां आए हुए उन चार पंडितों ने इसी मुद्दे के ऊपर ही विवाद तय किया था।

उनका कहना था कि एक ही स्थान के ऊपर बने हुए महल दुश्मन के हमले से राजा का तथा उसके कुटुंब का किसी भी तरह रक्षण नहीं कर सकते। कारण कि यदि दुश्मन इस एक ही खंभे का नाश करे, तो सारा राजमहल धूल में मिल जाएगा।  ऐसा होते ही अपने सब परिवार के सहित राजा यम के सदन में पहुंच जाएगा, इससे ऐसा राजमहल बनाने की सलाह देने वाला पुरोहित राजनीति तथा शिल्प कला का पूरा जानकार नहीं माना जा सकता।

ऐसे पुरोहित को राज्य के द्वारा पूरी शिक्षा देनी चाहिए। सारे राज्य का वो चिर शत्रु है। क्योंकि राजा की सलामती ही राज्य की सलामती है, विवाद के लिए ऐसे विचित्र मुद्दे को देखकर सीमंत तथा उसके पुत्र बहुत बड़ी चिंता मंे पड़ गए थे। पीढि़यों से राज पुरोहितपना अपने घर ही था और इन सब महलों के शिल्प तथा सब राज्य का भार राजनीति अपने ही कुल पुरुषांे के पूर्वजों ने तय की हुई थी और इससे ये सारा आक्षेप अपने ऊपर ही आ पड़ता था और इस प्रकार जो ये मुद्दा अपने विरुद्ध में हो गया, तो राज्य पुरोहितपना तो जाए तथा जान भी खोनी पड़े।

फिर भी सीमंत को इस बात की जरा भी चिंता न होती थी। उसको तो मात्र यह ही चिंता होती थी कि सात-सात पीढ़ी से राज्य पुरोहित का पद धारण करके बाप-दादों ने जिस कीर्ति का संपादन किया है, वह कीर्ति आज मात्र एक ही पल में एक परदेशी के हाथ से नाश हो जाएगी।

इस एक ही चिंता में घर के सब मनुष्यों की नींद तथा आहार हराम हो गया था। प्राचीन महर्षि राजा ने अपने राज्य में ड्योढ़ी पिटाई थी तथा पंडितों की होने वाली सभा और उस सभा में होने वाली चर्चा आदि सभी बात की विस्तार पूर्वक घोषणा कर दी थी। राज्य पुरोहित के मार्ग दर्शन के अनुसार उत्तम सभा मंडप की भी रचना हो गई थी। सभा मडंप के बीच में राजा का आसन तथा उसके दोनों ओर कर्मचारियों के आसन शोभा पा रहे थे। राजा के सिंहासन के पीछे राज्य कुटुंब के अन्य स्त्री-पुरुषों की व्यवस्था की गई थी। सारी राज्य सभा के जैमनी तरफ राज्य की तरफ से वाद-विवाद में भाग लेने की इच्छा वाले पंडितों के लिए बैठने की व्यवस्था थी तथा बायीं ओर बाहर से आए हुए पंडितों के लिए आसन बिछाए गए थे। सामने की ओर आई हुई जगह में नगरजनों के लिए व्यवस्था की हुई थी। उसमें भी एक तरफ पुरुष तथा दूसरी तरफ स्त्रियां, इस प्रकार अलग-अलग व्यवस्था की गई थी।

देखते-देखते 15 दिन बीत गए थे और सभा इकट्ठी होने का प्रभात हुआ। नगर में से जत्थों के साथ मनुष्य सभा की ओर जाने लगे तथा राजा की उद्घोषणा से दूर-दूर के पंडित भी आ रहे थे। चर्चा का विचित्र विषय सुनकर वाद-विवाद में उतरने को तो किसी भी पंडित की इच्छा न होती थी फिर भी सभा में क्या होगा वह जानने की इच्छा वृत्ति से ही सब आज यहां इकट्ठे हो रहे थे।

नगर के सब पंडितों को आज भयानक चिंता हो रही थी। सीमंत ऋषि के लिए सबको प्रेम था और इसलिए ही सुबह होते ही, सीमंत के यहां पंडितों का तांता लग गया। हर एक अपनी लगन से तथा अपनी अशांति दिखाने के लिए एवं सीमंत से अनेक प्रश्न पूछ रहे थे, परंतु सीमंत सबसे एकमात्र यह ही कहता था कि जैसी प्रभु की इच्छा।

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