सीबीआई भरोसे लायक नहीं

By: Nov 19th, 2018 12:05 am

सीबीआई देश की सबसे प्रमुख जांच एजेंसी है। बड़े घोटालों की जांच कर उन्हें निष्कर्ष तक पहुंचाती रही है। आज भी नीरव मोदी, मेहुल चोकसी, विजय माल्या के आर्थिक घोटालों और राज्यों के विवादों की जांच सीबीआई ही कर रही है। शीर्ष अदालत भी उसकी मुखापेक्षी है और प्रमुख घपलों की जांच उसी को सौंपती रही है। एक किस्म से सीबीआई न्याय की सूत्रधार है, लेकिन आज वह खुद भी कटघरे में खड़ी है। जब एजेंसी के निदेशक और विशेष निदेशक को ही सर्वोच्च न्यायालय ने क्लीन चिट नहीं दी, तो वह दूसरों को न्याय क्या दिलाएगी, सवाल बुनियादी यही है? इस सवाल पर सबसे पहले आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू की टिप्पणी आई है कि सीबीआई अब भरोसे के लायक नहीं रही। नतीजतन आंध्र ने सबसे पहले सीबीआई पर अपनी सहमति वापस ली है। उसी तर्ज पर पश्चिम बंगाल ने कार्रवाई की है। अब जांच एजेंसी इन राज्यों के अधिकार क्षेत्र में प्रवेश नहीं कर पाएगी। इन राज्यों में सीबीआई छापे नहीं मार पाएगी, तलाशी अभियान नहीं चला सकेगी और न ही जांच कर पाएगी। ऐसा सीबीआई दिल्ली विशेष पुलिस प्रतिष्ठान अधिनियम, 1946 में प्रावधान है कि धारा 6 के मुताबिक राज्य सरकार की सहमति के बिना जांच एजेंसी उस राज्य के अधिकार क्षेत्र में प्रवेश नहीं कर सकती। अलबत्ता धारा-5 के तहत सीबीआई का चरित्र राष्ट्रीय है। यानी वह सभी राज्यों में दखल कर जांच-कार्य कर सकती है। आंध्र और बंगाल सरकारों के ये निर्णय ‘राजनीतिक’ भी हो सकते हैं, क्योंकि चंद्रबाबू नायडू आरोप लगाते रहे हैं कि केंद्र सरकार सीबीआई और आयकर विभाग का दुरुपयोग कर अपनी विरोधी सरकारों को अस्थिर कर रही है। नायडू की आवाज का समर्थन केजरीवाल सरीखे मुख्यमंत्री ने भी किया है। बेशक कुछ बड़े नेताओं के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामलों में सीबीआई जांच की घुड़कियां दी जाती रही हैं, ताकि वे नेता केंद्र सरकार की राजनीति के मुताबिक चलें, लेकिन आज भ्रष्टाचार के दाग खुद सीबीआई पर ही हैं। लिहाजा चंद्रबाबू ने सबसे पहले सीबीआई जांच के प्रति असहमति जताई है। इसके राजनीतिक कारण ये भी हो सकते हैं कि कुछ टीडीपी नेताओं के खिलाफ एजेंसियां जांच कर रही हैं और 100 करोड़ रुपए का घपला सामने आया है। इसी तरह बंगाल में सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस के कुछ नेता चिटफंड और अन्य घोटालों में लिप्त पाए गए हैं। कुछ जेल भी जा आए हैं और फिलहाल जमानत पर हैं। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी उन्हें बचाना चाह रही होंगी, लेकिन भ्रष्ट नेता इसी से बच नहीं सकते। बहरहाल राज्यों की यह असहमति परोक्ष रूप से केंद्रीय सत्ता को खारिज करने का फैसला है, जो देश के संघीय ढांचे की व्यवस्था के खिलाफ है। हालांकि उच्च और सर्वोच्च न्यायालयों के आदेश पर सीबीआई असहमति वाले राज्यों के अधिकार क्षेत्रों में भी जाकर जांच कर सकती है। यदि मामले आंध्र और बंगाल में दर्ज न होकर, नई दिल्ली में दर्ज किए गए हैं, तो भी सीबीआई असहमति के बावजूद अपने संवैधानिक दायित्वों को निभा सकती है, लेकिन सवाल इससे भी अहम है कि सीबीआई को भरोसे लायक न मानने की नौबत ही क्यों आई? केंद्रीय सतर्कता आयोग (सीवीसी) ने जो जांच रपट शीर्ष अदालत की न्यायिक पीठ को सौंपी है, उसमें आरोपों को ‘प्रतिकूल’ और ‘बेहद प्रतिकूल’ भी माना गया है। न्यायिक पीठ ने प्रथमद्रष्ट्या सीबीआई निदेशक (सबसे उच्च अधिकारी) आलोक वर्मा को ‘क्लीन चिट’ नहीं दी है। सोमवार दोपहर 1 बजे तक वर्मा सीवीसी रपट पर अपना जवाब सीलबंद लिफाफे में सुप्रीम कोर्ट को सौंपेंगे और अगले दिन 20 नवंबर को न्यायिक पीठ अपना फैसला सुना सकती है। यह पहली बार देश की प्रमुख जांच एजेंसी के भीतर हो रहा है। सीबीआई अपराधियों के खिलाफ आरोप-पत्र अदालत में दाखिल करती है, जबकि आज खुद ही एजेंसी के दो आला अधिकारी ‘आरोपित’ हैं। उन पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप हैं। सीबीआई के अस्तित्व पर ही संदेह और सवाल हैं। स्थितियां ऐसी हैं कि एक संयुक्त निदेशक स्तर का अधिकारी सीबीआई को संचालित कर रहा है, सीबीआई निदेशक को दो साल का निश्चित कार्यकाल भी पूरा नहीं करने दिया गया, दलील बेशक छुट्टी की दी जा रही हो और अदालत को हस्तक्षेप करना पड़ा हो! बेशक सीबीआई ने सार्वजनिक तौर पर भरोसा तो खोया है। अब उसे नए सिरे से अर्जित करना होगा।


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