सूर्योपासना को समर्पित त्योहार छठ पूजा

By: Nov 10th, 2018 12:10 am

उत्तराखंड का उत्तरायण पर्व हो या केरल का ओणम, कर्नाटक की रथसप्तमी हो या बिहार का छठ पर्व, सभी इसके द्योतक हैं कि भारत मूलतः सूर्य संस्कृति के उपासकों का देश है तथा बारह महीनों के तीज-त्योहार सूर्य के संवत्सर चक्र के अनुसार मनाए जाते हैं…

छठपूजा अथवा छठ पर्व कार्तिक शुक्ल पक्ष की षष्ठी को मनाया जाने वाला एक हिंदू पर्व है। सूर्योपासना का यह अनुपम लोकपर्व मुख्य रूप से पूर्वी भारत के बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश और नेपाल के तराई क्षेत्रों में मनाया जाता है। उत्तराखंड का उत्तरायण पर्व हो या केरल का ओणम, कर्नाटक की रथसप्तमी हो या बिहार का छठ पर्व, सभी इसके द्योतक हैं कि भारत मूलतः सूर्य संस्कृति के उपासकों का देश है तथा बारह महीनों के तीज-त्योहार सूर्य के संवत्सर चक्र के अनुसार मनाए जाते हैं। छठ से जुड़ी पौराणिक मान्यताओं और लोकगाथाओं पर गौर करें तो पता चलता है कि भारत के आदिकालीन सूर्यवंशी भरत राजाओं का यह मुख्य पर्व था। मगध और आनर्त के राजनीतिक इतिहास के साथ भी छठ की ऐतिहासिक कडि़यां जुड़ती हैं।

मान्यताएं

इस संबंध में मान्यता है कि मगध सम्राट जरासंध के एक पूर्वज का कुष्ठ रोग दूर करने के लिए शाकलद्वीपीय मग ब्राह्मणों ने सूर्योपासना की थी। तभी से यहां छठ पर सूर्योपासना का प्रचलन प्रारंभ हुआ। छठ के साथ आनर्त प्रदेश के सूर्यवंशी राजा शर्याति और भार्गव ऋषि च्यवन का भी ऐतिहासिक कथानक जुड़ा है। कहते हैं कि राजा शर्याति की पुत्री सुकन्या ने कार्तिक की षष्ठी को सूर्य की उपासना की तो च्यवन ऋषि के आंखों की ज्योति वापस आ गई। ब्रह्मवैवर्तपुराण में छठ को स्वायम्भुव मनु के पुत्र प्रियव्रत के इतिहास से जोड़ते हुए बताया गया है कि षष्ठी देवी की कृपा से प्रियव्रत का मृत शिशु जीवित हो गया।

व्रत विधान

छठपूजा में कार्तिक शुक्ल चतुर्थी के दिन नियम-स्नानादि से निवृत्त होकर पवित्रापूर्वक रसोई बनाकर भोजन किया जाता है। पंचमी को दिन भर उपवास करके सायंकाल किसी तालाब या नदी में स्नान करके भगवान भास्कर को अर्घ्य देने के बाद अलोना भोजन किया जाता है। षष्ठी के दिन प्रातः काल स्नानादि के बाद से संकल्प करें ः

ऊं अद्य अमुकगोत्रोअमुकनामाहं मम सर्व

पापनक्षयपूर्वकशरीरारोग्यार्थ श्री

सूर्यनारायणदेवप्रसन्नार्थ श्री सूर्यषष्ठीव्रत करिष्ये।

संकल्प करने के बाद दिन भर निराहार व्रत करके सायंकाल किसी नदी या तालाब पर जाकर स्नान कर भगवान भास्कर को अर्घ्य प्रदान करें।

रंग-बिरंगा उत्सव

छठपर्व अत्यंत रंग-बिरंगा उत्सव है, जिसमें श्रद्धालुओं को नए वस्त्र धारण करना आवश्यक होता है। घर व नदी के तट पर संगीत के सुर भक्ति व लोकभाषा से महक उठते हैं। पटना में लाखों लोग गंगा के तट पर मीलों लंबी कतारों में बैठे रहते हैं। पर्व से उत्पन्न यह आपसी मेल-जोल अनूठा ही प्रतीत होता है।

प्रमुख त्योहार

छठ बिहार का प्रमुख त्योहार है। छठ का त्योहार भगवान सूर्य को धरती पर धन-धान्य की प्रचुरता के लिए धन्यवाद देने के लिए मनाया जाता है। लोग अपनी विशेष इच्छाओं की पूर्ति के लिए भी इस पर्व को मनाते हैं। पर्व का आयोजन मुख्यतः गंगा के तट पर होता है और कुछ गांवों में जहां पर गंगा नहीं पहुंच पाती है, वहां पर महिलाएं छोटे तालाबों अथवा पोखरों के किनारे ही धूमधाम से इस पर्व को मनाती हैं।

कथा

षष्ठी देवी के पूजन का विधान पृथ्वी पर कब हुआ, इस संदर्भ में पुराण में यह कथा संदर्भित है- प्रथम मनु स्वायम्भुव के पुत्र प्रियव्रत के कोई संतान न थी। एक बार महाराज ने महर्षि कश्यप से दुःख व्यक्त कर पुत्र प्राप्ति का उपाय पूछा। महर्षि ने पुत्रेष्टि यज्ञ का परामर्श दिया। यज्ञ के फलस्वरूप महारानी को पुत्र जन्म हुआ, किंतु वह शिशु मृत था। पूरे नगर में शोक व्याप्त हो गया। महाराज शिशु के मृत शरीर को अपने वक्ष से लगाए प्रलाप कर रहे थे। तभी एक आश्चर्यजनक घटना घटी। सभी ने देखा आकाश से एक विमान पृथ्वी पर आ रहा है। विमान में एक ज्योर्तिमय दिव्याकृति नारी बैठी हुई थी। राजा द्वारा स्तुति करने पर देवी ने कहा-मैं ब्रह्मा की मानस पुत्री षष्ठी देवी हूं। मैं विश्व के समस्त बालकों की रक्षिका हूं और अपुत्रों को पुत्र प्रदान करती हूं। देवी ने शिशु के मृत शरीर का स्पर्श किया। वह बालक जीवित हो उठा। महाराज के प्रसन्नता की सीमा न रही। वे अनेक प्रकार से षष्ठी देवी की स्तुति करने लगे। राज्य में प्रति मास के शुक्लपक्ष की षष्ठी को षष्ठी-महोत्सव के रूप में मनाया जाए, राजा ने ऐसी घोषणा कराई। तभी से परिवार कल्याणार्थ, बालकों के जन्म, नामकरण, अन्नप्राशन आदि शुभ अवसरों पर षष्ठी-पूजन प्रचलित हुआ। कार्तिक मास शुक्लपक्ष की षष्ठी का उल्लेख स्कंद-षष्ठी के नाम से किया गया है। वर्षकृत्यविधि में प्रतिहार-षष्ठी के नाम से किया प्रसिद्ध सूर्यषष्ठी की चर्चा की गई है। इस व्रत की प्राचीनता एवं प्रामाणिकता भी परिलक्षित होती है। भगवान सूर्य के इस पावन व्रत में शक्ति व ब्रह्म दोनों की उपासना का फल एक सा प्राप्त होता है। आज छठ बिहार और उत्तर प्रदेश से ही जुड़ा आंचलिक नहीं रह गया है, बल्कि दिल्ली, मुंबई, कोलकाता और चेन्नई जैसे महानगरों में भी श्रद्धाभाव से मनाए जाने वाले पर्व का रूप धारण कर चुका है।

नवोदित सूर्य की अर्चना का महोत्सव

अस्ताचल सूर्य को श्रद्धांजलि प्रदान करने के पश्चात् अब समय होता है, सूर्योदय प्रार्थना की तैयारी का। यह पूजा विधान का अभिन्न अंग है। नदी तट की ओर यात्रा उषा से ही प्रारंभ हो जाती है। कृष्णपक्ष के चंद्रमा के कारण बाहर आकाश मार्ग वृक्ष की भांति काला प्रतीत होता है। ओस से भीगी घास व प्रवाहित होते जल की ध्वनि ही नदी तट निकट होने का संकेत देती है। इस समय सभी पूर्व की ओर मुख करते हैं और नदी में स्नान के लिए आगे बढ़ते हैं। इसी बीच टोकरियों को एक अस्थाई मंडप के नीचे सुरक्षित रखा जाता है। इस मंडप को ताजा उपजे गन्ने की टहनियों से बनाया जाता है। इसके लिए एक विशेष ढांचा बनाया जाता है तथा इसके कोनों को हाथी व पक्षी के रूप में बनाए मिट्टी के दीपकों से सजाया जाता है। जैसे ही सूर्य की किरणें उदित होती हैं, साड़ी व धोती पहने स्त्री-पुरुष उथले पानी में कूद पड़ते हैं। पैर जमाकर ये लोग जल की अतिशीतलता को भूल जाते हैं तथा ऋग्वैदिक के उस कालातीत मंत्र, जो विशेष रूप से सूर्य के लिए है -गायत्री मंत्र का उच्चारण करते हुए स्नान कर सूर्य की श्रद्धा से पूजा करना प्रारंभ करते हैं।

सांध्य पूजन का महामेला

समवेत स्वर में लोकप्रिय भक्ति संगीत गाते हुए लोगों के छोटे-छोटे समूह प्रत्येक घर से निकलते हैं और नदी तट तक पहुंचते-पहुंचते ये जुलूस एक विशाल जनसमूह का रूप ले लेते हैं। जुलूस में सम्मिलित पुरुष अपने वक्ष को नग्न रखते हैं तथा प्रसाद को बांस की छोटी-छोटी टोकरियों में लेकर चलते हैं। इन टोकरियों को जाने-अनजाने जूठा होने से बचाने के लिए ऊंचाई पर रखा जाता है। इन टोकरियों में लड्डू, ठेकुआ तथा मौसमी फल होते हैं। नारियल, केले के गुच्छे, एक-दो संतरे इत्यादि को हल्दी में रंगे कपड़े से ढंका जाता है। इन पदार्थों के अतिरिक्त एक मिट्टी का दीपक भी इन टोकरियों में रखा जाता है। जैसे ही सूर्यास्त होता है, प्रार्थना-पूजा आरंभ हो जाती है। नदी तट पर किसी का फिसलना या कोई भूल करना एक दैविक संकट का प्रतीक माना जाता है।

षष्ठी देवी

इस तिथि को सूर्य के साथ ही षष्ठी देवी की भी पूजा होती है। पुराणों के अनुसार प्रकृति देवी के एक प्रधान अंश को देवसेना कहते हैं, जो कि सबसे श्रेष्ठ मातृका मानी गई है। ये लोक के समस्त बालकों की रक्षिका देवी है। प्रकृति का छठा अंश होने के कारण इनका एक नाम षष्ठी भी है। षष्ठी देवी का पूजन-प्रसार ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार राजा प्रियव्रत के काल से आरंभ हुआ, जब षष्ठी देवी की पूजा छठ मइया के रूप में प्रचलित हुई। वास्तव में सूर्य को अर्घ्य तथा षष्ठी देवी का पूजन एक ही तिथि को पड़ने के कारण दोनों का समन्वय भारतीय जनमानस में इस प्रकार हो गया कि सूर्य पूजा और छठ पूजा में भेद करना मुश्किल है। वास्तव में ये दो अलग-अलग त्योहार हैं। सूर्य की षष्ठी को दोनों की ही पूजा होती है।

धार्मिक कर्मकांड

इस त्योहार पर न तो किसी मंदिर में पूजा हेतु जाया जाता है और न ही घर की कोई विशेष सफाई की जाती है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि यह पर्व बहुत ही आसानी से या बिना किसी कर्मकांड के मना लिया जाता है। लेकिन ऐसा नहीं है।

अर्घ्य विधान

एक बांस के सूप में केला और विभिन्न प्रकार के फल, अलोना प्रसाद, ईख आदि रखकर सूप को एक पीले वस्त्र से ढक दें और धूप-दीप जलाकर सूप में रखने के बाद दोनों हाथों में लेकर-

ऊं एहि सूर्य सहस्त्रांशों तेजोराशे जगत्पते।

अनुकम्पया मां भवत्या गृहाणार्घ्य नमोअस्तुते॥

इस मंत्र से तीन बार अस्ताचलगामी सूर्य को अर्घ्य प्रदान करें। रात्रि जागरण के बाद प्रातःकाल उदीयमान सूर्य को इसी प्रकार अर्घ्य देकर पारण करें।

स्नान एवं उपवास

सांध्य सूर्यपूजा के एक दिन पहले, श्रद्धालु शुद्धिकरण के लिए विशेषरूप से गंगा में डुबकी लगाते हैं तथा गंगा का पवित्र जल अर्पण हेतु घर साथ लाते हैं। पूरे दिन में उपवास रखा जाता है तथा श्रद्धालु देर शाम तक पूजा के बाद ही उपवास तोड़ते हैं।

प्रसाद एवं अर्पण की वस्तुएं

चावल का हलुआ, पूड़ी तथा केला, ये ही इस दिन की विशेष भोजन सामग्री हैं। अर्पण के पश्चात इन्हीं भोज्य पदार्थोंं को मित्रों एवं संबंधियों में बांटा जाता है। लोग बड़ी ही श्रद्धा से इसे खाते हैं। दूसरे दिन चौबीस घंटे का उपवास प्रारंभ होता है। दिनभर प्रसाद बनाने की तैयारी होती है तथा संध्या को भक्तगण छठ मैया का गीत गाते हुए नदी तट, जलकुंड या तालाब पर पहुंच जाते हैं। वहां पर अस्त होते हुए सूर्य को उपर्युक्त प्रसाद का अर्पण किया जाता है। रात्रि के समय श्रद्धालु घर लौटते हैं, जहां पर एक अन्य महोत्सव प्रतीक्षारत होता है। गन्ने की टहनियों से बने एक छत्र के नीचे दीपयुक्त मिट्टी के हाथी व प्रसाद से भरे बर्तन रखे जाते हैं। श्रद्धालु उपवास के समय जल भी ग्रहण नहीं करते हैं। सूर्योदय से ठीक पहले, भक्तगण नदी तट की ओर पुनः छठ मैया के गीत गाते हुए प्रस्थान करते हैं तथा उदयमान सूर्य की उपासना-अर्चना करते हैं। प्रार्थना के पश्चात् प्रत्येक व्यक्ति को प्रसाद प्रदान किया जाता है। इस प्रसाद में विशेष रूप से पत्थर की सिल पर पीसे हुए आटे का प्रयोग होता है। इस आटे को देर तक तला जाता है तथा इसमें मीठा डालकर इसकी गोलाकार गठ्ठियां बनाई जाती हैं, जिसे ठेकुआ कहते हैं। इसके अलावा इस विशेष प्रसाद में अंगूर, पूरा नारियल, केले व मसूर की दाल के दाने भी होते हैं। पूजा के समय ये सभी वस्तुएं बांस की अर्धगोलाकार टोकरियों में रखी जाती हैं। इन टोकरियों को सूप कहते हैं।

नियम एवं व्रत पालन

दीपावली का आनंद जैसे ही शांत होता दिखाई पड़ता है, छठ की छटा खिल उठती है। प्रौढ़ विवाहित स्त्रियां ही सभी तैयारियां करती हैं। एक ओर आयु में कम स्त्रियां व बच्चे घर के अन्य कार्यों को संभालते हैं, दूसरी ओर प्रौढ़ स्त्रियां उन वस्तुओं की भली-भांति सफाई-धुलाई करती हैं, जिनका प्रयोग पूजा, प्रसाद में होता है। सभी वस्तुओं की चाहे वह रसोई का चूल्हा हो, करछुल हो, पकाने में प्रयोग आने वाली पकड़ हो या भूनने का पात्र-सबकी पूरी तरह से सफाई की जाती है। नए पीसे हुए चावलों की लेई बनाई जाती है। सूखी मेवा व नारियल के टुकड़ों को स्वाद बढ़ाने के लिए प्रयोग किया जाता है। इनको आटे में मिला कर लड्डू बनाए जाते हैं।

पारंपरिक व्यंजन ठेकुआ गेहूं के मड़े हुए आटे को विभिन्न आकारों में काटकर बनाया जाता है। इसके लिए काष्ठ के सांचों का भी प्रयोग किया जाता है। तत्पश्चात इसे गाढ़े भूरे रंग का होने तक तला जाता है। तलने के बाद यह अत्यंत कुरकुरा हो जाता है तथा बड़े ही स्वाद से खाया जाता है। पश्चिम के देशों में लोकप्रिय व्यंजन कुकी की भांति ही इसमें घर का बना मक्खन, बहुत सा गुड़ तथा नारियल डाला जाता है। इस प्रसाद को बनाने के लिए गृहस्थ प्रौढ़ महिला कुछ नियमों का पालन करती है। जैसे-वह पका हुआ खाना नहीं खाती तथा सिले हुए वस्त्र नहीं पहनती। रसोई में जाने से पहले प्रत्येक व्यक्ति का स्नान करना आवश्यक होता है।


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