स्थानांतरण का चक्रव्यूह

By: Nov 26th, 2018 12:05 am

हिमाचल में व्यवस्थागत प्रणाली से प्रणय का हिसाब लगाएं, तो कोई भी सरकार कर्मचारी स्थानांतरण, भूमि अधिग्रहण, शिक्षण संस्थान युक्तिकरण और घाटे के सार्वजनिक उपक्रमों पर नीतिगत फैसलों से बचती रही है, फिर भी उम्मीद रहती है कि कभी तो सोच में परिवर्तन आएगा। इस बार शिक्षा विभाग के नजरिए से संबंधित मंत्री का समर्पण इसलिए बेहतर आंका गया, क्योंकि सुरेश भारद्वाज ने शिक्षकों की महफिल के सुर बदलने की भरपूर कोशिश की। न केवल स्थानांतरण नीति व नियमों के पिटारे को खंगालते हुए उन्होंने रुग्णता के लक्षणों से निजात दिलाने की कोशिश की, बल्कि शिक्षा के श्रम में अध्यापक की ईमानदारी का सूचकांक बनाने की जिद भी ओढ़ ली। यह दीगर है कि एक साल गुजरने के बाद अध्यापक ट्रांसफर को लेकर कोई स्पष्टता या इरादा कामयाब नहीं हो रहा है। वैसे यह असंभव इसलिए भी हो गया, क्योंकि अन्य विभागों के प्रभारी मंत्री स्थानांतरण को बर्र का छत्ता मान कर इस दिशा में हाथ नहीं बढ़ा रहे, तो अकेले सुरेश भारद्वाज कितना साहस दिखा पाएंगे। इसका सीधा अर्थ अब यही है कि हर बार की तरह वर्तमान सरकार भी स्थानांतरण जैसे मसले को केवल सियासी प्राथमिकताओं के हिसाब से तय करके इस पर कोई बड़ी जहमत नहीं उठाएगी। ऐसे में कर्मचारी राजनीति का बढ़ता प्रभाव जहां महसूस किया जाता है, वहीं इसके सामने परिवर्तन के ईमानदार व मौलिक विचार भी छिन्न-भिन्न हो रहे हैं। स्थानांतरण को उपकरण के मानिंद इस्तेमाल करना दरअसल व्यवस्था की रीढ़ को तोड़ने जैसा है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में यह साफ हो चुका है कि हिमाचल की कार्यसंस्कृति केवल सियासी संगत के आदर्शों पर चलती है, लिहाजा सबसे बड़ा काडर सत्ता की अदला-बदली में अपना ठौर व गणित चुनता है। जाहिर है इन परिस्थितियों में जब सरकारी बनाम निजी क्षेत्र के बीच तुलनात्मक विश्लेषण होता है तो अनुशासन, प्रतिबद्धता, कर्त्तव्यपरायणता और जवाबदेही के अनुपात में सार्वजनिक क्षेत्र ठिगना व लापरवाह आंका जाता है। हम क्षेत्रवाद की महफिल में स्थानांतरण का औचित्य नजरअंदाज कर सकते हैं या वोट बैंक की शाखा में कर्मचारी हितैषी होने की मुद्रा में ऐसा जोखिम नहीं उठा सकते, लेकिन इस अनिवार्यता को खारिज करके प्रदेश अपने ही सरोकारों को घायल जरूर कर रहा है। क्या कर्मचारी की कर्मठता का प्रदर्शन किसी राजनीतिक प्रश्रय से संभव है या इसके लिए मूल्यांकन के तर्क किसी ठोस नीति की मांग करते हैं। सरकारी क्षेत्र के फर्ज को मापने या भांपने की मौजूदा प्रक्रिया अगर राजनीतिक तरफदारी नहीं है, तो स्थानांतरण की पद्धति का सशक्त होना भी तो लाजिमी है। हिमाचल किस तरह कर्मचारी राज्य बन गया, इसके लिए अतीत से वर्तमान तक के सफर को खंगालना पड़ेगा। इस दौरान वाईएस परमार तथा शांता कुमार के दौर के कर्मचारी आंदोलनों की परछाई से आज तक कोई भी सरकार मुक्त नहीं हो पाई, बल्कि प्रदेश का खजाना भी इस ताकत का दीवाना बनकर निरंतर खाली होने की होड़ में जुट गया। वर्तमान सरकार के दो पहलू एक साथ देखे जा सकते हैं। एक साल में सरकार के फैसलों का सबसे अधिक लाभकारी पक्ष कर्मचारी ही रहे, इसमें दो राय नहीं और दूसरे यह भी कि स्थानांतरण जैसी उद्देश्यपूर्ण परिपाटी की खोज में सरकारी जोश थक गया। ऐसे में अपनी ही विसंगतियों की खाल पहनकर प्रदेश अगर भयभीत होता रहा, तो सुशासन की अनिवार्यता खत्म हो जाएगी या ऐसे कंधे नहीं मिलेंगे, जो सुशासन का बोझ उठा पाएं। किसी भी राज्य की श्रेष्ठता किसी वर्ग विशेष को प्रभावशाली बनाकर साबित नहीं होगी और न ही सरकारी कार्यसंस्कृति की समृद्धि के लिए हाथ पर हाथ धरे बैठकर सरकारें अंततः कामयाब होंगी। पिछले कुछ सालों का राजनीतिक व कर्मचारी इतिहास अपने-अपने गणित से अलग-अलग स्थापित हुए, तो इस विषय पर गहन चिंतन होना चाहिए। सरकारों की अदला-बदली के बावजूद अगर स्थानांतरण जैसे विषय को सियासी बम की तरह दूर से ही देखते रहेंगे, तो हिमाचल में काम के बजाय सारी जद्दोजहद इस नखरे पर रहेगी कि हर कर्मचारी मनवांछित तरीके से अपना दायित्व निभाए तथा मनपसंद जगह पर हर सूरत वर्षों तक जमा रहे।

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