हिमाचल पर एनजीटी की नजर

By: Nov 21st, 2018 12:05 am

राष्ट्रीय ग्रीन ट्रिब्यूनल की नजर अगर न पड़ती तो हिमाचली सैरगाहें कभी आगाह नहीं होतीं। वैसे तो विभाग थे और नियम भी, लेकिन हिमाचल का ढर्रा कहां-कहां सुराख कर गया और कहां जारी है, इसका अनुमान नहीं लगाया जा सकता। जो एनजीटी देख या कह रहा है, उससे आज भी हिमाचल अनभिज्ञ प्रतीत होता है। परोक्ष में राष्ट्रीय ग्रीन ट्रिब्यूनल की टिप्पणियां हिमाचली विकास की क्षमता, शहरी आचरण की जवाबदेही तथा नियमों में अनुशासन की पद्धति में खामियां ही निकाल रही हैं। अभी तो चंद शहर या पर्यटक स्थल ही अपने-अपने बीहड़ में शर्मिंदा हैं, लेकिन जब राज्य की पूर्ण जवाबदेही में एनजीटी सारी करतूतों को खंगालेगा, तो पता चलेगा कि हिमाचल ने यूं ही कई सफेद हाथी बांध रखे हैं। अगर एनजीटी आज मकलोडगंज व मनाली की हवा में गिरती गुणवत्ता का हिसाब लगा रहा, तो कल हर कस्बे से शहर बनती बस्तियों तक की पड़ताल संभव है। दरअसल यह हिमाचली शहरीकरण की बदसूरती है, जिसे हमने संबोधित करना मुनासिब नहीं समझा। लगातार पिछले तीन दशकों से शहरीकरण की रफ्तार और पर्यटन स्थलों के विस्तार को नजरअंदाज करना अब महंगा पड़ रहा है। इस दौरान हम यह भूल गए कि नगर एवं ग्राम योजना कानून नामक कोई मार्गदर्शक या पहरेदार हिमाचल ने खड़ा किया है, जो हमें शहरी विकास का नियोजन करना सिखाएगा। इन वर्षों में सबसे अधिक तौहीन भी इसी अधिनियम की हुई और यह महज कागजी दस्तावेज बना रहा। एनजीटी अगर निगाह न डालता तो रोहतांग की बर्फ पर प्रदूषण के काले धब्बे नजर नहीं आते और हम आपसी मिलीभगत से अपना धंधा चमकाते रहते। कमोबेश हर शहर में हम इसी दस्तूर में धंधा चमकाते हुए यह भूल गए कि इन गतिविधियों ने जीने की आबरू को कितना और किस कद्र नुकसान पहुंचाया है। कभी तो यह लगता है कि प्रदेश को अदालतें ही चला रही हैं या अब एनजीटी गौर फरमाते हुए हमारी औकात को अनावृत्त कर रहा है। आम आदमी के सरोकार जब नगर निकायों के दायित्व को समझ नहीं आते, तो एनजीटी की घंटी बजने की प्रतीक्षा होती है। ऐसी ही प्रतीक्षा अब हिमाचल की सड़कों पर बेतरतीब खड़े वाहनों के खिलाफ तथा जल निकासी के अवरुद्ध मुहानों पर भी हो, तो हर शहर अपनी ऊहापोह से बच जाएगा। एनजीटी अगर शहरों की मिलकीयत में पल रहे वाहनों को सड़कों पर पार्क करने से रोक दे, तो हम जान पाएंगे कि ऐसी आवारगी रोकने को भी कानूनी हस्ताक्षर चाहिएं। जाहिर है सही सोच को प्रतिष्ठित करने के लिए एनजीटी या माननीय अदालतों की सक्रियता काफी हद तक राहत प्रदान करती है। मकलोडगंज के पर्यावरण को बचाने के लिए गैर हिमाचली संस्थाएं या विदेशी एकजुट हो रहे हैं, लेकिन स्थानीय नागरिकों के सरोकार केवल राजनीतिक बिछौने की तरह हुक्मरानों के आगे पसर रहे हैं। हिमाचल प्रदेश हाई कोर्ट ने विदेशी महिला अब्दुला गजाला के पक्ष का संज्ञान लेकर मकलोडगंज में पेड़ों के अवैध कटान पर सख्त निर्देश दिए हैं। डलहौजी, मनाली और मकलोडगंज में पेड़ों की जगह उगे कंकरीट के जंगल के पीछे खड़े खलनायक को पहचानना होगा। ऐसे में भले ही एनजीटी ने कुछ मामलों में जरूरत से अधिक सख्ती ही दिखाई हो, लेकिन इस बहाने हम भविष्य के प्रति सतर्क तथा अपनी लापरवाही के प्रति सजग हुए। हिमाचल जहां तीन दशक पूर्व अपने प्राकृतिक संसाधनों, पर्यावरणीय ऊर्जा तथा हरियाली के लिए जाना जाता था, तो आज कटती पहाडि़यों पर चढ़ते कंकरीट, ट्रैफिक जाम तथा अव्यवस्थित शहरीकरण की बदसूरती में व्यावसायिक होड़ में गुम होते देखा जा सकता है। अपनी बदरूपता को बचाने के लिए हिमाचल के पास न तो इच्छाशक्ति देखी जा रही है और न ही संकल्प लिए जा रहे हैं। ऐसे में कुछ जागरूक नागरिकों की कानूनी लड़ाइयों या एनजीटी के साहसिक फैसलों के दर्पण में ही हमें भविष्य की चिंता दिखाई दे रही है। कानून के संदेश भी अगर पूरी तरह पढ़ लिए जाएं, तो हमारे हिस्से की धरती यूं ही बिखरने से बच जाएगी।

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