अनुसंधान से विकास के विकल्प तक

By: Dec 17th, 2018 12:05 am

हिमाचली विकास के बीच आर एंड डी के प्रति संवेदना व सोच के दस्तावेज तैयार नहीं हुए, तो खोखली भूमिका में भविष्य लिखा जाएगा। केंद्रीय योजनाओं में भी यह ताकीद दर्ज है कि पर्वतीय विकास का ढांचा अति मजबूत व नई चुनौतियों के अनुरूप हो, इसीलिए सड़क निर्माण को बदलती तकनीक से मापने की जरूरी शर्तें आमादा हो रही हैं। हिमाचल में विभागीय विस्तार की तो शायद कोई सीमा नहीं, लेकिन किसी भी विभाग में अलग से आर एंड डी की रूपरेखा में नवाचार सामने नहीं आ रहा। कमोबेश योजनाओं के डिजाइन, तकनीक व अधोसंरचना निर्माण में नई पद्धति सामने नहीं आ रही। बेशक इस दौरान कमोबेश हर विभाग के आला अधिकारी व संबंधित मंत्री विदेश जाकर जागरण करते रहे, लेकिन हिमाचल ने अपने स्वतंत्र अनुसंधान तथा तकनीक या डिजाइन के विकास में कोई काम नहीं किया। यह स्थिति तीन-चार दशक पूर्व नहीं थी। तब परिवहन निगम बसों की बॉडी निर्माण में नए प्रयोग करता था, तो पीडब्ल्यूडी जैसे विभाग भी अपनी इमारतों की सामग्री व डिजाइन पर काम करते दिखाई देते थे। आश्चर्य यह है कि अंग्रेजी विरासत के धरोहर भवनों से भी हमने कुछ नहीं सीखा और इस दौरान इक्का-दुक्का इमारतों को छोड़ कर सिर्फ बजट का इस्तेमाल ही हमारी कवायद हो गई। स्कूल से कालेज तक के भवनों में एक सरीखे डिजाइन या अस्पताल की इमारतों का वही पुराना ढर्रा आखिर कब सुधरेगा। शिमला के जिस टाउन हाल पर नगर निगम या अन्य विभाग की नजर लगी है, क्या उसके बराबर हिमाचल कोई नई इमारत खड़ी कर सका। एक गेयटी थियेटर बना कर अंग्रेज चले गए, तो क्या बाकी शहरों में ऐसी इमारतों की रूपरेखा बनी। केवल एक स्केटिंग रिंक से आगे हिमाचल नहीं बढ़ा, हालांकि मौसम व पर्यटन परिदृश्य में कई नए केंद्र विकसित हो सकते हैं। तेजी से विकसित हो रहे हिमाचली शहरों के भविष्य को संवारने के लिए शहरी विकास तथा ग्राम एवं शहरी नियोजन विभाग ने क्या किया। उस विदेशी अध्ययन का क्या हुआ जो पालमपुर व मनाली के नाम पर दो दशक पूर्व हुआ। पीडब्ल्यूडी के यांत्रिक विभाग ने बेशक कुछ प्रयास किए तथा सस्ते रज्जू मार्ग भी बनाए, लेकिन ऐसे प्रयास को  सरकार का प्रश्रय नहीं मिला। जिन्हें प्रश्रय मिला या जो संस्थान पूरी तरह विज्ञान को समर्थित थे, उनके हाल भी निराशाजनक हैं। नौणी विश्वविद्यालय ने जैतून की खेती पर बड़ी परियोजनाएं  बनाईं , लेकिन  जमीन पर आज तक कुछ नहीं हुआ। चिलगोजे पर अनुसंधान की करोड़ों  की लागत आज तक एक भी पौधा पैदा नहीं कर पाई, तो हिमाचल के वैज्ञानिक जुनून को क्या नाम दें। कृषि विश्वविद्यालय की परिधि में  सबसे अधिक चाय के बागीचे उजड़े और परंपरागत धान की किस्में गायब हो गई, तो अनुसंधान के तरीकों पर भरोसा न करते हुए किसान ने अब बाहरी बीजों को अपना भगवान मान लिया है। इस दौरान गलत बीजों से उजड़ती फसलों का ब्यौरा किससे लें। शिमला विश्वविद्यालय  ने कब हिमाचली अनुसंधान से आंखें मूंद लीं, इस पर कभी गौर नहीं हुआ। इस हिसाब से अपने स्टार्टअप अभियान पर दौड़ी सरकार की मंशा को यह विचार करना होगा कि जो युवा जुटे, उनके पीछे सरकारी शिक्षण संस्थानों का दायित्व रहा या निजी परिसरों ने ही इस यात्रा को मुकम्मल किया। क्या उच्च शिक्षा की प्रणाली में यह जांच होती है कि वैज्ञानिक सोच का खालीपन क्यों उभर रहा है। कमोबेश सरकारी विभागों ने भी केवल राजनीतिक रास्तों पर चलने का हुनर सीख कर अपने जज्बे को गिरवी रख दिया। प्रदेश की कितनी जलापूर्ति योजनाएं बिना फिल्टर के चल रही हैं, इसका अध्ययन कभी पढ़ने को नहीं मिलता। कोई ऐसा सर्वेक्षण नहीं मिलता जो बता सके कि बरसात में पेयजल के मार्फत कितनी रेत उपभोक्ता के पेट में भरती है। आश्चर्य तो तब होता है जब कभी पीलिया या आंत्रशोथ के मामले सामने आते हैं, तो विभागों के दावे-प्रतिदावे कैसे दोषमुक्त होने का द्वंद्व बन जाते हैं। क्या पीलिया या आंत्रशोथ के मामलों में कभी आईपीएच व चिकित्सा विभाग ने एक साथ मिल कर कोई सर्वेक्षण या अनुसंधान किया। चिकित्सा संबंधी अनुसंधान में हिमाचल का वर्तमान ढांचा किस बूते आगे बढ़ेगा, जबकि  सामान्य चिकित्सा प्रणाली ही बेकसूर नहीं। विद्युत आपूर्ति भी बिना किसी  नए आधार के अपना फर्ज निभा रही है, जबकि  शहरीकरण, औद्योगिकीकरण तथा पर्यटन उद्योग की जरूरतों के मुताबिक विभाग का कौशल पूर्ण नहीं दिखाई देता। हम कितने दोषी हैं, यह पूर्व सरकार के दौरान लो फ्लोर बसों की खरीद साबित करती है। हमारी सड़कें- हमारे परिवहन के अनुरूप तैयार नहीं और यातायात इस काबिल नहीं कि जरूरतें पूरी कर सके। ऐसे में शहरी परिवहन में निजी वाहनों का इस्तेमाल घटाने के लिए परिवहन विभाग को भी अपने अध्ययन का दायरा बड़ा करना होगा। हिमाचल का हर विभाग जब तक आर एंड डी की दिशा में नए विकल्प नहीं खोजता, प्रदेश का विकास न तो पूर्ण समाधान लिखेगा और न ही बजटीय दबाव का हल बता पाएगा।


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