आत्म पुराण

By: Dec 15th, 2018 12:05 am

वहां मालूम हुआ कि यमराज घर में नहीं हैं, कार्यवश अन्यत्र गए हैं, तब वह यम के द्वार पर ही बैठकर उपवास करने लगा। उसने विचार किया कि संभवतः यमराज मुझे स्वीकार न करें और अपने पिता के कथन को पूरा न कर सकूं। इसलिए मुझे कुछ तपस्या करनी चाहिए जिससे यमराज मेरी बात को मान लें। उधर, यमराज अपनी सर्वज्ञता के कारण नचिकेता के वृत्तांत को पहले ही जान गया था और उसकी परीक्षा लेने के उद्देश्य से ही अन्यत्र चला गया था। जाते समय वह अपने सेवकों से कह गया था कि जब वह बालक नचिकेता यहां आए, तो तुम उसको समझा-बुझाकर पुनः भूमि लोक में भेज देना। इसलिए जब नचिकेता यमराज के द्वार पर बैठ कर उपवास करने लगा तो यम के अनुचर उसे समझाने लगे, ‘हे नचिकेता! तू छोटा बालक होकर इस भयानक यमपुरी में क्यों आ गया?’ इस पर नचिकेता ने अपना सब वृत्तांत उनको सुना दिया।

तब अनुचरों ने कहा ‘हे नचिकेता! मनुष्य, पशु, जलचर, कृमिकीट आदि कोई भी प्राणी क्यों न हो, जब तक उसकी आयु पूरी नहीं हो जाती, तब तक यम उनको ग्रहण नहीं करता। फिर इस समय तो वह यहां हैं भी नहीं। इसके तुम जितना शीघ्र हो सके यहां से अपने घर वापस चले जाओ।’

पर नचिकेता इन बातों पर ध्यान देकर धैर्यपूर्वक एक आसन पर बैठा रहा। यह देख सर्वज्ञ यमराज भी तीसरे दिन अपने घर आ गया। अनुचरों ने उसको सब समाचार सुनाकर कहा, ‘महाराज! यह ब्राह्मण बालक तीन दिन से बिना अन्न-जल के आपके द्वार पर पड़ा है। ऐसे अग्नि रूप अतिथि का बिना विलंब स्वागत करके उसे संतुष्ट करना चाहिए। अन्यथा वह गृह स्वामी के सब पदार्थों को अग्नि की तरह नष्ट करता है।’

   तब यमराज नचिकेता के पास जाकर कहने लगा, ‘हे नचिकेता! तू अतिथि ब्राह्मण होकर तीन दिन-रात बिना जल के हमारे घर में रहा है। इससे हमको बहुत बड़ा दोष लगेगा। उस दोष की निवृत्ति के लिए मैं यमराज तुझे तीन वर देता हूं, तेरी जो इच्छा हो मांग लें।’ नचिकेता ने कहा कि (1) हे महाराज! प्रथम वर तो मैं यह मांगता हूं कि मेरा पिता स्वयं प्रसन्न रहे और मुझसे भी प्रसन्न रहे।

जब मैं इस लोक से पुनः अपने घर जाऊं तो वह मेरा अविश्वास नकरे। वरन् जैसे पहले अपना पुत्र जानता था, उसी प्रकार अब भी पुत्र समझकर स्नेहपूर्वक सम्भाषण करे, क्योंकि अभी तक तक कोई प्राणी यमराज के यहां जाकर पुनः लौटकर भू-लोक में नहीं जाता, पर मैं सशरीर पुनः वहां जाऊंगा। इससे अविश्वास होना स्वाभाविक है। यमराज, हे नचिकेता! मैं तुमको पिता की प्रसन्नता का वर देता हूं। जब तुम मेरी पे्ररणा से पुनः भू-लोक में जाओगे, तो तुम्हारा पिता अविश्वास न करके तुमको बड़े स्नेह और यत्नपूर्वक ग्रहण करेगा और फिर स्वस्थ चित्त होकर पहले की तरह निद्रा, आहार आदि करेगा। नचिकेता, हे महाराज! हमने विद्वान ब्राह्मणों के मुख्य से सुना है कि स्वर्ग लोक से ब्रह्मलोक तक जितने भी लोक ऊपर स्थित हैं, उनमें जरा, रोग, आधि-व्याधि,क्षुधा, तृषा, शोक, मोह आदि कोई भी विकार नहीं है। वहां जो जीव जाते हैं, वे सदा सुखी और प्रसन्न रहते हैं। पर वहां वे ही जीव जाते हैं, जो अग्नि द्वारा चयन यज्ञ करते हैं। इसलिए आपसे प्रार्थना है कि आप मुझे अग्नि-विद्या का ज्ञान प्रदान करें। यही दूसरा वर मैं मांगता हंू। यमराज-हे नचिकेता! स्वर्गादिक लोकों को प्राप्त करने तथा वहां स्थित रहने का साधन अग्नि विराट रूप है। जैसे पार्थिव अग्नि लकड़ी में रहती है, वैसे ही यह विराट अग्नि तीनों लोकों में व्याप्त रहती है, तो भी वह गुह्य है अथवा ‘साक्षी आत्मा’ रूप है।


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