कैसे बना धु्रव तारा

By: Dec 15th, 2018 12:05 am

राजा उत्तानपाद ब्रह्माजी के मानस पुत्र स्वयंभू मनु के पुत्र थे। उनकी सनीति एवं सुरुचि नामक दो पत्नियां थीं। उन्हें सुनीति से धु्रव एवं सुरुचि से उत्तम नामक पुत्र प्राप्त हुए। वे दोनों राजकुमारों से समान प्रेम करते थे। यद्यपि सुनीति धु्रव के साथ-साथ उत्तम को भी अपना पुत्र मानती थीं, तथापि रानी सुरुचि धु्रव और सुनीति से ईर्ष्या और घृणा करती थीं। वह सदा उन्हें नीचा दिखाने के अवसर ढूंढ़ती रहती थी। एक बार उत्तानपाद उत्तम को गोद में लिए प्यार कर रहे थे। तभी धु्रव भी वहां आ गया। उत्तम को पिता की गोद में बैठा देखकर वह भी उनकी गोद में जा बैठा। यह बात सुरुचि को नहीं जंची।

उसने धु्रव को पिता की गोद से नीचे खींचकर कटु वचन सुनाए। धु्रव रोते हुए माता सुनीति के पास गया और सब कुछ बता दिया। वह उसे समझाते हुए बोली,वत्स! भले ही कोई तुम्हारा अपमान करें, किंतु तुम अपने मन में दूसरों के लिए अमंगल की इच्छा कभी मत करना।

जो मनुष्य दूसरों को दुःख देता है, उसे स्वयं ही उसका फल भोगना पड़ता है। पुत्र! यदि तुम पिता की गोद में बैठना चाहते हो, तो भगवान विष्णु की आराधना कर उन्हें प्रसन्न करो। उनकी कृपा से ही तुम्हारे पितामह स्वयंभू मनु को दुर्लभ लौकिक और अलौकिक सुख भोगने के बाद मोक्ष की प्राप्ति हुई थी। इसलिए पुत्र! तुम भी उनकी आराधना में लग जाओ। केवल वे ही तुम्हारे दुःखों को दूर कर सकते हैं। सुनीति की बात सुनकर धु्रव के मन में श्रीविष्णु के प्रति भक्ति और श्रद्धा के भाव उत्पन्न हो गए। वह घर त्यागकर वन की ओर चल पड़ा।

भगवान विष्णु की कृपा से वन में उसे देवर्षि नारद दिखाई दिए। उन्होंने धु्रव को श्रीविष्णु की पूजा-आराधना की विधि बताई। धु्रव ने यमुना के जल में स्नान किया और निराहार रहकर एकाग्र मन से श्रीविष्णु की आराधना करने लगा। पांच महीने बीतने के बाद वह पैर के एक अंगूठे पर स्थिर होकर तपस्या करने लगा।

धीरे-धीरे उसका तेज बढ़ता गया। उसके तप से तीनों लोक कंपायमान हो उठे। जब उसके अंगूठे के भार से पृथ्वी दबने लगी, तब भगवान विष्णु भक्त धु्रव के समक्ष प्रकट हुए और उसकी इच्छा पूछी।

धु्रव भाव-विभोर होकर बोला, भगवन! जब मेरी माता सुरुचि ने अपमानजनक शब्द कहकर मुझे पिता की गोद से उतार दिया था, तब माता सुनीति के कहने पर मैंने मन ही मन यह निश्चय किया था कि जो परब्रह्म भगवान श्रीविष्णु इस संपूर्ण जगत के पिता हैं, जिनके लिए सभी जीव एक समान हैं, अब मैं केवल उनकी गोद में बैठूंगा। इसलिए यदि आप प्रसन्न होकर मुझे वर देना चाहते हैं, तो मुझे अपनी गोद में स्थान प्रदान करें, जिससे कि मुझे उस स्थान से कोई भी उतार न सके। मेरी केवल इतनी सी अभिलाषा है। श्रीविष्णु बोले, वत्स! तुमने केवल मेरा स्नेह प्राप्त करने के लिए इतना कठोर तप किया है।

इसलिए तुम्हारी निःस्वार्थ भक्ति से प्रसन्न होकर मैं तुम्हें ऐसा स्थान प्रदान करूंगा, जिसे आज तक कोई प्राप्त नहीं कर सका। यह ब्रह्मांड मेरा अंश और आकाश मेरी गोद है। मैं तुम्हें अपनी गोद में स्थान प्रदान करता हूं। आज से तुम धु्रव नामक तारे के रूप में स्थापित होकर ब्रह्मांड को प्रकाशमान करोगे।

इसके आगे श्रीविष्णु ने कहा, तुम्हारा पद सप्तर्षियों से भी बड़ा होगा और वे सदा तुम्हारी परिक्रमा करेंगे।

जब तक यह ब्रह्मांड रहेगा, कोई भी तुम्हें इस स्थान से नहीं हटा सकेगा। वत्स! अब तुम घर लौट जाओ। कुछ समय के बाद तुम्हारे पिता तुम्हें राज्य सौंपकर वन में चले जाएंगे।

पृथ्वी पर छत्तीस हजार वर्षों तक धर्मपूर्वक राज्य भोगकर अंत में तुम  मेरे पास आओगे। इतना कहकर भगवान विष्णु अंतर्ध्यान हो गए। इस प्रकार अपनी भक्ति से भगवान विष्णु को प्रसन्न कर बालक धु्रव संसार में अमर हो गया।


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