चित्रा मुद्गल के उपन्यास के किरदार घूम रहे हैं जेहन में

By: Dec 23rd, 2018 12:04 am

परिदृश्य में :मुरारी  शर्मा साहित्यकार

वर्ष 2018 में वैसे तो कई साहित्यिक कृतियां पढ़ने का मौका मिला लेकिन चित्रा मुद्गल के उपन्यास ‘पोस्ट बॉक्स नंबर 203 नालासोपारा’ के पात्र अभी तक मेरे जेहन में घूम रहे हैं। चित्रा मुद्गल को हाल ही में इसी उपन्यास के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला है और उन्हें पढ़ने की मुझे सदैव ललक रहती है। उनकी हर कृति का शिल्प प्रभावित करता है। वर्षों पहले उनका उपन्यास ‘आवां’ पढ़ा था और इस साल उनका यह उपन्यास ‘पोस्ट बॉक्स नंबर 203 नालासोपारा’  मैंने एक बार नहीं, बल्कि दो बार पढ़ा। शुरू में उपन्यास का यह नाम थोड़ा अटपटा सा जरूर लगा, लेकिन जब इसे पढ़ना शुरू किया तो फिर दिलचस्पी बढ़ती गई। दरअसल मुंबई की रक्तवाहिनी लोकल ट्रेन के वेस्टर्न उपनगर का करीब आखिरी स्टेशन है नालासोपारा, जहां अधिकतर उन लोगों की रिहाइश हैं जो मुंबई के दूसरे मशहूर उपनगरों में घर अफोर्ड नहीं कर पाते।

थर्ड जेंडर वर्ग की जिंदगी के मार्मिक पहलुओं को इस उपन्यास में बहुत संजीदगी के साथ छुआ गया है। इस उपन्यास में चित्रा मुद्गल ने आजाद भारत में थर्ड जेंडर यानि आम बोलचाल की भाषा में जिन्हें हम हिजड़ा भी कह देते हैं, की स्थिति पर प्रकाश डालने का बड़ी गंभीरता के साथ प्रयास किया है और यह दर्शाया है कि समाज में आज भी इस वर्ग की स्थिति बहुत बदतर है। न तो समाज उन्हें अपने किसी तीज-त्योहार में शामिल करता है और न ही उनकी पढ़ाई-लिखाई पर ध्यान दिया जाता है।

यह उपन्यास विनोद नामक एक ऐसे युवक की कहानी है जिसे हिजड़ा यानी थर्ड जेंडर होने की वजह से जबरिया घर से निकाल दिया गया था। समाज ने उससे दूरी बना ली। उसके सपने बिखर गए। वह हिजड़ों के बीच रहने को मजबूर हो गया। विनोद से वह बिन्नी बन गया। लेकिन उसने अपने जीवन मूल्यों से किसी तरह का कोई समझौता नहीं किया। यह युवक अपने परिवार खासकर अपनी मां से सवाल करता है कि लंगड़ा-लूला, बहरा व मानसिक रूप से विकलांग होने पर तो कोई मां अपने बच्चे को घर से बाहर नहीं निकाल देती, लेकिन अगर मैं लिंग से विकलांग पैदा हुआ, जिसमें मेरा कोई दोष भी नहीं है तो मुझे घर से बाहर क्यों निकाल दिया गया। इस मर्मस्पर्शी उपन्यास में वह अपनी मां का पता लगाकर उसके साथ पत्र व्यवहार करता है। मां जिसे वह ‘बा’ कहता है, को एक खत में लिखता है-‘सब ने मुझसे मुंह मोड़ लिया। पर सपनों ने मुझ से मुंह नहीं फेरा। आज भी वे मेरे पास बेरोक-टोक चले आते हैं।’ मां भी चुपके से अपने इस बच्चे को खत लिखती है, लेकिन साथ ही वह चाहती है कि इसके बारे में किसी को पता न चले क्योंकि इससे उनके परिवार की बदनामी होगी और बाकी बच्चों की शादियों में अड़चन आएगी।

उपन्यास का नाम उसी पत्र व्यवहार के पते पर रखा गया है यानि ‘पोस्ट बॉक्स नंबर 203 नालासोपारा’। बिन्नी जननांग दोषी समाज की विसंगतियों के बावजूद उनकी स्थितियों में परिवर्तन लाने की जिद से भरा है। उसे इस वर्ग का ताली पीट-पीटकर भीख मांगना नागवार गुजरता है। वह इलाके के विधायक के पास जाता है लेकिन विधायक भी इस वर्ग को अपनी तरह से इस्तेमाल करना चाहते हैं। जिस अड्डे पर बिन्नी को रखा जाता है, वहां  नृशंस सरदार के अलावा चंद्रा, सायरा व पूनम जोशी हैं जिनमें पूनम के मन में उसके प्रति नारी सुलभ आकर्षण है। विधायक के लंपट भतीजे बिल्लू और उसके बिगड़ैल दोस्तों की कामुकता पूनम जोशी के अंग और अस्मिता की काल बनकर प्रकट होती है और पूनम जोशी नाजुक हालत में अस्पताल  पहुंचाई जाती है। विनोद यानी बिन्नी एक तरफ  पूनम जोशी को लेकर चिंतित है तो दूसरी तरफ अपनी मां की अवस्था की खबर भी उसे व्यथित किए हुए है। वह जब जहाज पकड़ने के लिए सांता क्रूज एयरपोर्ट जा रहा होता है तो  राजनीति के दरिंदे इतनी क्रूरता से उसकी हत्या कर देते हैं कि उसकी शिनाख्त भी मिट जाती है।

राजनीति के दरिंदों को यह बर्दाश्त नहीं था कि बिन्नी अपने अधिकारों के सम्मान के लिए संघर्ष का रास्ता अपनाए। जब विनोद यानी बिन्नी उनके लिए चुनौती बनने लगा तो उसे रास्ते से ही हटा दिया गया। संपूर्ण उपन्यास पत्र शैली में लिखा गया ऐसा उपन्यास है जिसमें पत्र जवाबी तौर पर होते हैं। विनोद के लिखे गए पत्रों के माध्यम से ही मां का जवाब सामने आता है। अभी तक जितने भी उपन्यास लिखे गए, उनमें वर्णित पात्र अपने परंपरागत रीति-रिवाजों का विरोध नहीं करते, लेकिन नालासोपारा उपन्यास का पात्र विनोद स्वाभिमानी और आत्मनिर्भर है। समाज द्वारा थोपे गए नियमों को वह नहीं मानता और एक प्रेरणा स्रोत के रूप में समाज के सामने आता है। हालांकि  राजनीति के विद्रूप चेहरे की बदौलत जिस तरह उसकी हत्या को एक्सीडेंट करार देकर उसकी शिनाख्त मिटा दी जाती है, उससे कई सवाल भी खड़े होते हैं।

इस मुश्किल कथानक को चित्रा मुद्गल ने बड़े सधे तरीके से उठाया है और अंत तक इसका निर्वाह भी किया है। यह उपन्यास थर्ड जेंडर के दैनिक यथार्थ, संवेदना, पीड़ा व दर्द से अवगत करवाता पत्र शैली के माध्यम से नए कथ्य और शिल्प में रचित एक गंभीरतापूर्ण  रचना है। लेखिका ने इस वर्ग के संघर्ष की गाथा को ऐतिहासिक संदर्भ में देखने के बजाय उसे समकालीन आर्थिक, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक पृष्ठभूमि में चित्रित किया है। उपन्यास मानवीय संवेदना और सामाजिक मूल्यों से ओत-प्रोत दिखाई देता है और इसके पात्र देर तक जेहन में गूंजते रहते हैं।


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