जयराम की जद में

By: Dec 6th, 2018 12:05 am

बात मजाक में कही भी पड़ताल करती है, इस लिहाज से घुमारवीं में जो मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने कहा उसकी जद में कई नेता आएंगे। अंदाज ए जिक्र में नेताओं की उम्र, टोपियों का रंग और क्षेत्रवाद की सियासत से अलग मुख्यमंत्री अगर अपनी राह का वृत्तांत दे रहे हैं, तो विकास की नई परिभाषा में उनका योगदान अलग दर्ज हो सकता है। इसमें दो राय नहीं कि परिपक्वता के सवाल पर उनकी सरकार अपनी कसौटियां तय कर रही है और यह भी राहत भरा सत्य है कि विद्वेष की राजनीति कुछ अरसे से विश्राम कर रही है। फिर भी जब चार्जशीट की खनक में कांगे्रसी कबीला अपना चूल्हा जलाता है, तो जवाबी कार्रवाई में उठा धुआं भी दिखाई देने लगता है। ऐसे में यह तो समझना होगा कि सियासत का पिछला दौर किस तरह के प्रतिशोध से लबालब रहा और इसका खामियाजा क्या रहा। यह दीगर है कि आज तक के चार्जशीटियां माहौल में जिस सियासत का आगाज होता रहा, अंजाम को जूएं ही चाटती रहीं। नतीजतन आपसी वैमनस्य की राजनीति ने प्रदेश के हित और नेताओं की भाषा पर जहर रख दिया। ऐसे में मुख्यमंत्री अगर चार्जशीट बनाम चार्जशीट करने के बजाय सहमति और सहयोग की सियासत की दरख्वास्त करते हैं, तो इसका यह अर्थ नहीं कि प्रदेश बहस करना भूल जाएगा या विपक्ष के पास मुद्दे नहीं होंगे। इसके लिए विधानसभा के हर सत्र की सार्थकता बनी रहेगी, बशर्ते विपक्षी आक्रोश सदन के भीतर अपनी भूमिका में अनुशासित रहे। विडंबना यह हो चली है कि पक्ष और प्रतिपक्ष सदन की गरिमा को बहिष्कार के रास्ते सड़क-चौराहों पर लाकर धूल-धूसरित करते हैं। यह चर्चा का विषय हो सकता है कि पिछले कुछ सालों में कितनी बार और किन विषयों पर विधानसभा की कार्यवाही में बहिर्गमन एक प्रथा के सिवाय कुछ भी अर्जित नहीं कर सके। राजनीतिक परिपक्वता केवल गंभीर बहस से प्रदर्शित होगी और सरकार का पक्ष भी जवाबदेही से ही मजबूत होगा। प्रदेश में नशे के अलावा भी कुछ अन्य विषय हैं, जो सियासी सहमति से बेहतर हल तलाश सकते हैं। इसमें दो राय नहीं कि वर्तमान सरकार ने क्षेत्रवाद के पूर्ववर्ती नारों, मसलन नए जिलों पर होती रही सियासत पर विराम लगाया, लेकिन मंत्रियों के प्रदर्शन व प्राथमिकताओं में अभी ऐसा नूर चढ़ा नहीं। बेशक जनमंच के जरिए पूरे प्रदेश में मंत्रियों को भेजने की प्रथा से, मंत्रिमंडलीय निगाह से क्षेत्रवाद का परिदृश्य खत्म होगा। दुर्भाग्यवश कभी टोपियों पर चढ़े रंग ने राजनीति को भौगोलिक परिक्रमा करते देखा और शिमला से कांगड़ा तक इसका असर भी रहा। हिमाचल को अगर क्षेत्रवाद से कहीं अलग इसकी संपूर्णता में देखना है, तो जयराम सरकार को लोक गायकी, लोक रंगमंच के साथ-साथ हिमाचली भाषा का संगम स्थापित करना होगा। हिमाचली बोलियों का भाषा तक पहुंचाने का जो दौर स्व. लाल चंद प्रार्थी व स्व. नारायण चंद पराशर के समय शुरू हुआ, वह कहीं थम गया है। हालांकि लोक गायकों ने प्रदेश के सांस्कृतिक स्वरूप को एकत्रित करते हुए साझी विरासत पर खड़ा किया है। हिमाचली भाषा को भी पहाड़ी बोलियों की साझी विरासत पर इकट्ठा होना पड़ेगा। राजनीतिक आशीर्वाद और प्रश्रय के बीच जयराम ठाकुर अगर अंतर पैदा कर रहे हैं, तो इसका अर्थ परिवारवाद से अलग होना भी है। राजनीतिक प्रश्रय में पैदा हुए परिवारवाद के बजाय जनता की पसंद के चेहरे खोजना ही भविष्य की सियासत का मकसद होना चाहिए। इसलिए भाजपा व कांगे्रस के बुजुर्ग नेताओं, सियासी अभिभावकों या राजनीतिक आकाओं को बदलते दौर के इशारों को समझ लेना चाहिए। आगामी लोकसभा चुनाव इस हिसाब से शायद पीढि़यां बदल दे। कम से कम मंडी और कांगड़ा के बुजुर्ग नेताओं की हस्ती में भाजपा-कांगे्रस जो भी फैसला करेगी, उसके आलोक में मुख्यमंत्री की कार्ययोजना समझ में आएगी। मंडी से सुखराम व वीरभद्र सिंह की टिप्पणियों का घर्षण अगर न समझा जाए, तो सियासी भूल होगी। यहां बात जो भी हो, सियासी खानदान बोल रहे हैं। दूसरी ओर कांगड़ा में भाजपा के पक्ष में शांता का जो कद रहा है, उसकी कड़ी परीक्षा इस बार नए चेहरों का गणित देगा। भाजपा के ही पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल को पार्टी कितना बुजुर्ग घोषित करती है, इसका भी फैसला होने जा रहा है। कुल मिलाकर मुख्यमंत्री के एक बयान ने यह तो बता दिया कि अपनी सत्ता के एक साल बाद वह राजनीतिक बचपन में नहीं हैं और उनके पास राजनीतिक कसूरवारों को दरकिनार करने की ताकत भी है।

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