जाति-धर्म के चुनाव

By: Dec 4th, 2018 12:04 am

पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव संपन्न होने को हैं। इन्हें 2019 के आम चुनाव का सेमीफाइनल माना जा रहा है, लेकिन देश के सामने भविष्य और विकास की कोई स्पष्ट रूपरेखा नहीं है। पराकाष्ठा यहां तक पहुंच गई है कि एक नेता ने बजरंगबली को ‘दलित’, ‘वंचित’ तक घोषित कर उन्हें जातियों के घेरे में बांध दिया है। एक नेता ने हनुमान जी को ‘आर्य’ माना है, तो किसी नेता ने ‘आदिवासी’ करार दिया है। ऐसा नहीं है कि दलित जातीय भी ‘भगवान’ नहीं हो सकते। हमारी धार्मिक संस्कृति में तो वामन अवतार, मत्स्य और कच्छप अवतार, नरसिंह अवतार भी हुए हैं। यानी जानवर स्वरूप भी दैवीय अवतार हो सकते हैं। ऐसे भी विमर्श शुरू हो गए हैं कि त्रेता युग में समाज जातियों में बंटा था या नहीं! कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री मोदी के ‘हिंदुत्व’ पर सवाल किए हैं, तो पलटवार में सुषमा स्वराज ने कहा है कि क्या अब हमें राहुल गांधी से धर्म सीखना पड़ेगा? चुनावों के दौरान बंद कमरों में मुसलमानों से विमर्श किए गए और 90 फीसदी मतदान के आग्रह किए गए। यही नहीं, खुले-सार्वजनिक मंच से दावा किया गया कि सिर्फ ब्राह्मणों को ही ‘हिंदू’ होने का अधिकार है। हास्यास्पद् यह है कि नेताओं ने आपस में जाति के साथ-साथ गोत्र भी पूछे। दरअसल चुनावों पर जाति और धर्म ऐसे छाए रहे मानो जनादेश इसी आधार पर तय होने हैं! बेशक चुनाव घोषणा-पत्र छापे गए और वादे-आश्वासन भी बांटे गए, लेकिन इन कागजी पुलिंदों पर जनादेश कहां तय होते हैं? सवाल है कि इन जातीय टकरावों और धार्मिक विमर्शों की जरूरत ही क्या थी? चुनावों पर हिंदुत्व का रंग किसने बिखेरा? क्या चुनावों में गीता या हिंदुत्व के सार की व्याख्याएं की जाती हैं? क्या अब विकास का मुद्दा हिंदुत्व और जातियों की आड़ में छिप गया है? क्या सभी प्रमुख राजनीतिक दल सांप्रदायिक हैं? क्या नेता लोकतांत्रिक मर्यादाएं भूल रहे हैं? क्या वोट के लिए जाति-धर्म का इस्तेमाल जायज है? अफसोस है कि राजनीतिक संवाद और भाषा की मर्यादाएं भी टूट रही हैं! क्या गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी, कुपोषण, किसानी, भ्रष्टाचार, बलात्कार और देश के बुनियादी ढांचे की रूपरेखाओं पर सरकारें काम नहीं करेंगी? देव-पुरुष, रामभक्त, योद्धा, बलशाली, पराक्रम, तपस्या, संयम के प्रतीक हनुमान जातीय आधार पर क्या हैं, इससे आम जनता का कोई सरोकार जुड़ा है क्या? हां, जातीय ध्रुवीकरण शुरू होने की खबरें जरूर सामने आ रही हैं। कथित दलित और वंचित समुदाय बजरंगबली के मंदिरों और स्मारकों पर कब्जा करने को सक्रिय हो रहे हैं, ताकि वहां के चंदे, दान और संपत्तियों पर काबिज हो सके। क्या चुनाव का मतलब यही है? क्या लोकतंत्र जातीय कब्जों का दूसरा नाम है? सीपीएम महासचिव सीताराम येचुरी ने इस स्थिति पर सवाल करते हुए कहा है कि सांप्रदायिक राजनीति तो कांग्रेस का पुराना इतिहास रहा है। सांप्रदायिक सियासत प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सामाजिक सौहार्द्र के लिए खतरा है। अब कांग्रेस की राजनीति ऐसी लग रही है कि सॉफ्ट हिंदुत्व के लिए उसने लोकतांत्रिक सिद्धांत त्याग दिए हैं। वह नकलची होती जा रही है। भाजपा तो पहले से ही विपक्षियों के लिए ‘सांप्रदायिक’ है। नतीजा यह हो सकता है कि 2019 के आम चुनाव के मद्देनजर विपक्ष का महागठबंधन बन ही न सके। लोकसभा चुनाव में मात्र 5 महीने शेष हैं, लेकिन जाति और धर्म के राजनीतिक पैरोकार बनने की प्रतियोगिता जारी है। जाति, धर्म, भाषा, लिंग, क्षेत्रवाद और नस्ल आदि पर चुनाव प्रचार करना ही ‘असंवैधानिक’ है, तो हनुमान जी की जाति पर चुनाव आयोग ने संज्ञान क्यों नहीं लिया? यदि सियासत की सोच यही रही, तो देश के सभी राज्य और क्षेत्र अपने-अपने देवी-देवताओं की जातियां तय करने लगेंगे और राजनीति भी उन्हीं के अनुरूप ढलनी शुरू हो जाएगी। उससे देश और जनता को हासिल क्या होगा? यदि आम आदमी और नागरिक के हासिल ‘शून्य’ हैं, तो चुनाव ही क्यों कराए जाएं? चुनाव नहीं होंगे, तो लोकतंत्र की व्यवस्था का क्या होगा? क्या हम भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था की यूं ही बलि दे सकते हैं?


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