दशगुरु परंपरा ने किया मुगलों का सामना

By: Dec 1st, 2018 12:08 am

डा. कुलदीप चंद अग्निहोत्री

लेखक, वरिष्ठ स्तंभकार हैं

1200 से लेकर 1800 तक छह सौ साल में इन विदेशी शासकों ने केवल भारत को पददलित ही नहीं किया, बल्कि पूरे पश्चिमोत्तर भारत को साम-दाम-दंड-भेद से इस्लाम मत में दीक्षित करने का मजहबी काम भी निपटाया। उसके परिणामस्वरूप सप्त सिंधु क्षेत्र के अधिकांश हिस्से मसलन बलूचिस्तान, उत्तर पश्चिम सीमांत प्रांत, सिंध, गिलगित, बल्तीस्तान, कश्मीर, पश्चिमी पंजाब  इस्लाम मत में चले गए। सबसे पहले यही क्षेत्र विदेशी आक्रमणों का शिकार होता था…

दशगुरु परंपरा के प्रथम गुरु श्री नानक देव जी के जन्म 1469-1539 को पांच सौ पचास साल हो गए हैं। कार्तिक मास की पूर्णिमा को उनका जन्म हुआ था। उनके जन्म से लगभग 860 वर्ष पूर्व अरब क्षेत्र में इस्लाम का उदय हो चुका था। हजरत मोहम्मद (570-632) से इस्लाम पंथ का प्रारंभ हुआ था। हजरत मोहम्मद के जीवनकाल में ही अधिकांश अरब इस्लाम पंथ में दीक्षित हो चुके थे। उनकी मृत्यु के तुरंत बाद ही अरबों के हमले सिंध के रास्ते भारत पर शुरू हो गए थे। हजरत मोहम्मद के बाद लगभग चार सौ साल बाद पूरा मध्य एशिया इस्लाम की जद में आ गया। तुर्क, मंगोल, पश्तून इस्लाम में दीक्षित कर लिए गए। ऐसा नहीं कि इन बहादुर जातियों ने इसका विरोध नहीं किया, लेकिन अंत में ये पराजित हो गईं। अब इस्लाम के ये नए पैरोकार भी हिंदुस्तान पर हमले करने लगे। हिंदुस्तान का पश्चिमोत्तर भाग यानी सप्त सिंधु क्षेत्र तो 700 से 1000 के बीच ही इनके कब्जे में आ गया था। दिल्ली में इस्लामी विदेशी हमलावरों का कब्जा 1200 में ही हो सका। कुछ इतिहासकार इस काल को दिल्ली सल्तनत काल के नाम से चिन्हित करते हैं। यह काल खंड 1206 से लेकर 1526 तक माना जाता है। दिल्ली को केंद्र बनाकर इन विदेशी सुलतानों ने अधिकांश उत्तरी और पश्चिमी भारत पर अपना आधिपत्य जमा लिया था, लेकिन भारत में इस्लामी विदेशी सुलतानों के उत्कर्ष काल में भी दक्षिण भारत के अधिकांश हिस्सों पर स्थानीय शासकों का ही राज्य था।

दक्षिण भारत के अधिकांश हिस्सों में पांड्या, चोल और चेर साम्राज्यों का शासन रहा। चौदहवीं शताब्दी में दिल्ली सल्तनत का प्रसार दक्षिण में भी होने लगा था। श्री नानक देव जी के जन्म के समय दिल्ली के तख्त पर अफगानों के लोधी वंश का राज था, लेकिन व्यावहारिक रूप से दिल्ली सल्तनत अपनी समाप्ति की ओर अग्रसर थी।  दिल्ली में 1206 में विदेशी सल्तनत की स्थापना से लेकर 1526 में मुगल वंश की स्थापना तक और 1857 में आधिकारिक तौर पर मुगल वंश की समाप्ति तक, इन विदेशी शासकों ने करोड़ों भारतीयों को बलपूर्वक इस्लाम में मतांतरित कर लिया था। सिंध में तो मतांतरण का यह अभियान 711 में मोहम्मद बिन कासिम के बाद से ही शुरू हो गया था। ये मतांतरित लोग इन विदेशी मुसलमानों के मुकाबले भारतीय मुसलमान कहलाए। इन भारतीय मुसलमानों पर कुछ सीमा तक शासन करने वाले विदेशी मुसलमानों की तहजीब का भी असर पड़ा। उदाहरण के लिए उन्होंने अपने नाम अरब, ईरान, अफगान और तुर्की कबीलों के महापुरुषों के नाम पर रखने शुरू कर दिए। अपनी पूजा पद्धति में नमाज को भी शामिल कर लिया। ऐसे अन्य बहुत से उदाहरण गिनाए जा सकते हैं, लेकिन इससे भारतीय समाज की आंतरिक संरचना में बहुत ज्यादा अंतर नहीं पड़ा, क्योंकि भारत में पूजा-उपासना की पहले ही हजारों पद्धतियां प्रचलित थीं। उसमें एक और पद्धति जुड़ जाने से कोई फर्क नहीं पड़ने वाला था। जहां तक मूर्ति पूजा का प्रश्न है, वहां किसी प्रकार की एकरूपता नहीं थी। ईश्वर के साकार और निराकार दोनों रूपों को ही भारतीय परंपरा में मान्यता प्राप्त थी। इस्लाम के एकेश्वरवाद की अवधारणा भारत के लिए नई नहीं थी, बल्कि यह तो भारत की ही मौलिक अवधारणा थी।

इसलिए इस्लाम के प्रभाव में आकर भी मतांतरित भारतीयों के सामाजिक रहन-सहन और रीति-रिवाजों में ज्यादा अंतर नहीं आया था, लेकिन धीरे-धीरे इन भारतीय मुसलमानों ने अपने आप को मानसिक धरातल पर विदेशी शासक मुसलमानों के साथ जोड़ना शुरू कर दिया। इसका मुख्य कारण विदेशी शासकों के साथ मजहबी साम्यता को ही माना जा सकता है। मानसिक रूप से विदेशी इस्लामी शासकों के साथ जुड़ने से बुनियादी परिवर्तन दिखाई देने लगा। मतांतरित भारतीय हिंदुस्तान की जमीन से टूटने लगे। उनका मानसिक संसार बदलने लगा। उनमें विसंस्कृतिकरण की प्रक्रिया शुरू हुई। इसमें अरब मूल के मुल्ला-मौलवियों और सैयदों ने बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई, क्योंकि इस्लाम का उद्गम अरब देश था। इसलिए मुस्लिम जगत में वहां के मौलवियों और काजियों का दबदबा था। जिस देश में मुस्लिम शासन स्थापित होता था, उसे खलीफा से मान्यता लेनी होती थी। इसलिए प्रकारांतर से वह प्रतीकात्मक रूप से खलीफा के वैश्विक इस्लामी राज्य का हिस्सा माना जाता था। मजहबी मामलों में तो यह व्यावहारिक रूप से भी लागू होता था। अरबों और सद्य मतांतरित तुर्कों ने अनेक देशों पर विजय प्राप्त करके उनको पूरी तरह इस्लामी देश बना लिया था और वहां की मूल संस्कृति को नष्ट कर दिया था। ईरान इसका उदाहरण था। मध्य एशिया इसका दूसरा शिकार हुआ था। वहां बौद्ध संस्कृति को समाप्त कर उसकी पहचान ही बदल दी थी। अब मध्य एशिया के वही मतांतरित समुदाय दूसरे देशों में वही प्रयोग दोहरा रहे थे। जाहिर है उनमें मजहबी जुनून अरबों से भी ज्यादा रहा होगा, क्योंकि उनको अरबों के सामने अपने आपको सच्चे मुसलमान सिद्ध करना था। इस पृष्ठभूमि में मध्य एशिया के बाबर का हिंदुस्तान पर हमला होता है।

1200 से लेकर 1800 तक छह सौ साल में इन विदेशी शासकों ने केवल भारत को पददलित ही नहीं किया, बल्कि पूरे पश्चिमोत्तर भारत को साम-दाम-दंड-भेद से इस्लाम मत में दीक्षित करने का मजहबी काम भी निपटाया। उसके परिणामस्वरूप सप्त सिंधु क्षेत्र के अधिकांश हिस्से मसलन बलूचिस्तान, उत्तर पश्चिम सीमांत प्रांत, सिंध, गिलगित, बल्तीस्तान, कश्मीर, पश्चिमी पंजाब  इस्लाम मत में चले गए। सबसे पहले यही क्षेत्र विदेशी आक्रमणों का शिकार होता था। इसलिए इस्लाम का सबसे ज्यादा प्रभाव भी इसी क्षेत्र पर पड़ा, लेकिन संयोग से भारत में बाबर का आक्रमण और दश गुरु परंपरा के उन्नायक श्री नानक देव का उदय एक साथ ही होता है। मुगलों के अत्याचारों और मतांतरण अभियानों का उत्तर दश गुरु परंपरा थी और उसका व्यावहारिक स्वरूप खालसा पंथ था। शायद इसलिए उर्दू-फारसी के प्रसिद्ध कवि पंडित डा. मोहम्मद इकबाल ने अपनी एक कविता में गुरु नानक देव के बारे में कहा था-फिर उठी आखिर सदा तौहीद की पंजाब से हिंद को इक मर्देकामिल ने जगाया ख्वाब से और जिसको मोहम्मद इकबाल ने मरदेकामिल कहा है, उसकी परंपरा ने सचमुच सप्त सिंधु क्षेत्र को विदेशियों से मुक्त कर दिया।

ई-मेल : kuldeepagnihotri@gmail.com

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