मंदिर अब प्रतीक्षा से बाहर

By: Dec 11th, 2018 12:05 am

अयोध्या में राम मंदिर को लेकर हम भीख नहीं मांग रहे हैं। अब हम और प्रतीक्षा नहीं कर सकते। न्यायालय की प्रतिष्ठा होनी चाहिए, लेकिन सरकार और अदालत भी करोड़ों लोगों की आस्था और भावनाओं को समझें। अब सरकार अध्यादेश लाए या कानून बनाए। अब यही विकल्प समझ में आता है। राम मंदिर निर्माण की सभी बाधाएं दूर कर उसे जल्द बनाया जाए।’ ऐसे कथन संघ के सरकार्यवाह भैयाजी जोशी ने भी कहे और 35 धार्मिक संगठनों के साधु-संतों ने भी आग्रह किए। दिल्ली के रामलीला मैदान और आसपास जैसा जनसैलाब 9 दिसंबर की धर्मसभा के मौके पर उमड़ा था, वैसा स्वतंत्र भारत के इतिहास में पहले कभी नहीं देखा गया। रामलीला मैदान में 60-65 हजार की भीड़ जुट सकती है। आसपास खड़े लोगों को मिलाकर अधिकतम 70 हजार का सैलाब मैदान की परिधि में समा सकता है, लेकिन रविवार को राजघाट, दिल्ली गेट, कनॉट प्लेस, इंडिया गेट आदि प्रमुख स्थानों पर 5-6 लाख की भीड़ आ-जा रही थी। यह आंकड़ा किसी राजनीतिक दल का नहीं है, बल्कि दिल्ली पुलिस का अनुमान है। इन सभी स्थानों पर बड़े-बड़े टीवी लगाए गए थे। यदि राम मंदिर पर इतना जनसैलाब उमड़ सकता है, तो यह किसी की सांप्रदायिक सोच या एजेंडा नहीं है, बल्कि वह एक राष्ट्रीय राजनीतिक मुद्दा भी बनकर उभरा है। संघ, विहिप और धर्मसभा वाले साधु-संतों ने अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के मुद्दे पर मोदी सरकार को ललकारा है, चुनौती दी है या प्रधानमंत्री मोदी को जागृत किया है! आश्चर्य है कि प्रधानमंत्री समेत सभी पक्ष एक ही परिवार का हिस्सा हैं। सभी ने राम मंदिर आंदोलन साथ-साथ चलाया है। जब 1989 के चुनावों में भाजपा ने सबसे पहले राम मंदिर को एक चुनावी मुद्दा बनाया था, तब भी सभी उस संकल्प के भागीदार थे। तो आज ऐसे क्या कारण हैं कि देश में प्रधानमंत्री ही नहीं, राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति भी संघ परिवार के सदस्य रहे हैं, लेकिन राम मंदिर के लिए रामभक्तों, साधु-संतों और संघ-विहिप को सड़कों पर उतरना पड़ रहा है? क्या प्रधानमंत्री और अन्य साथियों के बीच संवाद समाप्त हो चुका है? क्या प्रधानमंत्री मोदी अब उनकी बात नहीं सुनते? क्या प्रधानमंत्री संविधान की मर्यादाओं में बंधे हैं, लिहाजा अध्यादेश या कानून बनाना अदालत की अवमानना मान रहे हैं? क्या प्रधानमंत्री और भाजपा को लगता है कि अब राम मंदिर चुनावी दृष्टि से उतना कारगर मुद्दा नहीं रहा? सवाल और भी हो सकते हैं, लेकिन जनसैलाब की तो चिंता की जाए! आखिर दिल्ली में उमड़ी भीड़ और संतों की धर्मसभा के वक्ता सभी देश के नागरिक भी हैं और लोकतंत्र उन्हीं से बनता है। क्या प्रधानमंत्री मोदी लोकतंत्र को भी नजरअंदाज कर सकते हैं? यदि प्रधानमंत्री राम मंदिर बनाकर इस मुद्दे को समाप्त नहीं करना चाहते या नहीं कर सकते, तो कमोबेश एक प्रतिनिधिमंडल से मुलाकात कर उनकी ग्रंथियां खोल तो सकते हैं। यदि आने वाले दिनों में जनसैलाब ही ‘जनाक्रोश’ में तबदील होता है, तो देश में अराजकता भी फैल सकती है। उसका जिम्मेदार कौन होगा? दरअसल भीड़ ने साबित कर दिया है कि अयोध्या में राम मंदिर बनाना भी एक राष्ट्रीय मुद्दा है। बेशक मोदी सरकार अयोध्या की विवादित जमीन का अधिग्रहण करे और उसे राम मंदिर निर्माण ट्रस्ट को सौंप दे, लेकिन उस सरकारी निर्णय को भी अदालत में चुनौती दी जा सकती है। वैसे 11 दिसंबर से संसद का शीतकालीन सत्र भी शुरू हो रहा है। ऐसी स्थिति में अध्यादेश लाना ‘असंवैधानिक’ होगा। यह परंपरा भी रही है कि जो मामला अदालत के विचाराधीन हो, उस पर सरकार अध्यादेश या कानून बनाने से परहेज करती है, लेकिन साधु-संत यह सवाल भी कर रहे हैं कि राम मंदिर महत्त्वपूर्ण है या सरकार प्राथमिकता पर है? लिहाजा कुछ संतों और विहिप नेताओं ने यहां तक दावा किया है कि सरकार कुछ करे या न करे, लेकिन जनवरी में मंदिर का पत्थर रख दिया जाएगा। ऐसी स्थिति टकराव वाली होगी। सरकार के मंत्री और प्रवक्ता मजबूत आवाज में यह तो मान रहे हैं कि राम मंदिर यथाशीघ्र बनना चाहिए, लेकिन कोई ठोस आश्वासन या कार्यक्रम नहीं दे रहे हैं। सवाल यह भी है कि मई, 2019 में लोकसभा चुनाव होने हैं। यदि मोदी सरकार जनवरी में सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई के बाद कोई निर्णय नहीं ले पाई, तो संघ-विहिप-धर्मसभा का फैसला क्या होगा? बेशक वे फिलहाल धमकी भरे अंदाज में नहीं बोल रहे हैं, लेकिन उनकी मुद्राएं नकारात्मक लग रही हैं। उन्हें गारंटीशुदा नहीं लिया जा सकता।

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