मेडिकल डिग्री का अनुबंध

By: Dec 8th, 2018 12:05 am

आश्चर्य यह कि डाक्टरी पेशे को मर्यादित करने के प्रयास हिमाचल में सरकारी तौर पर शुरू हो रहे हैं, जबकि ऐसे व्यवसाय की तासीर मानव इतिहास के साथ ही लिखी जा चुकी है। स्वास्थ्य मंत्री विपिन परमार को बाकायदा ऐलान करना पड़ रहा है कि मेडिकल स्नातकोत्तर उपाधि धारक अब पांच साल के लिए जबरन प्रदेश में रोके जाएंगे। इसके लिए उनकी डिग्री अनुबंध करेगी और सरकार इन्हें पांच साल तक अपने कब्जे में रखेगी। किसी भी प्रदेश के लिए ऐसी स्थिति तक पहुंचना कई तरह की खामियों का संयोग है या नीतियों में विश्वास नहीं, जो पढ़ा-लिखा हिमाचल बाहर कूच कर जाता है। इससे हटकर एक दूसरा परिदृश्य भी है, जहां सरकारी अस्पताल का डाक्टर अब बीमार को स्वास्थ्य का पैगंबर नजर नहीं आता, बल्कि चिकित्सकीय सेवाओं के अभिप्राय में मरीज का ही इस्तेमाल होने लगा है। जाहिर है जहां मेडिकल कालेज खुल गए, वहां मरीज को मंजिल नहीं, खुद को निजी अस्पतालों में आजमाने का विकल्प मिल गया। टांडा मेडिकल कालेज की स्थापना ने कांगड़ा शहर में निजी अस्पतालों को कहीं अधिक चमकाया है, तो इसकी प्रशंसा करें या यह भी खंगालें कि सरकारी तंत्र में इतने जख्म पैदा हो क्यों रहे। प्राथमिक चिकित्सा में देखभाल सबसे कमजोर स्थिति में है, जबकि डाक्टर और मरीज के बीच देवतुल्य रिश्ता समाप्तप्राय है। यहां औचित्य व अनुचित के बीच यह तय करना है कि इतने विस्तार के बावजूद स्वास्थ्य सेवाएं सरकारी क्षेत्र को गुणवत्ता के आधार पर पुण्य क्यों नहीं कमाने दे रहीं। क्यों सरकारी मेडिकल कालेजों में दक्षता हासिल करके डाक्टर फुर्र हो रहे हैं। इसका हल डाक्टर को बांधना तो कतई नहीं होगा, बल्कि यह समझना होगा कि सरकारी सेवा क्षेत्र में ऐसा क्या दोष है, जो इतनी तेजी से संस्कार या पाला बदलता जा रहा है। जाहिर है कुछ निजी अस्पताल अपनी दुकानदारी में मेडिकल व्यवसाय के सौदागर बन गए हैं और इसीलिए प्रशिक्षित तथा प्रमाणिक डाक्टरों का जत्था पैसे की खोज में बिक जाता है, लेकिन इसके विपरीत योग्य व दक्ष डाक्टरों की सरकारी क्षेत्र में कमी नहीं, बल्कि उन पर तरह-तरह का दबाव जरूर बढ़ गया। जरूरत चिकित्सा सेवाओं के ढर्रे को बदलने की रही है। पिछले बीस सालों के चक्र में हिमाचल ने स्वास्थ्य सेवाओं को सुधारने के बजाय मेडिकल कालेजों को ढोने के लिए ही ऐसी खिचड़ी पका दी कि व्यवस्था अब संभले नहीं संभल रही। अगर चंबा मेडिकल कालेज को किसी भी प्रलोभन व पदोन्नति से भी फैकल्टी नहीं मिल रही, तो राजनीतिक आधार पर संस्थान खोलने से परहेज करना होगा। विडंबना भी यही है कि मेडिकल-इंजीनियरिंग कालेजों व विश्वविद्यालयों की स्थापना के तर्क हमेशा राजनीतिक होकर औचित्य और अनुचित में फर्क नहीं कर पाते। हिमाचल में आबादी या गुणवत्ता के आधार पर जिस तरह के शिक्षण व चिकित्सा संस्थान उपलब्ध होने चाहिएं, वे अभी भी उपलब्ध नहीं हैं। ऐसे में सरकार को कुछ कालेजों को चिन्हित करके राज्य स्तरीय बनाना होगा, वहीं हर जिला अस्पताल को रोग विशेष का राज्य स्तरीय ढांचा व दर्जा देना होगा, ताकि स्थायी तौर पर डाक्टर अपनी काबिलीयत का प्रदर्शन कर सकें। सरकार को जरूरत से अधिक तादाद में खुले मेडिकल कालेजों को औचित्यपूर्ण बनाना है, तो तुरंत प्रभाव से आईजीएमसी तथा टीएमसी को केवल स्नातकोत्तर शिक्षा तथा अनुसंधान से जोड़ देना चाहिए और बाकी मेडिकल कालेजों में केवल एमबीबीएस स्तर की पढ़ाई होनी चाहिए। इतना ही नहीं, मेडिकल यूनिवर्सिटी को प्रदेश के तीनों जोनल अस्पतालों को अपना परिसर मानते हुए डीएनबी (डिप्लोमा नेशनल बोर्ड) जैसे पाठ्यक्रम शुरू करने चाहिएं। जिस पैरा चिकित्सा विज्ञान केंद्र को खोलने की दरख्वास्त हो रही है, उसका परिसर भी किसी मौजूदा अस्पताल से जोड़ना चाहिए। बेशक चिकित्सा क्षेत्र के विस्तार में नए  संस्थान परिभाषित हो रहे हैं, लेकिन जिस गुणवत्ता की तलाश मरीज को है, वह न ऊंची इमारतें देंगी और न ही मेडिकल शिक्षा की वर्तमान उड़ान पूरा करेगी, बल्कि पूरे व्यवसाय की परिपाटी में सुधार लाने का प्रयास करना होगा। डाक्टरी जैसे पेशे तथा मेडिकल कालेज जैसी व्यवस्था की स्थापना का अर्थ अन्य सभी विभागों से अलग है, लेकिन सियासी दौड़ ने इन्हें केवल नए-नए नामकरणों से जोड़कर अपनी महत्त्वाकांक्षा को तृप्त किया। ऐसे में मेडिकल प्रबंधन, स्थानांतरण व काडर नीतियों को पारदर्शी व सक्षम बनाने की जरूरत है। डाक्टरी दक्षता की मानिटरिंग तथा मूल्यांकन कोई आईएएस अधिकारी कैसे कर सकता है। विडंबना यह रही कि पिछले कुछ सालों से मेडिकल कालेजों के प्रिंसीपल या तो विवादित रहे या उनके सियासी संपर्क हावी रहे। हिमाचल को अपने चिकित्सा संस्थानों को जन अपेक्षाओं के अनुरूप बनाने के लिए आगे दौड़-पीछे चौड़ के बजाय डाक्टरी पेशे को जन सौहार्द से जोड़ना होगा। इसके लिए नीतियां व नियम तो बनें, लेकिन पहरे पर राजनीति न बैठे।

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