विधानसभा में हिमाचली संघर्ष

By: Dec 12th, 2018 12:05 am

क्या विपक्ष ने सदन से बाहर का रास्ता अख्तियार करके सही किया, सदन के भीतर से कहीं बेहतर बाहर बोला जा सकता है या राजनीति के पास यही दस्तूर बचा है, जिसके माध्यम से ही जनाकांक्षाओं की रखवाली होगी। क्यों टकराव की प्रवृत्ति में हिमाचल की विधानसभा अब चलने की जगह विषयों पर पथराव करने लग पड़ी है। आम जनता के दोनों पाटों से अपनी बात कहने का सबब रहता है, लेकिन जब इस तरह पूरे सत्र को पीसते हैं, तो अविश्वास की सारी तोहमतें लोकतंत्र को चिन्हित कर जाती हैं। विपक्ष के बहिर्गमन के साथ जनता की आशाएं भी सदन से बाहर निकल कर अपने मुगालतों को बांटने लगती हैं और कहीं भीतर सत्ता का अहंकार शक्तिशाली हो जाता है। तपोवन विधानसभा के परिदृश्य में न जवाबदेही और न ही जानिब की खबर मिलती है, तो यह इमारतों के जंगल में हम ढूंढ किसे रहे हैं। आम आदमी के पक्ष में जब विपक्ष बाहर हो जाता है या जब सत्ता पक्ष भी इसी पक्ष पर खबरदार रहता है, तो हमारे पहरों का बहरापन कब टूटेगा। बेशक विपक्ष के पास बड़े मुद्दे हैं और अकसर मुद्दे होते ही विपक्ष के पास हैं, लेकिन बहस के पांव क्यों लौट आते हैं अपनी ही सड़क पर। सड़क पर लोकतंत्र हमेशा सतर्क व अपना सा लगता है, लेकिन सदन के भीतर की मर्यादा में कहीं फर्क लगता है। इसलिए हम बिना बहस के सत्य को बांटना चाहते हैं। विपक्ष के वाजिब सवाल बनते ही इसलिए कि सत्ता गोलमोल भाव के बजाय सीधे प्रश्नांकित पिच पर खेल कर दिखाए। बाबा रामदेव को कितना फायदा मिलेगा, कर्ज का बोझ कितना बढ़ेगा, हेलिकाप्टर किस दिशा में उड़ेगा या कानून-व्यवस्था का फर्ज सलामत रहेगा, इन पर बहस को विराम नहीं दिया जा सकता, लेकिन प्रदेश के हित की लगाम न जाने कितने वर्षों से टूट कर बिखर गई है। इसीलिए बहस से कहीं अधिक मुद्दे बिखरते हैं, विधानसभा के बाहर कहीं अधिक सियासी उद्गार बिकते हैं। विधानसभा सत्र में पक्ष-विपक्ष के अलावा भी तो हिमाचल का संघर्ष होना चाहिए। यह संघर्ष ही प्रदेश की वास्तविकता है, जो राजनीतिक दीवारों को लांघ कर मुद्दों की इबारत स्पष्ट करना चाहती है। इसीलिए जब विपक्ष सदन के भीतर संघर्ष की वास्तविकता ओढ़ता है, तो बात राजनीतिक द्वंद्व से आगे चिन्हित होती है। मंगलवार की बहस के आयाम अगर दर्ज हुए, तो स्वां तटीकरण तथा बसों की खरीद पर पारदर्शिता के आंसू टपक पड़े। स्वां तटीकरण की फाइलों की जंग अगर राजनीतिक शेरवानी पहनकर लड़ी गई, तो मौजूदा सरकार से ही सवाल होगा। अतीत में स्वां तटीकरण की मंजूरशुदा राशि किस दबाव में रुकी और किस तरह एक परियोजना का सियासी शिकार हुआ, इस पर बहस के साथ मकसद अपनी सार्थकता से उद्धृत हुआ और यह एक हकीकत बनती जा रही है कि सरकारी कामकाज में निरंतरता का असामान्य व्यवहार देखा जा रहा है। यह दोनों ओर से एक समान है और इसके संदर्भ स्थानीय निकायों में जारी रस्साकशी से समझे जा सकते हैं। लोकतंत्र की प्रथम सीढ़ी को अगर राजनीतिक मोहरा बनाएंगे, तो सत्ता महज राजनीति हो जाएगी। बहरहाल कांगे्रस ने बहस के जिस खाने पर बसों की खरीद सजाई है, वहां भी यह प्रश्न केवल राजनीतिक चबूतरे ही खड़े कर रहा है। हम वर्तमान सरकार को क्लीन चिट नहीं देंगे और ऐसे प्रकरण पर स्पष्टीकरण वांछित है, लेकिन परिवहन की सरकारी लुटिया यूं ही नहीं डूबी, बल्कि वर्षों से सियासी महत्त्वाकांक्षा को ढोती एचआरटीसी केवल घाटा बढ़ाने का सदमा बन गई है। लो फ्लोर बसों की खेप जिस तरह जंग खा रही है, उस पर पश्चाताप कौन करेगा। अशांत जिरह को संयम भरा जवाब हमेशा चाहिए और इसीलिए जब सदन में पूछा जाता है, तो उसका अर्थ और उत्तर संवैधानिक मर्यादा का सबूत बनता है। सदन में कही गई बात भी अगर गंभीरता की परिचायक न समझी जाए, तो जनभावनाएं ही कुपित होंगी। लिहाजा प्रश्नों के लंबे सायों से बाहर निकलने का यह रास्ता नहीं कि विपक्ष कभी आपे से बाहर और कभी सदन से बाहर हो जाए या सत्ता की मिलकीयत इस कद्र न फैल जाए कि बहस के रास्ते छोटे पड़ जाएं। उम्मीद है आने वाले प्रश्नों की नई व्याख्या होगी तथा सरकार की मंशा सत्ता का अधिकार नहीं बनेगी। प्रदेश की आर्थिक स्थिति, सुशासन, कानून-व्यवस्था, बेरोजगारी तथा नए निवेश की महत्त्वाकांक्षा पर अगर दोनों पक्ष चर्चा का माहौल बरकरार रखें, तो इससे प्रदेश की क्षमता व काबिलीयत का खुलासा होगा।

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