विभाजन आज कोई मुद्दा नहीं

By: Dec 6th, 2018 12:05 am

अगस्त, 1947 में भारत राष्ट्र का विभाजन करना पड़ा, नतीजतन एक और देश पाकिस्तान बना। उस कालखंड, विभीषिका, यातनाओं और बंटवारे के दंश दोनों देशों के वाशिंदों ने सहे हैं, इतिहास उनका साक्षी है। इन सात दशकों में न जाने कितनी पीढि़यां गुजर गई होंगी और भारत-पाक ने लंबे रास्ते तय किए होंगे। टकराव गहराते चले गए, वैमनस्य बढ़ता गया है, लेकिन यथार्थ 1947 के साथ खड़ा है। उसे उसी रूप में स्वीकार करना चाहिए। जब भारत राष्ट्र का विभाजन किया जाना था, तो एक बाउंड्री कमीशन बनाया गया था। सिरिल रेडक्लिफ उसके अध्यक्ष थे। वह न तो कांग्रेसी थे और भाजपा का तो तब वजूद ही नहीं था, लिहाजा विभाजन का एक पक्ष कांग्रेसी नेताओं का होना स्वाभाविक था। रेडक्लिफ को पंजाब और बंगाल का बंटवारा हिंदू-मुस्लिम के मद्देनजर करना था। उनके पास अधिकृत नक्शे भी नहीं थे। उन्हें बंटवारे का वह काम 10-12 दिनों के अंतराल में ही करना था। लिहाजा विभाजन कई परिप्रेक्ष्यों में गलत भी हो सकता है, लेकिन 15 अगस्त, 1947 के बाद का यथार्थ दस्तावेजी और स्वीकार्य है। सिर्फ कश्मीर का मुद्दा अलग है, जो तत्कालीन महाराजा के विलय-प्रस्ताव की अलग-अलग व्याख्याओं पर आधारित है। 1947-48 के कबायली युद्ध के दौरान भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने जो निर्णय लिया था, वह सही या गलत था, इस बिंदु पर विवाद हो सकते हैं, लेकिन उसके बाद से लेकर 2018 तक का यथार्थ है-पाक अधिकृत कश्मीर! भारत-विभाजन के उस दौर में सिखों के प्रथम गुरू नानक देव की अंतिम कर्मभूमि, साधनाभूमि करतारपुर पाकिस्तान के इलाके में चली गई। आज यह मुद्दा प्रासंगिक नहीं है और न ही अकेली कांग्रेस उसकी कसूरवार है, क्योंकि निर्णायक शक्ति किसी और के पास थी। दरअसल वह कांग्रेस महात्मा गांधी, पंडित नेहरू, सरदार पटेल, राजगोपालाचार्य, मौलाना आजाद सरीखे राष्ट्रीय नेताओं की थी, जो आज मौजूद नहीं हैं। आज की कांग्रेस सोनिया-राहुल गांधी की है, जिसकी विरासत इंदिरा गांधी से शुरू होती है। वे विभाजन के साक्ष्य और पक्षकार नहीं थे, लिहाजा उस बंटवारे का दोष उन पर नहीं मढ़ा जा सकता। करतारपुर साहिब के अलावा कई और ऐतिहासिक स्थल, स्मारक, नदियां भी हैं, जो आज पाकिस्तान में हैं। उनकी लीक पीट-पीट कर रोते नहीं रह सकते, क्योंकि उस अध्याय को आज खोलना बेमानी है। प्रधानमंत्री मोदी को आज उस प्रयोग को अच्छी तरह सिरे चढ़ाना चाहिए, जो पाकिस्तान के करतारपुर साहिब में भी शुरू किया गया है। आस्था का गलियारा बनेगा, तो महसूस ही नहीं होगा कि करतारपुर पाकिस्तान में है। अफसोस है कि विधानसभा चुनाव में भी इस मुद्दे को उठाया गया है। इन्हीं चुनावों में ‘भारत माता की जय’ का मुद्दा भी उछला है। बेशक वह ‘जय’ न बोलें, लेकिन कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को ‘भारत माता’ की तुलना अनिल अंबानी, नीरव मोदी, मेहुल चौकसी आदि से भी नहीं करनी चाहिए। वे सवालिया उद्योगपति हैं। नीरव और मेहुल तो आर्थिक भगोड़े हैं। उनसे तुलना कर ‘भारत माता’ को दागदार क्यों किया जाए?  इस देश के जल, जंगल, जमीन, नदियां, पहाड़ और अंततः जनता ही सार-रूप में ‘भारत माता’ हैं। करतारपुर साहिब या भारत माता की जय को राजनीतिक या चुनावी ढाल नहीं बनाना चाहिए। दोनों के प्रति भाव भी प्रतीकात्मक नहीं होना चाहिए। बुनियादी तौर पर यह राष्ट्रीय श्रद्धा और सम्मान का सवाल है। क्या राजस्थान में जनादेश करतारपुर साहिब गलियारे या भारत माता सरीखे जुमलों के आधार पर हासिल किया जा सकता है? भारत का जो विभाजन होना था, वह 71 साल पहले हो चुका है। उसमें संशोधन न प्रधानमंत्री मोदी करा सकते हैं और न ही राहुल गांधी कुछ कर सकते हैं। इन लंबे सालों में भारत ने एक सार्थक सफरनामा तय किया है। आज हम परमाणु शक्ति संपन्न राष्ट्र हैं और विश्व की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था हैं। इसका श्रेय भारत को ही है, सरकारें तो प्रतीकात्मक रही हैं, क्योंकि वे लोकतंत्र का अनिवार्य हिस्सा हैं। विडंबना है कि भारत की जनता-सापेक्ष समस्याओं के आधार पर चुनाव नहीं जीते जा सकते, लिहाजा एक-दूसरे की पगडि़यां उछाली जाती हैं। क्या 1947 में एक लोकतांत्रिक राष्ट्र के तौर पर शुरुआत यूं ही की गई थी?

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