श्री विश्वकर्मा पुराण

By: Dec 29th, 2018 12:05 am

मेरी आप सबसे एक विनती है कि परम कृपालु परमात्मा विश्वकर्मा को तुम सब निष्काम होकर भजो, तो आपके लिए भी इस संसार में कुछ भी अलभ्य नहीं है। कारण कि जिसके पास प्रभु स्वयं रहते हैं उसको अलभ्य क्या होगा। इस प्रकार कह कर विश्वावसु अपने आसन के ऊपर बैठ गए। राजा भी अत्यंत प्रसन्न हुए। उसी पुरोहित के पांचों पुत्रों को अनेक प्रकार के उपहार देकर उनको प्रसन्न किया…

फिर भी ऐसे प्रभु तुल्य महान आचार्यों के कार्यों में दोष दृष्टि रखनी ये अपने ही विनाश को निमंत्रण देने के बराबर है। जिन स्तंभों के तोड़ने में राज के अनेक काम करने वालों को आधे पहर के बराबर समय लगा, उन्हीं स्तंभों को तोड़ने अथवा निर्माण करने में उत्तम शिल्पज्ञ को मात्र एक पल का ही समय लगता है और तुम देखोगे कि मैं पलभर में ही उन स्तंभों को फिर से जैसे थे वैसे के वैसे खड़े कर दूंगा। इस तरह कह कर विश्वावसु ने अपने कमंडल में से जल की एक अंजलि भरकर टूटे हुए स्तंभों के ऊपर छिड़की और सबके देखते-देखते सब स्तंभ जैसे के तैसे ही खड़े हो गए और जिनका कुछ हुआ ही न हो ऐसे पहले की भांति दिखने लगे।  ये दूसरा आश्चर्य देखकर सब प्रजा दिग्मूढ़ जैसी हो गई। राजा भी जाने ये कोई देवता सीधा स्वर्ग में से उतर आया हो ऐसे भाव से मन ही मन इस बाल ब्रह्मचारी का अभिवादन करने लगा उसके मुंह के  ऊपर ब्रह्मचर्य और तपस्या का तेज झलक रहा है, जो कि मात्र सोलह वर्ष की उम्र वाला वो विश्वावसु फिर बोला, हे सभा के लोगों आपने देखा कि जो स्तंभ थोड़ी देर पहले टुकड़े-टुकड़े हुए जमीन पर पड़े थे। वो सब देखते-देखते वैसे के वैसे ही बन गए हैं और पहले के स्तंभों में और इन स्तंभों में जरा भी फर्क नहीं पड़ा है। अब तुमको ऐसी शंका होगी कि ये सब ऐसा आश्चर्यजनक बना कैसे? इसके उत्तर में मुझको तुमसे इतना ही कहना है कि परम कृपालु परमात्मा की सच्चे हृदय से भक्ति करने वाले के लिए इस जगत में कुछ भी आशक्य नहीं होता। यहां आपने जो कुछ भी देखा है, वह कुछ भी मैंने नहीं किया और ऐसा करने के लिए मुझमें लेशमात्र भी शक्ति नहीं है। परंतु जिन प्रभु के आश्रम में मेरा इतना अल्प जीवन मैंने व्यतीत किया है, उन प्रभु में मुझे अधिक श्रद्धा है तथा मेरी प्रभु के प्रति वह श्रद्धा ही मेरे माथे पर आए हुए तमाम कार्यों को सफलतापूर्वक पार कर सकती है। मेरे पूज्य पिताजी अब तो निवृत हुए हैं, परंतु वह स्वयं और ये मेरे बड़े भाई बंधू इस भवन को स्तंभ रहित करके विमान की तरह आकाश में यहां से वहां फिराना चाहें, तो भी वो फिरा सकते हैं और करते नहीं मात्र हमारे  तुम्हारे तथा सबके हृदय में व्याप्त परमात्मा का ही ये सब कार्य है। इस प्रकार तुम समझो और जिस राज्य में प्रभु के भक्तों का वास है वो राज्य अथवा राज्य का सूर्य कभी अस्त नहीं हो सकता। राज्य पुरोहित राजा को किसी भी भवन बनाने का मार्ग दर्शन करता है, उस समय भवन में निवास करने वाले के रक्षण के लिए सब कुछ विचार कर उस भवन की रचना करता है। इसलिए मेरी आप सबसे एक विनती है कि परम कृपालु परमात्मा विश्वकर्मा को तुम सब निष्काम होकर भजो, तो आपके लिए भी इस संसार में कुछ भी अलभ्य नहीं है। कारण कि जिसके पास प्रभु स्वयं रहते हैं उसको अलभ्य क्या होगा। इस प्रकार कह कर विश्वावसु अपने आसन के ऊपर बैठ गए। राजा भी अत्यंत प्रसन्न हुए। उसी पुरोहित के पांचों पुत्रों को अनेक प्रकार के उपहार देकर उनको प्रसन्न किया, इसके बाद विश्वावसु के वचन से उन चारों दुष्ट पंडितों का सिर मुड़वाकर नगर से बाहर निकाल दिया गया। राजपुरोहित सीमंत तथा विश्वावसु समेत उनके पांचों पुत्रों को अनेक प्रकार के वस्त्र तथा विश्वावसु को सोने और चांदी से जड़ा हुआ तथा जिसमें रत्न जड़ा हुआ दंड कमंडल तथा खड़ाऊ दिए। इस प्रकार उनको प्रसन्न कर उनको पालकी में बैठाकर विदा किया।


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