सियासी सहमति की गुंजाइश

By: Dec 13th, 2018 12:05 am

अपने पैमानों की खनक में हिमाचल विधानसभा का शीतकालीन सत्र और विरोध की गोटियां फिट करते विपक्षी शिकायत का मंजर अगर खराब है, तो सियासत में सहमति के लफ्ज जोड़ने पड़ेंगे। चर्चाएं न तो घास काटने की मशीन बन सकती हैं और न ही अमर्यादित जंग। विधानसभा के हर सत्र से जनता का अभिप्राय बहस का सुखद एहसास, विपक्ष का निष्पक्ष अनुसंधान, सरकार की सदिच्छा और राजनीति के नए तेवरों का स्पंदन है। इसलिए जब केवल तू तू-मैं मैं होती है, तो हिमाचली क्षमता तथा परंपराएं शर्मिंदा होती हैं, लेकिन जब राजनीति के भीतर सहमति भरा सारांश निकलता है, तो प्रदेश अपनी हिफाजत की सौम्यता देखता है। यहां न तो विपक्ष का अडि़यल और न ही सत्ता का दंभी होना पसंद आता है, बल्कि टिप्पणियों के छोटे आकार में की गई प्रदेश हित की पुकार भी सुनी जाती है। लोकतंत्र का यह गणित जनता को तो समझ आता है, लेकिन विशेषाधिकार प्राप्त सदन के संगम में न जाने क्यों दो-दो हाथ करने की नौबत है। मंगलवार की शांति और संदेश से कहीं भिन्न बुधवार का वार रहा। विपक्षी प्रश्न शांति भंग करते हैं या सत्ता के पैमाने इन्हें नापसंद करते हैं, इसका प्रदर्शन हम वर्तमान सत्र की आबरू में देख सकते हैं। ऐसे में विधायकों को स्थायी कार्यालय की व्यवस्था करने का फैसला, हिमाचल में जनप्रतिनिधित्व की आभा बढ़ाएगा। तख्तियों पर उलझी  सियासत को कुछ हद तक विराम तथा जनता की उम्मीदों को आसरा मिल सकता है। मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने सियासत से अलग सरकार को परिभाषित करते हुए अब तक जो संकेत दिए हैं, उनमें यह सबसे अहम तथा भविष्य की राजनीति को दुरुस्त करने का कदम है। हैरानी यह कि विपक्ष का विधायक, हारे हुए सत्ता के उम्मीदवार से गौण माना जाता है और इसी तरह उसके विशेषाधिकार भी कुंद हो जाते हैं। हम यह तो नहीं कह सकते कि सत्ता अपने ठाठ छोड़ देगी या सत्तारूढ़ दल आंतरिक संतुलन के वजीफे, अपने नेताओं को देना बंद कर देगा, लेकिन दो कदम चलना भी हिम्मत की बात है। आपसी सहमति की राजनीति बनाने के लिए सत्ता को प्रतिपक्ष की प्रतिष्ठा तथा विरोधी विधायकों के सम्मान का ख्याल रखना पड़ेगा। ऐसे में तमाम राजनीतिक खींचतान के बीच अगर विधायकों को स्थायी रूप से एसडीएम, बीडीओ या तहसीलदार कार्यालय में ठिकाना मिलता है, तो इससे स्थानीय महत्त्वाकांक्षा रूपांतरित होगी तथा जनता से रू-ब-रू होने का माहौल भी पनपेगा। यह दीगर है कि विधायकों को भी अपने स्तर पर सहमति की सियासत के मजमून पुख्ता करते हुए हर पक्ष के मतदाता का सम्मान करना होगा। दुर्भाग्यवश आज जहां लोकतंत्र खड़ा है, वहां राजनीतिक हार-जीत ने वैमनस्य का भाव ही बढ़ाया है। लिहाजा विधायक स्तर पर भी चुन-चुन कर अपनों में ही रेवडि़यां बांटी जाती हैं। अमूमन जनप्रतिनिधियों से जनापेक्षाएं भी निम्न स्तर पर पहुंच कर मोलतोल करती हैं तथा इन्हीं के अनुरूप विधायकों की प्राथकिताएं दर्ज होती हैं। प्रायः विधायकों की हाजिरी में जनता अपने दुख-सुख को बांटती हुई नजर आती है, तो यह अनिवार्यता कहीं न कहीं बड़े कार्यों को बाधित करती है। शादी-विवाहों से शोक सभाओं में व्यस्त नेतागिरी आखिर कब दूसरे विषय चुनेगी या स्थानांतरणों की फेहरिस्त से खुद को अलग कर पाएगी। गांव की हसरत में प्रधान अगर गलियों को भी दलगत मानकर विकास कराएगा या शहरी निकायों के पार्षद अपनी-अपनी बारी में संपत्तियां बांट लेंगे, तो शक्ति का ऐसा आबंटन कभी नहीं रुकेगा। कुछ इसी तरह विधायक विकास निधि से जुड़े सवालों का हल केवल पारदर्शी मुहिम ही कर सकती है। जयराम सरकार अगर मुख्यमंत्री हेल्पलाइन के माध्यम से नागरिक कॉल सेंटर को रूपांतरित करना चाह रही है, तो इस फैसले की भी प्रशंसा होनी चाहिए। जनमंच के जरिए अब तक जो शिकायतें व समाधान सामने आए हैं, उनसे आगे अगर इम्तिहान बाकी हैं, तो मुख्यमंत्री हेल्पलाइन कमाल कर सकती है। जनता और सरकार के बीच कॉल सेंटर कितना बड़ा सेतु साबित होता है, लेकिन इस तरह के प्रयोग से जनभागीदारी से प्रशासन को चलने की प्रेरणा जरूर मिलेगी। ऐसे प्रयोग अतीत में किसी न किसी तरह हुए हैं, फिर भी असरदार होने के लिए कार्रवाई मुकर्रर होनी चाहिए। जनता के पास शिकायतों-सुझावों का अंबार पहले से है और इसे मीडिया के मार्फत पेश किया जाता रहा है, लेकिन फैसला लेने की क्षमता तथा इसके कार्यान्वयन की प्रणाली केवल सुशासन व सरकारी कार्यसंस्कृति से ही जाहिर होगी। जनता की मांग तथा सूचनाओं के आदान-प्रदान के खाके भले ही हेल्पलाइन से मुकम्मल हों, लेकिन जनता को राहत देने का पैगाम संवेदनशील कैसे हो, इस पर विस्तृत कार्य करने की जरूरत है। आम आदमी की गैर राजनीतिक जरूरतें ही प्रदेश के भविष्य का मानदंड हैं, लिहाजा फेहरिस्त बढ़ाने के बजाय इसे मिटाने का श्रम अभिलषित है। अकसर नागरिक सुझाव निरस्त कर दिए जाते हैं या लघु आकार की मांग भी पिछड़ जाती है। सरकार का जनता से संवाद केवल मांग पत्र ही नहीं हो सकता या हर काम ओहदेदारी का हिसाब नहीं हो सकता, फिर भी सुशासन की बागडोर में अगर त्रुटियां हैं, तो इनका हल जमीनी होगा।


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