हर कर्म प्रभु पर छोड़ दो

By: Dec 15th, 2018 12:05 am

बाबा हरदेव

जब मनुष्य सोचता है कि यह भविष्य का निर्माण कर सकता है तभी मनुष्य ‘कर्ता’ हो गया। फिर परिणाम कोई भी आएगा तो मनुष्य कैसे राजी होगा? अब परिणाम अगर अनुकूल न आएगा तो मनुष्य को ये ख्याल आएगा कि ये ठीक से (कर्म) नहीं कर पाया जैसेा कि इसे करना था। इसलिए जो होना था वही नहीं हुआ या फिर दुनिया मनुष्य के विपरीत है और शत्रु है। लोग इसके पीछे पड़े हुए हैं। मानो मनुष्य फिर परिणाम को सहजता से स्वीकार नहीं कर पाएगा, क्योंकि मनुष्य का मन हमेशा बांटता है। ये मनुष्य को कहता है कि थोड़ी कोशिश करके देख लेते हैं शायद कुछ अपने करने से मिल जाएगा और अगर कुछ न मिलेगा तो शांति ग्रहण कर लेंगे। यानी मनुष्य ने ये जो चेष्टा की कुछ पाने की, इस चेष्टा में ही छिपा है, वो तत्त्व जो अब मनुष्य को परिणाम स्वीकार नहीं करने देता या यूं भी कहा जा सकता है कि यह जो कुछ कर्ताभाव से रकने की वृति है, वहीं मनुष्य के लिए अशांति ले आती है। अतः आम मनुष्य के मन के पास आमतौर से दो तरह के ही उपाय हैं। एक तो जैसे आदमी जानवर को हांक कर ले जाता है, पीछे से डंडा मारता है, तो जानवर चलता है। दूसरी विधि है कि घास जानवर को दिखाते जाएं ये मनुष्य के पीछे चलता जाएगा। मानो या तो परिस्थिति में जबरदस्ती का धक्का हो या फिर परिणाम की आशा हो, आशा रूपी घास दिखाई पड़ती हो, इन दो उपायों से हम अकसर चलते हैं क्योंकि ‘कर्तापन’ मन को चलाने का एकमात्र सूत्र है, जो संसार से आता है। अतः ऐसे समझौते मन के जगत में अकसर होते रहते हैं, यानी अगर पीछे से पति-पत्नी, बच्चे,  रिश्तेदार या और परिस्थिति धक्का न दे (कि कुछ किया जाए) तो भी जरा चलना मुश्किल हो जाएगा या फिर आशारूपी घास आगे-आगे न दिखती हो तो भी चलना जरा दुष्कर हो जाएगा, क्योंकि अहंकार पशु है और ये केवल पशु की भाषा ही समझता है। अब सत्य के जगत में कभी कोई समझौता नहीं होता मानो आध्यात्मिक जगत में ‘अहंकार’ से ऊपर जाने का उपाय मौजूद है और ये है आत्मिक जीवन से पूर्ण सद्गुरु ही प्रदान कर सकता है। वहां न तो पीछे से किसी धक्के का कोई सवाल है और न ही वहां आगे कोई परिणाम का सवाल है। मानो जैसे कोई एक फूल खिला है और इससे सुगंध बिखर रही है। फूल की ये सुगंध इसलिए नहीं कि कोई रास्ते से गुजरेगा। फूल के लिए कोई रास्ते से न भी गुजरे यह (फूल) सुगंध देता ही चला जाता है। फूल का अर्थ ही सुगंध का होना है। यही हालत एक नदी की है ये बहती ही चली जाती है, इसी प्रकार जीवन का अर्थ कर्म है। हम जीवित हैं, जीवित होने का अर्थ कर्म है और ये कर्म भीतर से आ रहा होता है, परमात्मा से आ रहा होता है। मानो असल जीवन का भीतर से जीने का उपाय है, पीछे आगे का कोई सवाल नहीं है। अतः आदमी कुछ करे बिना रह नहीं सकता इसे कुछ करना जरूर होगा। मगर अपने आपको कर्ता न मानकर  यानी सब छोड़ दे इस प्रभु पर, ये जो करवाए मनुष्य करे। जो प्रभु दे ये ले ले। अतः जब हम कर्म प्रभु पर छोड़ देंगे तभी फल भी इस पर छूटेगा,क्योंकि अगर कर्म रखेंगे अपने हाथ में और फल छोड़ेंगे, प्रभु पर तो ये एक प्रकार की बेईमानी हो जाएगी।


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