हिंदी की अपेक्षा पहाड़ी प्रकाशनों में रहा सूखा

By: Dec 30th, 2018 12:05 am

समय की रेत पर

डा. गौतम शर्मा ‘व्यथित’ साहित्यकार

समय की गति जीवन के हर क्षेत्र में कुछ नया, प्रगतिशील, उद्धरणीय व अनुकरणीय देखना चाहती है। इस चाहत या अपेक्षा को पूरा करता है व्यक्ति, विविध बहुआयामी भूमिकाओं के निर्वाह के साथ। साहित्य-सृजन में भी हर वर्ष कुछ नया प्रकाशित होना चाहिए, देश-प्रदेश के भीतर घटित घटनाओं, आंदोलनों, योजनाओं या विचारों से प्रभावित होकर। इसी से पता चलता है साहित्य-सेवियों का समाजोन्मुखी व काल से प्रभावित होने का। लेखन-प्रतिबद्धता भी इसी से आकलित होती है।  वर्ष 2018 व्हाट्सएप, फेसबुक, ई-बुक आदि माध्यमों से साहित्य लेखन, प्रचार-प्रसार व बहस का वर्ष रहा। प्रदेश का लेखक अनेक समूहों से जुड़ा, हटा, फिर जुड़ा और इसी सिलसिले में प्रदेश व देश के पाठकों से जुड़ा। अनेक युवा साहित्यकार भारतीय स्तर पर भी लोकप्रिय हो गए। ऐसा भी इन माध्यमों से पढ़ा गया कि हिमाचल के युवा लेखकों में सृजनशीलता बढ़ गई है या बढ़ती जा रही है। इसी बहस का हिमाचली-पहाड़ी भाषा व इसमें सृजन हो, भी मुद्दा बना, अच्छा लगा-अनेक लेखक तथा पाठक इस पक्ष में हैं कि हिमाचली को प्रदेश सरकार अधिमान दे और इसे आठवीं अनुसूची में लाने का प्रयास करे, दूसरी प्रांतीय भाषाओं की तर्ज पर। इस वर्ष जो प्रकाशन मेरी नजर से गुजरे या जिन्हें पढ़ने का अवसर मिला, प्रतिबिंब के गत सप्ताह में चर्चित पुस्तकों के अतिरिक्त, उन पर संक्षेप में कहना चाह रहा हूं। हृदयकमल प्रकाशन अंद्रेटा-पालमपुर से प्रकाशित ‘दिल के करीबा’ डा. हृदयपाल सिंह का चौथा हिंदी काव्य संग्रह पढ़ा। हथेली पर धूप, युवतियां, उदास रिश्तों का शहर के बाद। तीन दशकों से संचार व्यवसायी हृदयपाल का कवि अपने चौतरफा के समाज, राजनीतिक फलक, व्यावहारिक तौर-तरीकों को अपने नजरिए से देखते-आंकते शब्द देते हैं। आधुनिक इनसान जिंदगी को नहीं जीता, बल्कि जिंदगी उसे जी रही है। अतः कवि का कहना है कि इस सोच को त्याग कर प्रकृति के अंग-संग जीने का प्रयास करना चाहिए। नए प्रतीक, बिंब व रूपक बड़ी सहजता से भाव बोध में सहायक बने हैं। संस्मरण साहित्य की उपयोगिता एवं आवश्यकता सार्वजनीन है। ‘चीड़ के वनों में लगी आग’-आशा शैली का सत्यभूमि नई दिल्ली से प्रकाशित संस्मरण संग्रह मिला, पढ़ा। लेखिका दमदार हैं, समय व स्थिति का सामना करते उसे अपने पक्ष व हित में करना जानती हैं। यही व्यक्तित्व विशेषता इस पुस्तक में संकलित संस्मरणों में मिलती है। अधिकांश संस्मरण हिमाचली में जिए जीवन, संपर्क में आए लेखकों, अधिकारियों से जुड़े हैं, जो लेखिका के जीवन में आए संघर्ष स्थितियों को उद्घाटित करते हैं। सत्ताइस संस्मरणों का यह संग्रह पठनीय व संग्रहणीय है। ‘उल्लूकपुर का साम्राज्य’ उपन्यास जयनारायण कश्यप का लिखा स्वयं प्रकाशित, पर्यावरण जीवी पात्रों के माध्यम से संप्रतिकालीन मानवीय व राजनीतिक चिंतन व व्यवहार को व्याख्यायित करता है। इस दृष्टि से यह इस वर्ष की रचनात्मक उपलब्धि है, जो हितोपदेश व पंचतंत्र की शैली पर आज के मनुष्य को कई स्तरों पर सोचने पर विवश करती है। पक्षियों के प्रतीकों के मनोरंजनात्मक व व्यंग्यपूर्ण अर्थ को यथार्थ की कसौटी पर परखने का सार्थक प्रयास है यह रचना जहां लांछित अर्थ व संबोधन हितकारी-परोपकारी ही नहीं, मानवीय गुणों से अधिक सार्थक व वांछनीय हैं। मुनीष तन्हा का गज़ल संग्रह ‘सिसकियां’ गुफ्तगू पब्लिकेशन द्वारा प्रकाशित 112 पृष्ठीय 99 गजलों का संग्रह है। इसमें वर्तमान के यथार्थ को लेकर अनेक मुद्दों को सांकेतिक रूप में कहने का प्रयास हुआ है, सहज-सरल शैली में। अंधेरी रात में रहकर उजालों की बात करना मनुष्य का स्वभाव हो गया है। हम भूख से व्याकुल नवालों की बात करते हैं। हर गजल कुछ न कुछ कहती है-बशर्ते हम पढ़ने-समझने की कोशिश करें। प्रो. राजीव मेजर का कविता संग्रह ‘संवेदनाओं के शिखर पर’  मुझे इस वर्ष का प्रभावी, सार्थक काव्य संकलन लगा। इसमें संकलित पहली कविता ‘सजनी’ 33 पृष्ठों की है, जो संप्रति कालीन हर पग पर व क्षेत्र या दायरे में जी रही दलित चेतना व अंतर्मन से टूटे हुए लोगों को सहारा देने का स्वर उठाती है। ‘पागल कविता’ में नई जमीन की तलाश की है। समग्रतः यह काव्य संग्रह पठनीय है। लेखक के दर्शन का सूचक है। नीलम शर्मा की दो पुस्तकें मिली हैं-दस्तक स्मृतियों की-काव्य संग्रह तथा राजकुमार सिद्धार्थ, काव्य संग्रह में 66 कविताएं संकलित हैं, जो नारी मानस को अनुभूत सत्यों का संकेत देती हैं। दूसरी पुस्तक बाल साहित्य के अंतर्गत है, जो गौतम बुद्ध के जीवन दर्शन को सहज-सुबोध शैली में दर्शाती है, बाल मानस व विद्यार्थियों के लिए श्रेष्ठ व पठनीय पुस्तक है। हिमाचली-पहाड़ी में भगतराम मंडोत्रा की ‘रिहड़ू-खोलू’-काव्य संग्रह प्रकाशित हुआ है, जिसमें 79 कविताएं हैं। इसमें मनुष्य के बहुरूपिएपन को व्यंग्यात्मक शैली में व्यक्त किया है। कृष्णदेव महादेविया का लघुकथा संग्रह-तुम्हारे लिए-लघुकथा की मर्यादा को नई ऊंचाई प्रदान करता है। भाषा की सटीकता के साथ। गोपाल शर्मा का हिंदी काव्य संग्रह भी प्रकाशित हुआ है। कुल मिलाकर कहें तो हिमाचल में हिमाचली-पहाड़ी-साहित्य प्रकाशन की गति प्रतिवर्ष धीमी पड़ती जा रही है। कारण, इसे राजनीतिक मंशा ‘पालिटिकल विल’ नहीं मिल रही। लेखकों को इस चिंता पर विचार कर इमसें लेखन-प्रकाशन की गति बढ़ानी होगी।

साल पर अंकित कविताओं की छाप

परिदृश्य में

प्रो. चंद्ररेखा ढडवाल साहित्यकार

आज का समय ऐसा समय है, जिसमें कविता बहुत जरूरी है, परंतु विडंबना यह है कि इस आज के ही समय में कविता से निरंतर एक दूरी बनती जा रही है अर्थात भाव-विचार व संवेदना से दूरी और अंततः जीवन से दूरी, क्योंकि कविता पढ़ना-सुनना व लिखना स्वयं से मिलना है और स्व का विस्तार करना है। ऐसे में कविता पर बात करना और इस पर बात करने का अवसर उपलब्ध करवाना दोनों ही बहुत सुखद व सकारात्मक हैं। 2018 में प्रकाशित काव्य संग्रह ‘चौबारे पर एकालाप’ की कविताएं, अनूप सेठी की कथ्य व शैली दोनों पर उनकी मजबूत पकड़ को दर्शाती हैं। समकालीन विद्रूपता पर यदि लिखा है तो कवि ने घर-गृहस्थी की कोमल-सघन कथा भी उकेरी है। घर को घर करते हर चरित्र की बात है-

‘जैसे घरों को बच्चे आबाद करते हैं/औरतें जीवन दान देती हैं/उसी तरह घर में संजीदगी लाते हैं बूढ़े।’

बेटी और बेटे की तुलना करती पंक्तियां देखिए-

‘बेटे का होना भी कम चमत्कारी नहीं है/फर्क वैसा ही है जैसे मुरली और तबला/ मुरली तन्मय करती है तबला नाच नचाता/मुरली गहराती भीतर, तबला मुखर मतवाला…। बेटा तोड़ के सीखना चाहता है/खिलौना हो, वस्तु हो या हो संबंध/बेटी सहेज के जोड़ना जानती है/गुडि़या हो, गृहस्थी हो या हो धरती माता।’

संपादित कविता संकलन –‘शब्द तलवार है’ में छपी शैली किरण की कविता सशक्त व्यंग्य है-

मसखरे जेब में ठूंस रहे मुद्राएं/हम शिखंडी हुए ताली बजा रहे हैं/मसखरे खूनी हुए/उनके पंजे इसे/दस्ताने थमा कर उन्हें/हम अपनी खरोंचें छिपा रहे हैं। ’

इसी वर्ष मधुभूषण शर्मा मधुर का गजल संग्रह ‘दस्तक’ आया। राजनीति, बाजार और मानवीय संबंध सब विषयों पर गजलें हैं इस संकलन में। आदमी के जुझारूपन की बानगी इस शेर में है-‘किस कयामत से डराते हो मुझे/गर्क होकर भी उबर सकता हूं मैं।’ इंसानियत को परिभाषित करता यह शेर प्रभावी है-

‘जो किरदार से ही न इंसान होंगे, वो फिर खाक हिंदू-मुसलमान होंगे।’

इसी वर्ष केपी अनमोल द्वारा संपादित समकालीन हिंदी गजलकारों की बेहतरीन गजलें, संकलन में गजल विधा को साध चुके द्विजेंद्र द्विज की संकलित गजल में भाव और शैली का अद्भुत सामंजस्य है-

जहन में और कोई डर नहीं रहने देता

शोर अंदर का हमें घर नहीं रहने देता

कोई खुद्धार बचा ले तो बचा ले वरना

पेट कांधों पे कोई सर नहीं रहने देता

निरंजन के संपादन में प्रकाशित कविता पुस्तक ‘पांचवां युवा द्वादश’ में समर्थ व चर्चित युवा कवि आत्मरंजन की कविताएं संकलित हैं। एक छोटी कविता है-

संभावनाएं, संभावनाएं, देखी ही जानी चाहिए/हमारे आसपास हरसंभव, देखी जाएंगी तभी बच पाएंगी संभावनाएं। जैसे बीज के भीतर, रहता है पेड़, अंडे के भीतर, आकाश व्यापी उड़ान, देखी जाएगी, तभी बच पाएंगी।’

भूमिका में राजेश जोशी ने इस तरह की एंद्रीकता, महीन आब्जर्वेशन और बहुत कम शब्दों में बहुत कुछ कह देने की संश्लिष्टता को विशेष रूप से रेखांकित किया है इस कविता के संदर्भ में। रचना कर्मियों की ये रचनाएं आश्वस्त करती हैं और गुनगुनाते हुए आधुनिक बोध के साथ भीतर तक आलोडि़त कर जाती हैं।

हिमाचली पहचान का अवसान

श्रद्धांजलिः पीयूष गुलेरी

डा. जयप्रकाश सिंह

उनके लिए लोक लेखन का नहीं, जीवन का विषय था। लोकदृष्टि ही उनकी जीवनदृष्टि थी। इसी कारण उनकी अभिव्यक्ति भी सीधे दिलों से जुड़ती थी और लोगों को सम्मोहित कर जाती थी। एक ऐसे दौर में जब अधिकांश लोगों के लिए लोक ‘फोक’ में तब्दील होकर ‘एंटीक कलेक्शन’ की वस्तु बन गया है, उनका जाना सचमुच अपूरणीय क्षति है। उनके लिए लोक कोई भूतकालीन वस्तु या परंपरा नहीं थी बल्कि जीवंत वर्तमान और भविष्य से संवाद करने का उपकरण था। लोक उनके लेखन में ही नहीं जीवन में था, इसलिए उनका लेखन और जीवन दोनों सरस बने रहे। जीवन के यथार्थ से उनकी मुठभेड़ अनेक स्तरों पर और बहुत तीखी थी। उन्होंने यथार्थ के हर पहलू का सामना किया था, उसे जिया था। इसी कारण उनके अनुभवों में बहुस्तरीयता थी, भावों में सामान्य व्यक्ति की सरसता और शब्दों में लोक से निकटता। उनसे बातचीत करते समय हर व्यक्ति को हमेशा यही लगता था कि सचमुच अपनी ही बात कही-सुनी जा रही थी। अनुभवों की समृद्धता के कारण वह व्यक्तियों से उसके स्तर पर बातचीत करते थे और इसी कारण उनके पास कभी भी परायेपन का बोध नहीं पैदा होता था। लोक की सबसे बड़ी खासियत होती है चुनौतियों के बीच निरंतर आगे बढ़ना, कुछ सीखते रहना और सहज ही आगे बयां करना। उनमें यह खासियत जीवन के अंतिम क्षणों तक बनी रही। मैंने हमेशा पाया कि शाम का समय वह हमेशा एकांत में जीना चाहते थे। शुरुआती दिनों में यह बात समझ नहीं आई, बाद में मेरी समझ में आया कि यह समय वह आकाशवाणी और उसके लोकगीतों के साथ गुजारते थे, लोकगीतों को नोट करते, लय को समझने की कोशिश करते और कुछ नया रचते भी थे। भारतीय परंपरा मानती है कि जहां लोक और वेद का समन्वय हो जाए, वहीं जीवन की सार्थकता है। हिमाचली लोक से उनके लगाव की चर्चाएं खूब हुईं। लेकिन उनकी आध्यात्मिकता, साधना पक्ष पर कम ही लोगों का ध्यान गया। वह भगवती के उपासक थे। अपने लेखन को भी वह भगवती का प्रसाद ही मानते थे। सबसे बड़ी बात यह कि उन्होंने आध्यात्मिकता और भगवती के प्रति अपने समर्पण को जीवन में अंग बना लिया था। हर्ष के अतिरेक में, विषाद की विभीषिका में, सफलता की खुशी में, असफलता के अंधेरे में मैंने हमेशा उनको यही कहते हुए पाया कि ‘भगवती जो करती हैं, वही ठीक होता है। अपना सोचा कहां ठीक होता है।’ वास्तव में उनकी वाक और लेखनी भगवती ललिता का आशीर्वाद थी, इसीलिए तो वह इतनी लालित्यपूर्ण बन सकी! वर्ष 2018 ने अपने अंतिम महीने में उनके नश्वर शरीर को हमसे छीन लिया। उन जैसी लोक-सम्पृक्तता और उसे अभिव्यक्त करने की दक्षता अब अन्य कहीं दिखती नहीं। भले ही हिमाचल का भूगोल किसी और ने गढ़ा हो, भाषा उन्होंने गढ़ी। इसलिए उनका जाना हिमाचली पहचान को बहुत बड़ा नुकसान है। काल ने उनके नश्वर शरीर को भले ही हमसे छीन लिया हो, भारतीय परंपरा तो शब्द को अक्षर मानती है। इसलिए ‘अक्षर’ रूप में ‘अंकल जी’ हम सबके साथ बने रहेंगे, लोक के लिए कुछ करने को प्रेरित करते रहेंगे।

नोट : प्रतिबिंब के पिछले अंक में ‘चित्रा मुद्गल के उपन्यास के किरदार घूम रहे हैं जेहन में’ शीर्षक से छपे आलेख में गलती से लेखक का नाम मुरारी शर्मा छप गया था, जबकि यह गुरमीत बेदी होना चाहिए था। अतः इसे मुरारी शर्मा के बजाय गुरमीत बेदी पढ़ें।

साहित्य और मीडिया में नैसर्गिकता की दरकार

अपने-अपने वहम

अजय पाराशर साहित्यकार

साहित्यकार और मीडियाकर्मी, पहले आम आदमी हैं और फिर साहित्यकार या मीडियाकर्मी। लेकिन दोनों का सबसे बड़ा गुण है-अपने या व़क्त के साथ टिके रहना। अगर वे ऐसा करने में ईमानदार और ़काबिल हैं तो उन्हें पता होता है कि दिमा़ग में चल रहे सच और कल्पना के समर में उन्हें कब, किस ओर रहना है। उनकी ईमानदारी, उन्हें निष्पक्ष होने में मदद करती है। लेकिन सबसे बड़ी दुविधा है-मानव का तत्काल प्रतिक्रियावादी होना। आक्रोश, प्रतिक्रिया को जन्म देता है और प्रतिक्रिया, आक्रोश को। इन दोनों का लोप होने पर चाहे मीडिया में कोई सृजन हो या साहित्य में, सदा हितकारी होता है, फिर चाहे वह सच से उपजे या मन से। लेकिन साहित्य और मीडिया में शायद यही सबसे बड़ा अंतर है कि साहित्य में कल्पना लोक में विचरा जा सकता है; लेकिन मीडिया, विशेषकर पत्रकारिता में सदैव यथार्थ की खुरदरी ज़मीन पर ही विचरण करना होता है, पर दोनों का उद्देश्य एक ही होता है, मानवता या समाज का हित। लेकिन समझौतावादी होने पर, दोनों ही आत्म की लड़ाई हार जाते हैं। उनकी ईमानदारी और तटस्थता ठगी जाती है। लेकिन धैर्य, एक ऐसा गुण है, जो दोनों ही क्षेत्रों में व्यक्ति को भीड़ से अलग करता है। मीडिया में भले ही व्यक्ति अपने या संस्थान के हितों के लिए विचारों या परिस्थितियों से समझौता करता हो; साहित्य में वह अपना विषय चुनने के लिए स्वतंत्र होता है। मीडिया में एक ़गलत तथ्य आपके पूरे काम को नु़कसान पहुंचा सकता है, इसके विपरीत लेखन में एक सही तथ्य आपके काम को न्यायोचित ठहराता है। लेकिन यह आपकी सृजनात्मक प्रतिबद्धता पर निर्भर करता है कि आप दोनों के साथ कैसा व्यवहार करते हैं। जहां मीडिया, तजरबे को विस्तार देता है, वहीं साहित्य न्याय और वैधता प्रदान करता है। अगर आज मीडिया टीआरपी या बाज़ार की कैद में है, तो बद़िकस्मती से अदब भी ऐसी ही घातक प्रवृत्तियों से दो-चार है। जहां त्वरित छपास, बैस्ट सेलर और पुरस्कारों की चाह में साहित्य हार रहा है; वहीं मीडिया भी बाज़ार की आसमानी ऊंचाई की अनगिन सीढि़यों पर हांफता नज़र आता है। लेकिन साहित्यकार और मीडियाकर्मी, अगर अपने आपको विलक्षण मानते हैं; तो वे न कभी समाज को समझ पाएंगे और न ही अनुभव कर पाएंगे। अगर समझेंगे और अनुभव नहीं करेंगे तो सृजन कैसे करेंगे? उनका अपने आपको आम आदमी से अलग कर देखना न्यायोचित नहीं। ऐसा होने पर मीडियाकर्मी और साहित्यकार विलक्षण प्राणी हो जाएंगे। मिसाल के लिए साहित्यकारों में प्रेम चंद, कृष्ण चंद्र, अमृता प्रीतम, ़कै़फी आज़मी, साहिर, ़फैज़, हरिशंकर परसाई आदि की बात करें तो, अगर वे आम आदमी की तरह अनुभूत नहीं करते तो इतना बेहतर कैसे लिखते? इसी तरह बाबर, शरद जोशी, कैलाश वाजपेयी या लीलाधर जगूड़ी को देखें तो वे पहले आम आदमी थे, फिर बादशाह, नौकरशाह या साहित्यकार। मीडिया के क्षेत्र में देखा जाए तो पी साईनाथ, प्रीतीश नंदी, बाल गंगाधर तिलक, मार्क टुली, महात्मा गांधी, अटल बिहारी वाजपेयी आदि कितने ही ऐसे नाम हैं, जिनका मीडियाकर्मी या पत्रकार होने के अलावा साहित्य में भी बराबर का द़खल है। जहां तक बाहरी या व्यावसायिक परिस्थितियों का प्रश्न है तो बाज़ार या सभ्य शब्दों में कहें, कॉरपोरेट जगत जब विश्व के शासनाध्यक्षों को भी नचा रहा है तो आम आदमी उससे कैसे अछूता रह पाएगा? लेकिन अहम सवाल है बतौर साहित्यकार उसकी ईमानदारी, निर्भयता, तटस्थता और निष्पक्षता का। अगर हाशमी को सरे-बाज़ार मारा जा सकता है, गौरी लंकेश को गोली अपना निशाना बना लेती है, जमाल ़खाशोगी को मौत सुरक्षित स्थान पर भी नहीं छोड़ती या पेरूमल मुरगन की तरह लेखक को अपनी मृत्यु की घोषणा करनी पड़ती है, तो इसका अर्थ है कि अभी समाज में बहुत कुछ किया जाना शेष है। अगर मीडियाकर्मी या साहित्यकार ऐसे सृजक हैं तो बाज़ार उनकी हैसियत नहीं तय कर सकता। उनके काल के गाल में समाने के बावजूद साहित्य और मीडिया समाज में बने रहते हैं। लेकिन इन तमाम समानताओं के बावजूद साहित्य और मीडिया में कई अंतर स्पष्ट नज़र आते हैं। साहित्य की परंपरा बेहद लंबी है, शायद समाज के जन्म से ही। अपनी बात कहने के लिए पहले मनुष्य ने चित्रों का सहारा लिया, फिर शब्दों का। लेखन से पहले मौखिक परंपरा के माध्यम से मानव ने अपने मन की बात कही। साहित्य, समाज के साथ वैसे ही रहता या पलता आया है, जैसे देह के साथ मन और आत्मा। लेकिन मीडिया कुछ सदी पुराना ही है; जबकि साहित्य आदि से समाज के साथ रहा है। मीडिया को माध्यम की दरकार होती है, जबकि साहित्य अपने आप खिलता है। समय के साथ कविता, गद्य में बदली और गद्य कई विधाओं में। इसी तरह अपने जन्म के बाद मीडियम या पत्रकारिता, ने कई रूप धारण किए। मीडियम से मीडिया बना और सोशल मीडिया के आने के बाद तो मानो वैश्विक परिदृश्य पूरी तरह ही बदल गया। तकनीकी या प्रौद्योगिकी ने आम मानव मस्तिष्क या मन को पूरी तरह ़कब्ज़ा लिया है।  इन तमाम बातों का दबाव साहित्य और मीडिया पर भी पड़ना अनिवार्य है। लेकिन इन सब कारकों के बीच जो बात दोनों ही शोबों के सृजकों को भीड़ से अलग करती है, वह है मानवीय संवेदनाएं। जब तक हृदय में संवेदनाएं हैं, साहित्य और मीडिया में मौलिकता बची रहेगी, नहीं तो यंत्रवत् कार्य होगा; जैसा आजकल प्रायः देखने में आ रहा है। इस बढ़ते तनाव को केवल सृजनात्मकता ही समाप्त कर सकती है। चाहे मीडिया हो या साहित्य, एक बात दोनों पर बराबर लागू होती है, वह है-स्वीकार्यता के लिए अस्वीकार्यता और फिर विवेक एवं तर्क के आधार पर स्वीकार्यता। मिसाल के लिए, विभिन्न समाजों, धर्मों और देशों में सृष्टि को लेकर विभिन्न मान्यताएं प्रचलित हैं। हिंदू धर्म जहां मनु की बात करता है, वहीं ईसाई धर्म एड्म और ईव की। संताल समाज के अनुसार पिलचू बूढ़ा और बूढ़ी सृष्टि के पहले पुरुष और स्त्री थे। इसी तरह विभिन्न समाजों में भिन्न-भिन्न तथ्यों और विषयों को लेकर भिन्न-भिन्न मान्यताएं प्रचलित हैं। लेकिन संवेदनाओं की शर्त पर ही न केवल मानवता बल्कि मीडिया और साहित्य भी विजयी हो सकते हैं। सीधे शब्दों में कहें तो मीडिया को उन विभिन्न भौतिक साधनों के रूप में परिभाषित किया जा सकता है, जिनसे सूचना का संप्रेषण किया जा सकता है। लेकिन साहित्य में साधन भौतिक भी हो सकते हैं और नहीं भी। मीडिया हो या साहित्य, दोनों दृश्य से ही उपजते हैं, चाहे दृश्य बाह्य हों या आंतरिक। दृश्य काल्पनिक हों या वास्तविक; पहले भाव उत्पन्न होता है, फिर विचार। चूंकि बाह्य सत्ता बदलती रहती है, ऐसे में भावों और विचारों का बदलना अनिवार्य है। लेकिन मीडिया में अधिकतर दृश्य बाह्य होते हैं, इसीलिए इसमें इतना वैविध्य देखने को नहीं मिलता, जितना साहित्य में है। लेकिन आज के परिदृश्य में दोनों जिस तरह ़कदमताल करते हुए चलते हैं, दोनों में अंतर कर पाना मुश्किल हो जाता है। लेकिन मात्र लिखने के लिए ही नहीं लिखा जाना चाहिए। साहित्य, स्वहित और समाज हित दोनों के लिए कहा जाना चाहिए। यही कर्त्तव्य मीडिया का भी है; लेकिन बाज़ार की उछल-कूद में दोनों ही, कहीं और भटके प्रतीत होते हैं। सीधे-सरल शब्दों में अगर समाज को देह माना जाए तो मीडिया, उसका मन हो सकता है और साहित्य, आत्मा। अनुभवों के आधार पर मीडिया को समाज का मन ही माना जा सकता है; क्योंकि मीडिया के पांच डब्ल्यू (हू, व्हाट, व्हेयर, व्हेन तथा व्हाई) और एक एच (हाउ) के आधार पर बाह्य दृश्य बनते हैं, जो स्थूल होते हैं; जबकि साहित्य के लिए केवल स्थूल विषय ही अनिवार्य नहीं। यह सूक्ष्म के आधार पर भी गढ़ा जा सकता है। मीडिया, विशेषकर पत्रकारिता में साकार का महत्त्व है; जबकि साहित्य में विषय कोई भी हो सकता है। समय के अभाव में मीडिया को जल्दी में रचा हुआ; जबकि साहित्य को परिष्कृत माना जाता है। मीडिया, समाज से उपजा है और अगर समाज में विसंगतियां हैं, तो मीडिया भी उससे अछूता नहीं रहेगा; क्योंकि समय के दबाव में मीडिया पर अन्य तमाम कारक प्रभावी होंगे। लेकिन समाज से उपजने के बावजूद साहित्य इससे अछूता रह सकता है। त्वरित रचना में कमियां रहना स्वाभाविक है; जबकि धैर्य (साहित्य) के साथ सृजित कर्म में ऐसा ़कतई नहीं होना चाहिए। लेकिन जब मानवीय ऐषणाएं सृजन में शामिल हो जाती हैं, तो नैसर्गिकता का पतन होना स्वाभाविक है।

साहित्य में डुबकी लगाकर खूब आनंद लिया

साहित्यकारों की दृष्टि में वर्ष 2018 किस प्रकार रहा तथा इस वर्ष में उनकी गतिविधियां क्या-क्या रहीं, इस विषय में हमने प्रदेश भर के कई साहित्यकारों से बातचीत की। कई साहित्यकारों ने कहानी का आनंद लिया तो कुछ ने कविता का रसास्वादन किया। साथ ही साहित्यकारों ने अगले वर्ष की अपनी योजनाएं भी साझा की। पेश है साहित्यकारों की गतिविधियों पर तीसरी किस्त :

महेंद्र पाल

जिला ऊना के साहित्यकारों से कई सवालों को लेकर चर्चा की गई। साहित्यकार महेंद्र पाल इस साल काफी साहित्य पढ़ चुके हैं। वहीं, कई कविताएं या फिर लघु रचनाएं इन्होंने लिखी हैं। भविष्य में भी वह साहित्य को बढ़ावा देने के लिए प्रयास करेंगे। महेंद्र पाल अभी तक जीवन का समाधान, डा. हेडगेवार (जीवनी), साधक पाथेय (स्वामी रामदेव जी) आदि साहित्यिक सामग्री पढ़ चुके हैं। वहीं उन्होंने डा. बालकृष्ण सोनी के काव्य संग्रह की भूमिका एवं आलोचना की है। इसके अलावा कुछ छोटी कविताएं एवं लघुतर रचनाएं (अप्रकाशित) लिखी हैं। वह अभी भी कविताएं लिखने की क्षमता रखते हैं। कविताओं के माध्यम से आम जनता को जागरूक करते हैं। साथ ही मातृवंदना, क्षितिज, लकीरों के घिराव में (प्रेम पखरोलवी), गीतालोक  (कनखल, हरिद्वार ) सहित अन्य पत्रिकाओं पर नजर है।

कुलदीप शर्मा

ऊना के साहित्यकार कुलदीप शर्मा का कहना है कि साहित्यिक गतिविधियों के नाम पर वर्ष 2018 भी उतना ही फीका रहा जितना कि वर्ष 2017 रहा था। राष्ट्रीय परिदृश्य को छोड़कर अगर प्रदेश की बात करें तो अधिकतर समय आपसी तालमेल बिठाने, खेमेबंदी को नकारने और उसे अधिक पुख्ता करने में ही लगा। कुछ बड़ी साहित्यिक हस्तियों के निधन के बाद शोक प्रकट करने और एकाध आयोजन करने की रस्म अदायगी हुई। उनका कहना है कि इस साल साहित्यिक पत्रिकाओं यथा-वसुधा, तद्भव, जलसा, कथादेश, समकालीन साहित्य, पल प्रतिपल, वागर्थ, हंस, पाखी, नया ज्ञानोदय आदि को पढ़ने का अवसर मिला। साहित्यिक कृतियों में उन्होंने गौर से इस साल केवल तीन-चार नए कहानीकारों के कहानी संग्रह और मांग कर प्रदीप सौरभ का मुन्नी मोबाइल पढ़ा। अंधेरे में हंसी (योगेंद्र आहूजा) और तीतर फांद (सत्यनारायण पटेल) ने उन्हें बहुत प्रभावित किया। कुलदीप शर्मा के अपने दो कविता संग्रह तैयार हैं। उन्हें प्रकाशित करने की योजना है। देर से टल रहा अंधायुग का मंचन भी अब अगले साल की योजनाओं में ही रहेगा। वर्ष 2019 में सुरेश निशांत, पीयूष गुलेरी, मधुकर भारती जैसे हिमाचली साहित्यकारों पर कोई सार्थक आयोजन करने का प्रयास भी रहेगा।

जाहिद अबरोल

साहित्यकार जाहिद अबरोल का मानना है कि हर लेखक को लिखना कम और पढ़ना अधिक चाहिए। साल में 50 से 70 किताबें पढ़ना इनके लिए आम बात है। पुराने उस्ताद शायरों के कलाम को भी दोहराते रहते हैं। इस साल साहित्यकार जाहिद अबरोल ने कुल्लियातें, मुनीर नियाजी, दीवाने हाली, बीडी कालिया, हमदम साहिब की बड़ी तहजीब है, उर्दू भाषा में राशिद अरफी की रुखसते सफर, कैनेडा में मुकीम पाकिस्तानी शाइरा नसरीन सई की धनक एवं तरंग पढ़ीं। इसके अलावा हिंदी में जयुपर के नीरज गोस्वामी की 51 किताबें गजलों की, डाली भोगरे के अलावा राधे मोहन राय की उर्दू साहित्य में हिंदू साहित्यकारों का योगदान छठा खंड, बदाऊं के अशोक खुराना द्वारा संपादित आंसू और एक तू ही सहित दर्जनों किताबें पढ़ी। साहित्यकार जाहिद अबरोल के अनुसार मरहूम जिगर बरेलवी के बेटे जनाब राधे मोहन राय की पुस्तक पढ़ने में उन्हें खूब आनंद आया। पहले पांच खंड वह पढ़ चुके हैं। जाहिद अबरोल ने इस साल उर्दू में मंजूम ड्रामा (काव्य, नाटक) अंबपाली का सृजन शुरू किया है। इसे लिखने में दो या तीन वर्ष का समय लगेगा। इसमें ईसा पूर्व भारत के एक प्राचीनतम गणतंत्र वैशाली की बेटी अंबपाली की व्यथा का चित्रण होगा, जो महात्मा बुद्ध की समकालीन थी। जाहिद उर्दू के अलावा हिंदी के समकालीन भारतीय साहित्य पर नजर रखते हैं।

-प्रस्तुति : अनिल पटियाल


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