अनर्थ की बेईमान चाल

By: Jan 13th, 2019 12:04 am
भारत भूषण ‘शून्य’, स्वतंत्र लेखक

आपकी वेदना ही आपको सबसे बड़ा दुख लगे और आपकी संवेदना का दायरा भी अपने में सिमट कर रह जाए तो तय है कि जिंदगी का कौआ सिर्फ कांव-कांव कर रहा है। मन की गहरी वादियों में किसी कोयल का कोई गीत बजने की सभी संभावनाओं को विराम लगा दिया गया है। जीवन की निरंतरता में हमने रेत के टीलों को अपना स्थायी धाम बना लिया है। अपने आप की सीमाओं में अपने आप को बांधने का यह प्रपंची खेल हमारी सच्ची जादूगरी को सदियों से पराजित करता आया है। सत्ता से सेवा करने की एकमात्र महत्त्वाकांक्षा ने हमें अहंकार की चरखी से बंधी उस पतंग-सा कर दिया है जो अंततः कटने और फटने की दिशा से कभी अलग नहीं हो सकती। मानव होने का सौंदर्य इसी अहमन्यता के ग्रहण से सनातनी ओझल होता रहेगा। नेतृत्व करने की भूख से पीडि़त होने का मतलब है अपनी कथित योग्यताओं का बखान करते फिरना। श्रोता हुए बिना अच्छे वक्ता की गुंजाइश हमेशा न के बराबर रहेगी।

कानों को बंद कर लेने के बाद उच्चारित शब्दों का अनर्थकारी होना निश्चित हो जाता है। जिसे आप अर्थ देने की कोशिश में हैं, वह तब तक किसी मायने को नहीं पकड़ सकता जब तक आप की सहजता आपके साथ खिलने न लगे। आपकी वेदना का दायरा अपने खोल से बाहर न आ जाए। आपकी संवेदनाएं आपके पड़ोसी से यात्रा शुरू कर ब्रह्मांड को आलिंगन लेने में सात्विक उत्सुकता का छोर न छूने लगें। आपका सौंदर्य किन्हीं ‘सेल्फियों’ के मोहपाश से आगे निकलने से मना कर रहा है तो जान लीजिए कि मन का घोड़ा अभी सिर्फ हिनहिना रहा है। दौड़ की बेईमानी को धता बताने के लिए मन के आवास से बाहर निकलना पड़ेगा। दूसरों के तन की और मन की जाने बिना किसी सेवाभाव को कोई मंजिल नहीं मिलेगी। यह खुद के खुरदरे खूंटे को छोड़े बिना कभी संभव नहीं और इसे हम छोड़ने को कभी राजी नहीं होते।


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