गंगा की सफाई कम, बातें ज्यादा

By: Jan 2nd, 2019 12:08 am

अमिता भादुड़ी

स्वतंत्र लेखिका

वर्ष 2016 में सरकार ने ‘नमामि गंगा’ परियोजना का प्रारंभ बड़ी धूमधाम, प्रचार-प्रसार के साथ किया था। ‘नमामि गंगा’ परियोजना की प्रगति पर ‘कंट्रोलर एंड आडिटर जनरल’ (कैग) की रिपोर्ट बताती है कि इसके लिए आबंटित बजट का पूर्ण उपयोग नहीं किया गया। साथ ही  वर्ष 2014-15 और 2016-17 की परियोजना संबंधी मंजूरी एवं बजट की मंजूरी में विलंब हुआ। तरह-तरह के रंगों, झंडों वाली सरकारों, दिन-रात ‘मां-मां’ की पाखंडी गुहार लगाते समाज और किनारे के उद्योगों से भरपूर मुनाफा काटते सेठों की कारगुजारियों ने गंगा को दुनिया की सर्वाधिक प्रदूषित नदी में तब्दील कर दिया है। कमाल यह है कि सरकारी खजाने से उसे साफ करने की मद में भी ढेरों-ढेर पैसा बर्बाद किया जा रहा है…

गंगा की सफाई को लेकर केवल बातें हो रही हैं। इस मद में करोड़ों रुपए खर्च भी किए जा रहे हैं, किंतु फिर भी इस नदी के प्रदूषण के स्तर में कोई सुधार नहीं हो रहा है। मानव निर्मित तटबंध, पनबिजली के लिए बड़े बांध, सिंचाई व जल परिवहन हेतु बनाए गए छोटे-बड़े ढांचे आदि के कारण नदी के प्राकृतिक प्रवाह में रुकावट होती है एवं नदी का बर्फीलापन समाप्त हो जाता है। तीर्थयात्रियों की भीड़ इस पवित्र नदी के तट पर अपनी श्रद्धा व भक्ति प्रकट करने के लिए उमड़ती है, पर उन्हें गंदगी, मल या कूड़ा इसमें प्रवाहित करने में कोई हिचक नहीं होती। गंगा के किनारे बसे गांव व शहरों की मल-जल निकास की नालियां तथा औद्योगिक कचरा ज्यादातर बिना साफ किए गंगा में डाल दिया जाता है। इसके चलते गंगा दुनिया की दूसरी सबसे प्रदूषित नदी बन गई है। गंगा सैकड़ों शहरों, गांवों के लगभग पचास करोड़ लोगों तक अपना पानी पहुंचाती है, जो दुनिया की किसी भी नदी की तुलना में अधिक है।

इसी गंगा के पानी के स्रोत में निरंतर गिरावट आ रही है। गोमुख जो गंगोत्री ग्लेशियर का मुहाना है, वर्ष 1971 के बाद से तेजी से पीछे खिसक रहा है। वर्षा की मात्रा में बढ़ोतरी, तापमान में वृद्धि एवं हिमपात में कमी के कारण ग्लेशियर पिघल रहे हैं, जिससे छोटी बर्फीली झीलें बन गई हैं। चोरबारी में ऐसी ही झील बन जाने के कारण जून 2013 में केदारनाथ में बाढ़ की विनाशलीला देखने को मिली थी। एक रिपोर्ट के अनुसार गंगा और उसकी सहायक नदियों पर लगभग 300 बांध प्रस्तावित हैं, जबकि वर्ष 2012 में सरकार द्वारा ही गठित ग्रीन पैनल ने इनमें से कम से कम 34 बांधों को पर्यावरण की खातिर निरस्त करने का सुझाव दिया था। जैसे-जैसे गंगा मैदानी क्षेत्र में उतरती है, इसमें नगर निगम की नालियों का मलयुक्त पानी (सीवेज), औद्योगिक कचरा, विशेषतः रासायनिक कचरा जो सैकड़ों चर्मालयों, रासायनिक प्लांट, कपड़ा मिल, कोयला प्लांट, कसाईखानों एवं अस्पतालों आदि से निकलता है, को गंगा में सीधे छोड़ दिया जाता है। इस परिस्थिति से निपटने के लिए बनी ‘गंगा एक्शन प्लान’ से लेकर ‘नमामि गंगे’ तक गंगा के कायाकल्प की सरकारी योजनाएं त्रुटिपूर्ण हैं। ‘गंगा एक्शन प्लान’ वर्ष 1985 में प्रारंभ किया था, लेकिन काम नहीं होने के कारण इसकी अवधि को दो बार बढ़ाया गया। विश्व के सबसे महत्त्वाकांक्षी इस नदी सफाई कार्यक्रम में तीस वर्षों में करोड़ों रुपए खर्च किए गए, फिर भी नदी प्रदूषित बनी रही। 85 प्रतिशत प्रदूषण मलयुक्त जल को नदी में प्रवाहित करने से होता है, जबकि पचास करोड़ लीटर अन-उपचारित औद्योगिक कचरा प्रतिदिन इस नदी में डाल दिया जाता है।

यह मनुष्य और पर्यावरण दोनों के लिए एक बड़ा खतरा है। नदी के प्रवाह को बनाए रखने के प्रयास नहीं के बराबर होते हैं, जिसके कारण नदी ने प्रदूषण साफ करने की अपनी क्षमता खो दी है। मलयुक्त जल के परिशोधन के लिए बनाए गए संयंत्र, जो ‘गंगा एक्शन प्लान’ की नीति का प्रमुख हिस्सा थे, त्रुटिपूर्ण कार्ययोजना, अधूरे क्रियान्वयन, बिजली की अपर्याप्त आपूर्ति एवं क्षमता से कम के संयंत्र लगने के कारण बेकार हो गए। कानपुर का परिशोधन यंत्र त्रुटिपूर्ण डिजाइन के कारण शुरू ही नहीं हो पाया और गुरुत्वाकर्षण पर आधारित नालियां मल-जल व रसायन युक्त पानी को परिशोधन के पश्चात गंगा तक नहीं पहुंचा पा रही हैं। वर्ष 2009 में एक नई समिति ‘राष्ट्रीय गंगा नदी घाटी प्राधिकरण’ (नेशनल गंगा रिव्हर बेसिन अथारिटी) का गठन किया गया। इस समिति को गंगा की सफाई के लिए सात हजार करोड़ रुपए दिए गए। पर्यावरण एवं वन पर वर्ष 2015 में बनाई गई एक संसदीय समिति के अनुसार यह योजना असफल रही। क्योंकि गंगा के जल की गुणवत्ता में कोई उल्लेखनीय सुधार नहीं हुआ, बल्कि यह दिनों-दिन खराब होती जा रही है। ‘इंडियन इंस्टीच्यूट आफ टेक्नोलॉजी’ (आईआईटी) की एक समिति, जिसे ‘गंगा नदी घाटी प्रबंधन परियोजना’ पर अपने सुझाव देने थे, के अनुसार गंगा के पानी की कुल मात्रा के कम से कम 30 से 35 प्रतिशत पानी का एक निश्चित न्यूनतम प्रवाह बनाए रखने की आवश्यकता है। इस न्यूनतम प्रवाह को बनाए रखने के कोई प्रयास नहीं हुए और प्रधानमंत्री के गंगा की सफाई के संकल्प के बावजूद कहीं भी गंगा की सफाई दिखाई नहीं दे रही है। वर्ष 2016 में सरकार ने ‘नमामि गंगा’ परियोजना का प्रारंभ बड़ी धूमधाम, प्रचार-प्रसार के साथ किया था। ‘नमामि गंगा’ परियोजना की प्रगति पर ‘कंट्रोलर एंड आडिटर जनरल’ (कैग) की रिपोर्ट बताती है कि इसके लिए आबंटित बजट का पूर्ण उपयोग नहीं किया गया। साथ ही  वर्ष 2014-15 और 2016-17 की परियोजना संबंधी मंजूरी एवं बजट की मंजूरी में विलंब हुआ। तरह-तरह के रंगों, झंडों वाली सरकारों, दिन-रात ‘मां-मां’ की पाखंडी गुहार लगाते समाज और किनारे के उद्योगों से भरपूर मुनाफा काटते सेठों की कारगुजारियों ने गंगा को दुनिया की सर्वाधिक प्रदूषित नदी में तब्दील कर दिया है। कमाल यह है कि सरकारी खजाने से उसे साफ करने की मद में भी ढेरों-ढेर पैसा बर्बाद किया जा रहा है। फिलहाल सरकार का इरादा गंगा की मार्फत परिवहन का है और इसके लिए पर्यावरण जैसे जरूरी अनुमोदन तक को ठेंगे पर मार रही है।

सरकार अब परियोजना में अपने खर्च में शहरों व महानगरों में मल-जल निकास तंत्र के स्थान पर जलमार्ग को प्राथमिकता दे रही है। सरकार इस बात पर बहुत अधिक जोर दे रही है कि गंगा को एक जल परिवहन मार्ग में बदल दिया जाए। नदी की गहराई को एक समान बनाने के लिए उसके तल को खोदना जलमार्ग के हिसाब से जलधारा को नियंत्रित करना एवं नदी के प्रवाह को सीधा रखना, बांध (बैराज) बनाना, खुलने-बंद होने वाले गेट बनाना, अंतिम छोर पर टर्मिनल बनाना और तटबंधों को पक्का करना आदि के लिए नदी की पारिस्थितिकी से छेड़छाड़ अन्यायपूर्ण व भयावह सिद्ध होगी। इस जलमार्ग परियोजना का कार्य ‘पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन’ मंत्रालय के अनुमोदन के बिना जारी है। कहा जा रहा है कि अंतरदेशीय जल परिवहन मार्गों के रखरखाव के लिए खुदाई करने हेतु मंत्रालय से अनुमोदन अनिवार्य नहीं है। इस प्रकार की जल परिवहन परियोजना ‘नमामि गंगा’ प्रोजेक्ट पर प्रतिकूल प्रभाव डालेगी।

‘इंडियन इंस्टीच्यूट आफ टेक्नोलॉजी’ की समिति, ने भी इन परिवहन परियोजनाओं पर आपत्ति व्यक्त की है। नदी की पारिस्थितिकी को बहाल करने के लिए इस समिति ने नदी के किनारे की खेती को सीमित करने, शोर मचाने वाले जहाजों एवं नदी तल को खोदने व नदी के किनारों में परिवर्तन पर रोक लगाने का सुझाव दिया है। नदी के प्राकृतिक (पारिस्थितिक) प्रवाह को बनाए रखने, औद्योगिक प्रदूषण के मापदंडों को कड़ा करने और पारंपरिक मल-जल निकास तंत्र पर पुनर्विचार की आज भारी आवश्यकता है।


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