प्रकृति के तांडव का इंतजार क्यों?

By: Jan 9th, 2019 12:05 am

तिलक सिंह सूर्यवंशी

लेखक, चंबा से हैं

प्रकृति के बदलते मिजाज पर बड़ी-बड़ी चर्चाएं होती हैं, लेकिन इसके सही रखरखाव में मनुष्य के दायित्व को समझते हुए ठोस नीति निर्धारित करने में कोई विशेष पहल नहीं की गई है। अतः अब भी समय है कि हम इस समस्या को गंभीरता से समझें और इसके दुष्परिणामों से बचने तथा विश्व को महाप्रलय की चपेट में आने से बचाने के लिए सजग हो जाएं। पर्यावरण के प्रति अगर हमारा यही रवैया रहा तो, हमें इसके तांडव को देखने के लिए हमेशा तैयार रहना होगा…

जिस प्रकार मनुष्य के जीवन में हवा-पानी का महत्त्व है, उसी प्रकार शिक्षा के बिना भी मनुष्य का जीवन सार्थक नहीं। शिक्षा के बिना (अशिक्षित) मनुष्य पशु के समान जीवन जीता है और समाज के साथ-साथ पृथ्वी पर भी बोझ होता है। शिक्षा मनुष्य की न केवल जीवनयापन संबंधी साधनों को प्राप्त करने का माध्यम मात्र है, बल्कि शिक्षा मनुष्य को इस जीव और निर्जीव जगत के विभिन्न पहलुओं का ज्ञान कराती है। शिक्षा मनुष्य के जीवन की वह प्रक्रिया है, जिसे वह अपनी बाल्यावस्था से प्रारंभ करता है और जीवन की अंतिम सांस में उसका साथ छोड़ता है। अतः शिक्षा को मनुष्य के व्यक्तिगत, सामाजिक तथा संपूर्ण प्राणी जगत के लिए उपयोगी बनाने में विद्यालय शिक्षा का विशेष महत्त्व है। यह देखा गया है कि विद्यालय शिक्षा का प्रभाव मनुष्य के जीवन में उसके अंतिम क्षणों तक बना रहता है और उसके प्रत्येक कार्य में विद्यालय की शिक्षा प्रतिलक्षित होती है।

इसलिए विद्यालय शिक्षा को मानव कल्याण और प्राणी जगत के प्रत्येक पहलू से संबंधित होना चाहिए। बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध के शुरू में ही विश्व के विद्वानों और वैज्ञानिकों ने विश्व स्तर पर पर्यावरण असंतुलन की समस्या से अवगत करवा दिया था, लेकिन इसको रोकने और नियंत्रित करने के लिए यहां तक कि इस असंतुलन के कारणों से आम जनता को जागरूक करने के लिए किसी तरह की कोई ठोस नीति नहीं बनाई गई। विश्व की बढ़ती आबादी के साथ-साथ यह समस्या संक्रमण की तरह बढ़ती गई और आज समस्या अति गंभीर स्थिति में पहुंच चुकी है। आज स्थिति यह है कि विश्व के बड़े महानगरों में लोगों को शुद्ध हवा के लिए मास्क और कई अन्य आधुनिक यंत्रों का प्रयोग करना पड़ता है। यदि समस्या के प्रति मनुष्य का (राज्य, देश और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर) यही दृष्टिकोण रहा, तो यह अवस्था शहरों से चलकर गांवों तक भी व्याप्त हो जाएगी। मनुष्य की स्वयं की लापरवाही का ही परिणाम है कि उसे प्रकृति द्वारा प्रदान की गई हवा के लिए भी धन खर्च करना पड़ रहा है। आज मनुष्य शुद्ध प्राकृतिक जल को छोड़कर महीनों भर से बोतलों में बंद मिनरल वाटर पीने के लिए मजबूर है। उसके अनुसार यह पानी प्राकृतिक पानी से अधिक सुरक्षित है, जबकि प्रकृति ने सब मिनरल इस धरती में स्वयं संजोए हैं। फिर भी मनुष्य बोतल बंद (हवा बंद) पानी को मिनरल फुल मानता है,  क्या यही हमारी शिक्षा है?

आज मनुष्य ओजोन परत में छेद होने और ग्रीन हाउस प्रभाव की बात विश्व स्तर पर अंतरराष्ट्रीय मंचों पर कर रहा है, लेकिन दूसरी तरफ रॉकेट लांचर प्रक्षेपास्त्र, आकाश भेदी मिसाइलें, परमाणु और आणविक शस्त्रों का परीक्षण तथा पृथ्वी पर ग्रीन हाउस निर्माण करने में रात-दिन जुटा है। क्या यह सब होते हुए भी यह माना जाए कि मनुष्य वास्तव में पर्यावरण असंतुलन के प्रति चिंतित है? यह मात्र एक ढकोसला है। इससे ऐसा मालूम होता है कि या तो हमारी सरकार तथा नीति निर्धारक इस समस्या की वास्तविकता से अनभिज्ञ हैं या फिर मात्र औपचारिकता निभा रहे हैं। हर वर्ष राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मंच पर ग्लोबल कान्फे्रंस आयोजित की जाती है। प्रकृति के बदलते मिजाज पर बड़ी-बड़ी चर्चाएं होती हैं, लेकिन इसके सही रखरखाव में मनुष्य के दायित्व को समझते हुए ठोस नीति निर्धारित करने में कोई विशेष पहल नहीं की गई है। और तो और भावी पीढ़ी को इसके प्रति अधिक जागरूक करने तथा इसके दुष्परिणामों से बचने के लिए इस समस्या की विस्तृत जानकारी के लिए इसे विद्यालय शिक्षा पाठ्यक्रम में उच्च शिक्षा के स्तर पर सम्मिलित करने की पहल नहीं हुई है। जहां कहीं इस विषय के संबंध में पाठ््यक्रम में थोड़ा बहुत जिक्र है, वहां इसकी विषयवस्तु ही बदली हुई है।

आज पर्यावरण असंतुलन के कारण अनेक वनस्पति प्रजातियां खत्म हो गई हैं या लुप्त हो गई हैं। जीव-जंतु भी प्रायः लुप्त हो रहे हैं। जल और वायु में विषाक्त तत्त्व इस हद तक मिल गए हैं कि इनके प्रभाव से सजीव जगत में बीमारियों का बोलबाला हो गया है। अनेक कृषि उपजें इससे प्रभावित हुई हैं और अनेक प्राकृतिक आपदाएं इस धरती पर मुंह बाए खड़ी हैं।

मनुष्य प्रकृति का बच्चा है और बच्चे को संस्कार उसके घर और परिवेश से प्राप्त होते हैं अथवा उसी पर निर्भर करते हैं। इसलिए वर्तमान परिस्थितियों में बढ़ते आतंकवाद, भ्रष्टाचार, अपराध मनुष्य के मानसिक प्रदूषण का ही कारण हैं और यह उसे प्रकृति से संस्कार के रूप में मिला है। अतः अब भी समय है कि हम इस समस्या को गंभीरता से समझें और इसके दुष्परिणामों से बचने तथा विश्व को महाप्रलय की चपेट में आने से बचाने के लिए सजग हो जाएं अन्यथा अब तक जो विनाशक घटनाएं देखने को मिल रही हैं, वह तो महज ट्रेलर मात्र हैं। पर्यावरण के प्रति अगर हमारा यही रवैया रहा तो, हमें इसके तांडव को देखने के लिए हमेशा तैयार रहना होगा।


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