वर्षा आधारित कृषि व्यवस्था को सुधारें

By: Jan 7th, 2019 12:08 am

कुलभूषण उपमन्यु

लेखक, हिमालय नीति अभियान के

पहली, 84.5 प्रतिशत जोतें इतनी छोटी हैं कि उन्हें आर्थिक रूप से लाभदायक बनाने के लिए निश उत्पादों जैसे बेमौसमी सब्जियां, विशिष्ट फल, जड़ी-बूटियां आदि के उत्पादन को प्रोत्साहित करना। दूसरी, विशिष्ट उत्पादों के लिए सिंचाई व्यवस्था का होना जरूरी है। तीसरी, जहां सिंचाई संभव नहीं हो, वहां असिंचित कृषि के लिए वैज्ञानिक पद्धतियों का विकास जरूरी है…

हिमालयी राज्यों में कृषि भूमि कुल क्षेत्रफल के 10 प्रतिशत के लगभग है, जिसमें से मुश्किल से 20 प्रतिशत ही सिंचित है। अतः हिमालयी राज्यों में कृषि के सुधार के लिए 80 प्रतिशत वर्षा पर आधारित कृषि भूमियों पर विशेष ध्यान देकर ही पर्वतीय किसानों का कुछ भला किया जा सकता है। हिमाचल के उदाहरण से इस स्थिति  को समझने का प्रयास करते हैं। हिमाचल प्रदेश का कुल क्षेत्रफल 55 लाख 67 हजार हेक्टेयर है। इसमें से सकल कृषि क्षेत्र 9.51 लाख हेक्टेयर है, किंतु शुद्ध बीजाई के अंतर्गत क्षेत्र 5.38 लाख हेक्टेयर ही है, क्योंकि बहुत से क्षेत्र घासणी और वृक्ष खेती के अंतर्गत आते हैं। कई क्षेत्र कृषि भूमि होते हुए भी कृषि करने योग्य नहीं हैं। कुल कृषक परिवार 8.63 लाख हैं। इनमें से 84.5 प्रतिशत कृषक लघु और सीमांत कृषक हैं, जिनकी जोतों का औसत आकार 1 हेक्टेयर से कम है। 2 लाख 26 हजार हेक्टेयर क्षेत्र में बागबानी हो रही है। 75 हजार हेक्टेयर में सब्जी उत्पादन हो रहा है। उपरोक्त आंकड़ों से दो-तीन बातें उभर कर आती हैं। पहली, 84.5 प्रतिशत जोतें इतनी छोटी हैं कि उन्हें आर्थिक रूप से लाभदायक बनाने के लिए निश उत्पादों (जो केवल यहीं हो सकते हैं) जैसे बेमौसमी सब्जियां, विशिष्ट फल, जड़ी-बूटियां आदि के उत्पादन को प्रोत्साहित करना। दूसरी, विशिष्ट उत्पादों के लिए सिंचाई व्यवस्था का होना जरूरी है।  तीसरी, जहां सिंचाई संभव नहीं हो, वहां असिंचित कृषि के लिए वैज्ञानिक पद्धतियों का विकास। चौथी, उपलब्ध सिंचाई के स्रोतों को बचाना, जो स्रोत सूख रहे हों, उन्हें पुनर्जीवित करने के प्रयास करना और कृषि कार्य के लिए सहयोगी वानिकी व्यवस्था खड़ी करना।

पर्वतीय क्षेत्रों की भौगोलिक विविधता को देखते हुए छोटे-छोटे स्तर पर उस इलाके के अनुरूप उपयुक्त निश उत्पादों की खोज और उसके लिए छोटे-छोटे खोज और प्रदर्शन फार्म बनाकर किसानों को रास्ता दिखाना जरूरी कार्य बन जाता है, जिसकी ओर पर्याप्त ध्यान दिया जाना चाहिए। छोटी-छोटी जोतें कई मामलों में इतनी छोटी हो गई हैं कि उन पर आर्थिक रूप से लाभकारी और व्यावहारिक योजना बनाना संभव नहीं होता है। इस कारण बहुत सी जोतें अकृष्य रहने लगीं हैं। लोग काश्तकारी कानून के कारण जमीन की मिलकीयत काश्तकार के नाम तबदील हो जाने के डर से जमीन को खाली छोड़ना बेहतर समझते हैं। कम से कम संपत्ति बची तो रहेगी, जिसे जरूरत पड़ने पर उपयोग किया जा सकता है या बेचा जा सकता है। इस स्थिति से बचने के लिए भूमि लीज पर देने के आसान कानून बनाने की जरूरत है। इससे सीमांत किसान जो आर्थिक व्यवहार्यता न होने के कारण जमीन खाली छोड़कर कोई अन्य कार्य करने को बाध्य होते हैं, वे अपनी भूमि लीज पर देकर कुछ लाभ कमा सकते हैं और लीज धारक आर्थिक रूप से व्यवहार्य जोत बनाकर रोजगार खड़ा कर सकते हैं। निश उत्पादों की खेती के लिए कई उत्पादों के लिए सिंचाई का होना बहुत जरूरी होता है। ऐसी अवस्था में जरूरी हो जाता है कि कम होते जल संसाधनों से ज्यादा से ज्यादा भूमि की सिंचाई की व्यवस्था की जाए। इसके लिए उठाऊ सिंचाई योजनाओं को प्रोत्साहन देना और बहाव सिंचाई वाले क्षेत्रों सहित, ड्रिप और स्प्रिंकलर सिंचाई व्यवस्था पर जोर दिया जाना चाहिए। बहुत से ऐसे क्षेत्र हैं, जो कहने को तो सिंचित हैं, किंतु उनके आखिरी छोर तक पानी पहुंचता ही नहीं है। इसका उदाहरण चंबा और कांगड़ा की कई कूहलें हो सकती हैं, जैसे कांगड़ा की कृपाल चंद कूहल और चंबा की खग्गल कूहल। हिमाचल प्रदेश में इन इलाकों के लिए व्यावहारिक योजना का अभाव दिखाई देता है। कमोबेश अन्य हिमालयी राज्यों की भी यही स्थिति है। इन क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर वर्षा जल संग्रहण के लिए टैंक निर्माण करना चाहिए।

अकसर देखा जाता है कि ऐसी योजनाएं यदि कहीं बनती भी हैं, तो केवल दिखावटी मात्रा तक ही सीमित रहती हैं। कई जगह टैंक बने तो उनमें पानी ही नहीं ठहरता और कई जगह पानी है, परंतु उससे कृषि कार्य में वांछित बदलाव नहीं आता है। ऐसे क्षेत्रों के लिए ड्रिप सिंचाई व्यवस्था ही से कुछ लाभ हो सकता है। इसके अलावा ऐसी फसलों का चयन जो कम पानी मांगती हैं और ऐसी तकनीकों का प्रसार जो, नमी को संरक्षित रखने में उपयोगी हों उनका प्रसार होना चाहिए, जैसे खेतों के ऊपरी मेंड के साथ छोटी-छोटी खाई बनाकर उसे घास-कचरे आदि से भरकर वर्षा जल को ज्यादा मात्रा में जमीन में सोखने की व्यवस्था की जा सकती है। इससे खेत की नमी ज्यादा समय तक बनी रह सकती है। जिन फसलों में मल्चिंग की जा सके इसका उपयोग बढ़ाना चाहिए। इससे नमी को बचाया जा सकता है। जैविक कृषि अपनाई जानी चाहिए।

जीरो बजट खेती को इन दिनों अच्छा विकल्प माना जा रहा है, क्योंकि इस विधि से थोड़ी मात्रा में गोमूत्र और गोबर से ज्यादा क्षेत्र में अच्छी उपज ली जा सकती है। इससे जमीन की उपजाऊ शक्ति लगातार बढ़ती जाती है और जमीन भुरभुरी बनती है, इससे जमीन की पानी सोखने और उसे संरक्षित रखने की क्षमता बढ़ जाती है। पानी के स्रोतों के संरक्षण पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है और इसके लिए पुरानी वाटर शैड विकास तकनीक के मुकाबले अब स्प्रिंग शैड विकास तकनीक को ज्यादा सटीक और उपयोगी पाया गया है, जिसके अंतर्गत जल स्रोत में पानी कहां से आपूरित हो रहा है, उस स्थान को भूगर्भ विज्ञान की मदद से चिन्हित किया जाता है और उस स्थान पर जल आपूरित करने की क्षमता को बढ़ाने वाले कार्य किए जाते हैं। वनों में पशुओं के लिए पर्याप्त चारा उत्पादन की व्यवस्था करना और मल्चिंग के लिए सड़ने वाली पत्तियों का उत्पादन करना और पानी सुखाने वाली प्रजातियों का रोपण नहीं करना, कुछ जरूरी कार्य सहयोगी हो सकते हैं।


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