विश्वकर्मा पुराण

By: Jan 19th, 2019 12:05 am

हे सूतजी! हे सब पुराणो के सार को जानने वाले कालवयन के तथा जरासंध दोनों की तरफ से उत्पन्न हुए भय के कारण अपनी प्रजा का रक्षण करने के लिए श्रीकृष्ण ने समुद्र में एक उत्तम किला बनाया था। उस किले में द्वारका नाम का नगर बसाया। इस प्रकार हमने सुना है, तो हे सूतजी श्रीकृष्ण को प्रिय लगने की इच्छा से समुद्र के बीच में अनेक उत्तम आवासों से युक्त ऐसी द्वारका नगरी को श्रीविश्वकर्मा ने किस तरह स्थापित किया। आप हमें वे सब बताने की कृपा करें। हे सूतजी! प्रभु की लीलाओं तथा गुणानुवादों से भरे हुए तुम्हारे वचन सुनकर हमको अत्यंत हर्ष होता है तथा उन वचनों को बार-बार सुनकर भी हमारी तृप्ति नहीं होती, परमात्मा की लीलाओं का गान करने वाले तुमको धन्य है। ऋषियों के इस प्रकार के वचन सुनकर सूतजी बोले, हे ऋषियों! प्रभु की लीलाएं अलौकिक हैं तथा उनका पार नहीं, फिर भी तुमने प्रश्न किया है, इसलिए द्वारकावती के निर्माण की कथा मैं तुमसे कहता हूं। पहले भगवान ने पृथ्वी का भार उतारने के लिए वासुदेव के यहां देवकी के उदर से श्रीकृष्ण रूप से जन्म धारण किया था तथा नंदराय के यहां जसोदा रानी के प्रेम आश्रम में उन्होंने अपना बालपन व्यतीत किया था और अति दुष्ट ऐसे अपने मामा कंस का उन्होंने नाश किया था। कंस का ससुर जरासंध अत्यंत पराक्रमी था, बहुत बड़ी सेना का अधिपति था, फिर भी और अनेक बलवान राजा जरासंध के ऋणि थे। ये जरासंध भगवान के साथ सत्रह बार लड़ा था तथा हर बार हारा था, परंतु अठारहवीं बार जब वह भगवान के साथ युद्ध करने आया, तब कालयवन नाम का एक म्लेक्ष भी यादवों के अत्यंत बल को जानकर उनके साथ युद्ध करने के लिए आ पहुंचा था। श्रीकृष्ण ने देखा कि एक तरफ कालयवन है तथा दूसरी तरफ जरासंध है, तो इन दोनों के साथ मैं युद्ध करने जाऊं, तो इन दोनों की मार से अपनी प्रजा और सेना का नाश होगा, इसलिए इसका कोई ऐसा रास्ता निकालना चाहिए कि जिससे प्रजा की अच्छी तरह रक्षा हो सके। इस तरह विचार कर श्रीकृष्ण ने श्रीविश्वकर्मा का ध्यान किया। विश्वकर्मा का ध्यान करते ही श्रीविश्वकर्मा हंस के ऊपर विराजमान होकर तत्काल मथुरा नगरी में श्रीकृष्ण के सामने आकर खड़े हो गए। पीले वस्त्रों को धारण करने वाले तथा उत्तम वन मालाओं से शोभित पांच मस्तकों वाले तथा दश भुजाओं वाले विविध आयुधों को धारण करने वाले ऐसे भगवान की स्तुति करने लगे। इसके बाद श्रीकृष्ण के अर्पण किए हुए उत्तम आसन के ऊपर बिराजे हुए श्रीविश्वकर्मा की दोनों भाइयों ने पाद्यापि उपचारों से पूजा की तथा अनेक प्रकार के उत्तम उपहार अर्पण किए और इसके बाद श्रीविश्वकर्मा की दोनों भाइयों ने अपनी प्रजा की रक्षा के लिए आलौकिक शब्दों से प्रार्थना की। श्रीकृष्ण बलदेव से प्रसन्न हुए श्री विश्वकर्मा ने उनके मन का समाधान करने के लिए तथा उनकी सब प्रजा की रक्षा के लिए एक ही क्षण में समुद्र के बीच में एक महान और मजबूत किला बनाकर उसमें द्वारका नगरी की रचना की। सूतजी बोले, हे ऋषियो! प्रभु ने जो द्वारका नगरी की रचना की थी, उसका वर्णन मैं तुमको सुनाता हूं। ये द्वारकावती की  प्रभु श्रीविश्वकर्मा ने क्षण भर में ही रचना की थी। समुद्र के बीच में जब अत्यंत मजबूत किला तैयार हुआ और उस किले के अंदर सारे नगर की रचना हो गई, तब हर कोई उस किले में प्रवेश करने के लिए किले के चारों तरफ फिरकर किले का प्रवेश द्वार ढूंढने लगा। जब किसी को भी ढूंढने पर प्रवेश द्वार न मिला तो वह सब भगवान के पास में आकर कहले लगे कि हे प्रभु इस किले का द्वार कहां है। इस तरह पूछने के कारण ही इस नगरी का नाम द्वारिका रखा गया था। प्रभु श्रीविश्वकर्मा द्वारा श्रीकृष्ण जी की प्रसन्नता के लिए रची हुई इस नगरी की शोभा का वर्णन करना अत्यंत कठिन और दुष्कर है।


Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also,  Download our Android App