विष्णु पुराण

By: Jan 26th, 2019 12:05 am

सुमतेस्तेजसत्सस्मादिन्ब्रद्यु म्नो व्यजावत।

परमेष्ठी ततस्तस्मात्प्रहारस्तदन्बयः।

प्रतिहतंति विख्यात उत्पन्नन्तरय चात्मजः।

भवस्तस्मादथोद्गीथः प्रस्ताबस्तस्तत्सतो विभुः।

पथुस्ततस्तोत नक्को नत्तस्यापि गयः सुतः।

नरो गयस्य तनयस्तत्पुर्त्रोंऽभूद्विराट ततः।

तस्य पुत्रो वहावीर्यो धीमांस्तस्यामदजायनः।

महान्तस्तत्सुतश्चाभून्मनस्युस्तस्त चात्मजः।

त्वस्या त्वष्टुश्च विरजो रजस्तस्वाप्यभूत्युतः।

शतजिद्रजसस्तस्य यज्ञे पुत्रशल मुने।

विष्वरज्योतिः प्रधानास्ते यैरिमा वर्द्धिता प्रजाः।

तैरिद भारत वर्ष नवभेदमङकृतन

तेषां वंशप्रसूयैश्च भुक्तेय भारती पुरा।

कृत्रत्रे तादिसर्गेण युगाख्यामेकसप्ततिम्।

एष स्वाययभ्भुव सर्गो येनेदं पूरितं जगत्।

बाराहे तु मुने कल्मे पूर्वमिन्यन्तराधिपः।

बाराहे तु मुने कल्मे पूर्वमन्यंतराधिपः।

सुमित से इंद्रद्युम्न उत्पन्न हुआ, उसका पुत्र परमेष्ठी और परमेष्ठी का प्रतिहार हुआ। प्रतिहार का पुत्र प्रतिहर्त्ता हुआ, उसका पुत्र भव और उसका उग्दीध और उग्दीध का पुत्र प्रस्ताव हुआ। प्रस्ताव का हुआ पृथु-पृथु का नक्त, नक्त का गय हुआ। गय का नर और नर का विराट हुआ। विराट का पुत्र महावीर्य, महावीर्य का धीमान धीमान का महांत और महांत से मनुस्यु हुआ। मनुस्यु का पुत्र त्वष्टा, त्वष्टा का विरज और विरज का रज हुआ। उस रज का पुत्र शतद्विज हुआ, जिनके सौ पुत्र उत्पन्न हुए। उन सौ में से विष्वग्ज्योति ज्येष्ठ था। उन सौ पुत्रों से प्रजा की बहुत वृद्धि हुई, इसलिए यह भारत वर्ष नौ भागों में विभक्त किया गया। उन्हीं के वंशधरों के कृतत्रेयादि के क्रम से इस भारत बसुंधरा का इकहत्तर युग तक भोग किया था। हे मुने! इस बारह कल्प में सर्व प्रथम मंवन्तर के अधिपति स्वायंभुव मनु का यही वंश है, जिसने उस समय संपूर्ण विश्व को व्याप्त कर लिया था।

कथितो भविता ब्रह्मन्सर्गः स्वायम्भुवश्च मे।

श्रोतुमिच्छामिम्यर्ह त्वत्तः सकलं मंडलं भुवः।।

यावन्तः सागरा द्वीपास्तथा वर्षाणि पर्वताः।

वनानि सरितः पुर्यो देवादीनां तथा मुने।।

यत्प्रमाणमिदं सर्व यदात्मकम।

संस्थानमस्य च मुने यथावद्वक्त मर्हसि।।

मैत्रेय श्रूयतामेतत्सक्षेपाद्गदतो मम।

नास्य वर्षस्शतेनापि वक्तु शक्यो हि विस्तरः।।

जम्बूप्लक्षाहवयो द्वीपौ शान्मलश्चापरो द्विज।

कुशः क्रोञ्चस्तथा शाकः पुष्करश्चैव सप्तमः।।

एते द्वीपाः समुद्रैस्तु सप्त सप्तभिरावृताः।

लवणेक्षु सुरासपिर्द दुग्धकलैः समम।।

श्री मैत्रेयजी ने कहा, हे ब्रह्मण! आपने स्वायभुव मनु के वंश का वृत्तांत मुझसे कहा है। अब मुझे भूमंडल का विचरण सुनने की अत्यंत इच्छा है।

हे मुने! सागर, द्वीप, वर्ष, पर्वत, वन, नदियां, देवादि की पुरियां आदि जो भी हैं, उनका परिणाम, आधार, उपादान, आकार आदि का यथावत वर्णन करिए।

श्रीपराशरजी ने कहा, हे मैत्रेय जी! इन सबको मैं संक्षेप में कह देता हूं, क्योंकि उनका पूरा वर्णन तो सौ वर्ष से भी पूर्ण नहीं होगा।

हे द्विज! जम्बु प्लक्ष, शाल्मल, कुश, क्रौंच, शाक और पुष्कर यह सातों द्विप सब ओर से खारी जल, ईख-रस मदिरा, घी, दही, दूध और मीठे जल के सात समुद्रों से घिरे हुए हैं।


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