शिखर आलोचक थे नामवर सिंह

By: Feb 24th, 2019 12:05 am

श्रद्धांजलि

नामवर सिंह (जन्म : 28 जुलाई 1926, निधन : 19 फरवरी 2019) हिंदी के शीर्षस्थ शोधकार-समालोचक, निबंधकार तथा मूर्धन्य सांस्कृतिक-ऐतिहासिक उपन्यास लेखक हजारी प्रसाद द्विवेदी के प्रिय शिष्य रहे। अत्यधिक अध्ययनशील तथा विचारक प्रकृति के नामवर सिंह हिंदी में अपभ्रंश साहित्य से आरंभ कर निरंतर समसामयिक साहित्य से जुड़े हुए आधुनिक अर्थ में विशुद्ध आलोचना के प्रतिष्ठापक तथा प्रगतिशील आलोचना के प्रमुख हस्ताक्षर थे।

जीवन

नामवर सिंह का जन्म 28 जुलाई 1926 ईस्वी को बनारस (वर्तमान में चंदौली जिला) के एक गांव जीयनपुर में हुआ था। लंबे समय तक 1 मई 1927 को उनकी जन्म-तिथि के रूप में माना जाता रहा है और नामवर जी स्वयं भी अपना जन्म-दिवस इसी तारीख को मनाते रहे हैं, लेकिन यह वस्तुतः स्कूल में नामांकन करवाते वक्त लिखवाई गई तारीख थी।

उन्होंने हिंदी साहित्य में एमए व पीएचडी करने के पश्चात काशी हिंदू विश्वविद्यालय में अध्यापन किया, लेकिन 1959 में चकिया चंदौली के लोकसभा चुनाव में भारतीय कम्युनिस्ट

पार्टी के उम्मीदवार के रूप में चुनाव

लड़ने तथा असफल होने के बाद उन्हें बीएचयू छोड़ना पड़ा। बीएचयू के बाद डा. नामवर सिंह ने क्रमशः सागर विश्वविद्यालय और जोधपुर विश्वविद्यालय में भी अध्यापन किया। लेकिन बाद में जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में उन्होंने काफी समय तक अध्यापन कार्य किया। अवकाश प्राप्त करने के बाद भी वे उसी विश्वविद्यालय के भारतीय भाषा केंद्र में इमेरिट्स प्रोफेसर रहे। वह हिंदी के अतिरिक्त उर्दू, बाङ्ला एवं संस्कृत भाषा भी जानते थे। 19 फरवरी 2019 की रात्रि में नई दिल्ली स्थित एम्स में उनका निधन हो गया। उन्होंने हिंदी आलोचना को नई पहचान दिलाई। वह वास्तव में नामवर आलोचक थे।

प्रकाशित कृतियां

बक़लम ख़ुद-1951 ईस्वी (व्यक्तिव्यंजक निबंधों का यह संग्रह लंबे समय तक अनुपलब्ध रहने के बाद 2013 ईस्वी में भारत यायावर के संपादन में आई पुस्तक प्रारंभिक रचनाएं में नामवर जी की उपलब्ध कविताओं तथा विविध विधाओं की गद्य रचनाओं के साथ संकलित होकर पुनः सुलभ हो गया है।)

शोध ग्रंथ

  1. हिंदी के विकास में अपभ्रंश का योग-1952 (पुनर्लिखित रूप में 1954 ई.)
  2. पृथ्वीराज रासो की भाषा-1956 (संशोधित संस्करण पृथ्वीराज रासो ः भाषा और साहित्य)

आलोचना

आधुनिक साहित्य की प्रवृत्तियां-1954, छायावाद -1955, इतिहास और आलोचना -1957, कहानी ः नई कहानी -1964, कविता के नए प्रतिमान -1968, दूसरी परंपरा की खोज -1982, वाद विवाद संवाद -1989 आदि।

साक्षात्कार

कहना न होगा -1994 व बात बात में बात-2006.

पत्र-संग्रह

काशी के नाम – 2006.

व्याख्यान

आलोचक के मुख से -2005.

संपादित शृंखला की आठ नई पुस्तकें

आशीष त्रिपाठी के संपादन में आई आठ पुस्तकों में क्रमशः दो लिखित की हैं, दो लिखित और वाचिक की, दो वाचिक की तथा दो साक्षात्कार एवं संवाद की ः कविता की ज़मीन और ज़मीन की कविता – 2010, हिंदी का गद्यपर्व – 2010, प्रेमचंद और भारतीय समाज – 2010, ज़माने से दो दो हाथ – 2010, साहित्य की पहचान – 2012, आलोचना और विचारधारा – 2012, सम्मुख – 2012 व साथ-साथ – 2012 आदि। वर्ष 2018 में उनकी पांच पुस्तकें प्रकाशित हुईं, जो उनके अब तक के अप्रकाशित एवं असंकलित लेखन पर आधारित थीं।

इनमें शामिल हैं :आलोचना और संवाद, पूर्वरंग, द्वाभा, छायावाद ः प्रसाद, निराला, महादेवी और पंत तथा रामविलास शर्मा। इनके अतिरिक्त नामवर जी के जेएनयू के क्लास नोट्स भी उनके तीन छात्रों- शैलेश कुमार, मधुप कुमार एवं नीलम सिंह के संपादन में नामवर के नोट्स नाम से प्रकाशित हुए हैं।

नामवर जी का अब तक का संपूर्ण लेखन तथा उपलब्ध व्याख्यान भी इन पुस्तकों में शामिल हैं। नब्बे वर्ष की अवस्था पूर्ण करने के अवसर पर प्रकाशित दो पुस्तकें-आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की जययात्रा तथा हिंदी समीक्षा और आचार्य शुक्ल वस्तुतः पूर्व प्रकाशित सामग्रियों का ही एकत्र प्रस्तुतिकरण हैं।

संपादन कार्य

अध्यापन एवं लेखन के अलावा उन्होंने 1965 से 1967 तक जनयुग (साप्ताहिक) और 1967 से 1990 तक आलोचना (त्रैमासिक) नामक दो हिंदी पत्रिकाओं का संपादन भी किया।

संपादित पुस्तकें

संक्षिप्त पृथ्वीराज रासो -1952 (आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के साथ), पुरानी राजस्थानी-1955 (मूल लेखक-डा. एलपी तेस्सितोरी; अनुवादक – नामवर सिंह), चिंतामणि भाग-3 (1983), कार्ल मार्क्स ः कला और साहित्य चिंतन (अनुवादक-गोरख पांडेय), नागार्जुन ः प्रतिनिधि कविताएं, मलयज की डायरी (तीन खंडों में), आधुनिक हिंदी उपन्यास भाग-2 तथा रामचंद्र शुक्ल रचनावली (सह संपादक -आशीष त्रिपाठी) इत्यादि। इनके अलावा स्कूली कक्षाओं के लिए कई पुस्तकें तथा कुछ अन्य पुस्तकें भी संपादित।

महत्त्वपूर्ण जिम्मेदारियां

नामवर सिंह महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के कुलाधिपति (चांसलर) होने से पहले राजा राममोहन राय पुस्तकालय प्रतिष्ठान के अध्यक्ष (1993-96) भी रह चुके हैं।

सम्मान

साहित्य अकादमी पुरस्कार-1971 ‘कविता के नए प्रतिमान’ के लिए, शलाका सम्मान हिंदी अकादमी, दिल्ली की ओर से, साहित्य भूषण सम्मान उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान की ओर

से, शब्दसाधक शिखर सम्मान-2010 (पाखी तथा इंडिपेंडेंट मीडिया इनिशिएटिव सोसायटी

की ओर से) तथा महावीरप्रसाद द्विवेदी सम्मान-2010 इत्यादि।

साहित्य की विभिन्न विधाओं पर नामवर की यादगार टिप्पणियां

साहित्य की विभिन्न विधाओं पर डा. नामवर सिंह की विचारपूर्ण टिप्पणियां साहित्य कर्मियों के लिए संग्रहणीय रही हैं। उनकी आलोचनात्मक टिप्पणियां साहित्य की विभिन्न विधाओं को परिभाषित करने के साथ-साथ उनका स्वरूप भी निर्धारित करती हैं। यहां पेश है ऐसी ही कुछ आलोचनात्मक टिप्पणियां ः

  1. सरस्वती के मंदिर में मैं एक कवि के रूप में पत्र-पुष्प चढ़ाने आया था, पर जब देखा कि भक्तों ने मंदिर को गंदा कर दिया है तो झाडू लेकर मेहतर (आलोचक) की भूमिका निभाने लगा।
  2. एक छोर पर जाकर कोई अपनी महानता प्रकट नहीं करता, महानता प्रकट करता है दोनों छोरों को एक साथ छूते हुए बीच की समूची जगह को स्वयं भरकर।
  3. मूल्यवान है एक भी ऐसे आलोचक का होना, जो किसी भी चीज को तब तक अच्छा न कहे, जब तक उस निर्णय के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगाने के लिए तैयार न हो।
  4. ब्राह्मण स्वराज्य में निवास करता है और उसकी आवश्यकताएं प्रकृति पूरी करती है, वैसे ही आलोचक बुद्धि के स्वराज्य में विचरण करता है और विकल्प का अवकाश ढूंढता है। चिंतन के क्षेत्र में देशी या विदेशी शास्त्र की विचारधारा को चुनौती देना एक आलोचक की बुद्धि की मुक्तावस्था का सूचक है।
  5. आलोचक का धर्म है उस विकल्प के अवकाश को जहां वह है, रेखांकित करे, जैसे भूगोल का आदमी किसी प्राचीन जमीन पर उस जगह को बताता है कि वह यहां है। सत्ता की सर्वग्राही संस्कृति के बरक्स आलोचक उस विकल्प के अवकाश की तलाश करता है। विकल्प का अवकाश उस स्वतंत्र लोक की खोज है जहां खड़े होकर उसे स्वयं आलोचना-कर्म में प्रवृत्त होना है।
  6. युद्ध क्षेत्र में दुश्मन के सबसे कमजोर मोर्चे पर हमला करके जीत हासिल कर लेना भले ही सफल रणनीति हो, पर बौद्धिक क्षेत्र में सबसे मजबूत और मुश्किल मोर्चे की विजय ही असली विजय है।
  7. इतिहास में दृष्टि भविष्योन्मुखी होती है और इतिहास की चिंता का केंद्रबिंदु ठेठ समसामयिक होता है।
  8. जिस प्रकार सामाजिक इतिहास में विविध सत्ताधारी वर्गों का उत्थान-पतन हो गया, लेकिन आधारभूत जनता कभी खुलेपन में और कुछ अपने अधिकारों के लिए लड़ती चली आ रही है, उसी तरह हिंदी साहित्य की मूल धारा हिंदी जनता के सतत संघर्ष की कहानी है।
  9. देखना यह है कि किसी लेखक में व्यापकता के होते हुए भी जब हम गहराई की कमी पाते हैं तो वस्तुतः वह गहराई की कमी व्यापकता की ही कमी तो नहीं है? इसी तरह कोई लेखक संकीर्ण होते हुए भी गहरा मालूम हो तो विचारने की जरूरत है कि कहीं उनकी उस गहराई में तो कमी नहीं है?
  10. लेखक की रचना में गहराई का समावेश तभी आ सकता है जब उसका व्यक्तित्व सामाजिक, मानवीय तथा सांस्कृतिक परिवेश की गहनता से आच्छादित होता है। इस प्रकार की अनुभूति समय सापेक्ष परिस्थितियों की गहराई से समाज को प्रभावित करती है।

वाचिक आलोचना का पुरोधा कोई नामवर ही हो सकता था

डा. सुशील कुमार फुल्ल

साहित्यकार

सन् 1983 का तृतीय विश्व हिंदी सम्मेलन नई दिल्ली में आयोजित हुआ था, जिसमें विश्व के अनेक देशों के प्रतिनिधियों ने बढ़-चढ़ कर भाग लिया था। देश-विदेश के दिग्गजों की उपस्थिति ने इसे विशेष बना दिया था। महादेवी वर्मा, रामविलास शर्मा, उपेंद्र नाथ अश्क जैसी अनेक विभूतियां इस महासम्मेलन में विराजमान थीं। मंच का संचालन युवा आलोचक एवं प्रखर अध्यापक डा. नामवर सिंह कर रहे थे। हर सत्र के समापन के बाद डा. नामवर बोलते और बुलवाते ः जय हिंदी, जय नागरी। वहीं से यह उद्घोष एवं प्रेरक शब्द प्रचलित हो गया। एक सत्र के बाद जब नामवर माइक छोड़ कर गए तो उपेंद्र नाथ तुरंत मंच पर चढ़ आए और उन्होंने अपना भाषण शुरू कर दिया कि मैं अब क्यों लिखूं, मैं तो नींबू पानी बेचूंगा। वह लेखकों को न मिलने वाली रायल्टी की वजह से दुखी थे।

डा. नामवर सिंह दौड़े-दौड़े आए और उन्होंने बड़ी मुश्किल से माइक बंद करवाया। इस समय तक डा. नामवर एक जाना-पहचाना नाम हो चुका था। आलोचना पत्रिका का निरंतर संपादन और अपने प्रतिमानों की चर्चा-परिचर्चा को वह अपने ढंग से स्थापित कर चुके थे। प्रगतिवादी आलोचकों में वह ख्यात हो चुके थे तथा अपने ग्रंथों में व्यक्त मान्यताओं के कारण खूब चर्चित भी हो चुके थे। उनके प्रमुख ग्रंथों में ‘हिंदी के विकास में अपभ्रंश का योगदान’, ‘छायावाद ः इतिहास और आलोचना-1954’, ‘आधुनिक साहित्य की प्रवृत्तियां-1958’, ‘कहानी ः नई कहानी-1964’, ‘कविता के नए प्रतिमान-1968’ व ‘दूसरी परंपरा की खोज-1982’ आदि हैं। यद्यपि नामवर सिंह को मार्क्सवादी आलोचक माना जाता है, फिर भी अधिकांश विद्वानों ने यह स्वीकार किया है कि नामवर सिंह कट्टरवादिता के शिकार नहीं थे।

डा. बच्चन सिंह ने तो उनके बारे में लिखा है –‘वे मार्क्सवाद की ऐतिहासिक दृष्टि को लेते हुए भी उसके अतिशय से बचते हैं। मार्क्सवादी आलोचकों में शब्द मीमांसा पर शायद ही कोई इतना बल देता होगा। इससे आलोचना में एक प्रासंगिकता आती है।’ वस्तुतः विषय प्रतिपादन की गंभीरता, शैली की तार्किकता एवं अथव्यंजना के सौष्ठव की दृष्टि से डा. नामवर सिंह को अपनी पीढ़ी के आलोचकों में अत्यधिक महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। अपने पूर्ववर्ती प्रगतिवादी आलोचकों से नामवर इस दृष्टि से भिन्न हैं कि उन्होंने कविता को संकीर्णता से नहीं अपितु उदार दृष्टि एवं सहानुभूति के साथ देखा। मुक्तिबोध इसी दृष्टिकोण की मांग कर रहे थे। छायावाद पर लिखित अपनी पहली ही पुस्तक में नामवर सिंह ने परंपरागत उठापटक को छोड़कर छायावादी कविता में निहित सामाजिक तत्त्वों का दिग्दर्शन करवाया। कविता के प्रतिमान पहले से उपस्थित थे, परंतु उन्होंने अपने ढंग एवं अपने विचारों के अनुसार उनकी व्याख्या की और इसीलिए खूब चर्चित भी हुए। उन्होंने नई कविता के सामाजिक मूल्यों की ओर भी हिंदी पाठकों का ध्यान आकर्षित किया।

विद्वानों ने यहां तक भी कहा कि नामवर सिंह ने अपनी पुस्तक में परंपरा और प्रतिष्ठित प्रतिमानों की प्रासंगिकता पर अत्यंत विध्वंसात्मक शैली में विचार किया है और इसी पुस्तक के दूसरे खंड में नई कविता के प्रतिमानों को काव्यात्मक मूल्यों के स्तर पर स्थापित किया है। डा. नामवर सिंह ने नई कविता के प्रतिमानों को स्थिर करते हुए मुक्तिबोध के काव्य को आधार बनाया है। एक ओर नामवर सिंह ने काव्य समीक्षा को ऊंचाइयों तक पहुंचाया तो दूसरी ओर कहानी समीक्षा का भी मार्ग प्रशस्त किया। वस्तुतः नई कहानी का टैग देने में भी डा. नामवर सिंह की परिकल्पना ही काम कर गई। एक बार नई कहानी विशेषण रूढ़ हो गया, फिर तो यह सब उसी के इर्द-गिर्द घूमता रहा। कविता एवं कहानी समीक्षा के माध्यम से ही नामवर ने आलोचना के क्षेत्र में शिखरों का स्पर्श किया। धीरे-धीरे नामवर सिंह के मुखारविंद से निकला एक-एक शब्द आलोचना में ब्रह्म वाक्य बनता चला गया और डा. नामवर सिंह को भी वाचिक आलोचना में आनंद आने लगा।

कहते हैं कि उन्होंने लगभग तीन हजार पुस्तकों का लोकार्पण किया और वहां से जो भी शब्द उनके मुख से निकला, वह लेखकों के लिए संबल बन गया और उन्हें ख्याति दिलाने में सहायक हुआ। और इसका नुकसान यह हुआ कि उन्होंने फिर लिखित समीक्षा की ओर उतना ध्यान नहीं दिया जितना उन जैसे विद्वान से अपेक्षित था और इसीलिए वह वाचिक आलोचना के पुरोधा बन गए। दूरदर्शन पर भी जब वह किसी पुस्तक की चर्चा करते, जो भी वाणी उनके मुख से निकलती, वह लेखक के लिए संजीवनी बन जाती।

पांच-सात वर्ष पहले वह चंडीगढ़ में एक पुस्तक का विमोचन करने आए तो उसमें भी उन्होंने पुस्तक के बारे में कुछेक शब्द ही बोले जो सामान्य अधिक थे, विशिष्ट कम, लेकिन लेखक ने उन्हें अपनी गांठ में बांध लिया और नामवर का कथन मान अपनी पीठ थपथपा

ली। निस्संदेह नामवर आलोचना का एक आकाश स्तंभ थे। उनकी मौलिकता, उनकी हुंकार के आगे उनके समकालीन आलोचक फीके पड़ते रहे हैं। नामवर सिंह का जाना एक महान पुरोधा का अवसान है और विशेषकर आलोचना के क्षेत्र में।

नामवर की समीक्षा में जब उतरे हरनोट…

डा. नामवर सिंह ने हिमाचल के प्रसिद्ध कहानीकार एसआर हरनोट की ‘जीनकाठी तथा अन्य कहानियों’ पर न केवल मार्च 2009 में दूरदर्शन के साहित्य कार्यक्रम में लंबी चर्चा की थी, बल्कि पब्लिक एजेंडा में भी इस संग्रह पर लिखा था। बाद में उन्होंने इस पुस्तक का चयन साहित्य की प्रतिष्ठित पत्रिका पाखी द्वारा प्रतिवर्ष दिए जाने वाले ‘जेसी जोशी शब्द साधक जनप्रिय लेखक सम्मान’ के लिए किया। यहां हम पाठकों की सुविधा के लिए ‘जीनकाठी’ नामक कहानी की डा. नामवर सिंह द्वारा की गई समीक्षा को पेश कर रहे हैं…

एसआर हरनोट हिमाचल के ऐसे कथाकार हैं, जिन्होंने वहां की प्रकृति और पर्यावरण के साथ-साथ जीवन और संस्कृति को भी अपनी कहानियों में जगह दी है। पहाड़ का वातावरण जितना मनोहारी होता है, जीवन उतना ही कठिन। सैलानी की नजर से देखने पर वहां के जीवन संघर्ष को नहीं समझा जा सकता है। हरनोट ने संस्कृति व परंपराओं के बीच उस जीवन संघर्ष को पकड़ने की कोशिश की है और उसके माध्यम से आने वाले सामाजिक बदलावों की ओर भी संकेत किया है। ‘जीनकाठी तथा अन्य कहायिं’ उनका नवीनतम संग्रह है जिसमें 2001 से 2007 के बीच की उनकी नौ कहानियां संकलित हैं। इनमें शीर्षक कहानी ‘जीनकाठी’ एक लंबी कहानी है, 28 पृष्ठों की। हिमाचल प्रदेश में ‘बेड़ा’ नाम की एक दलित जाति होती है। उनसे जुड़ा वहां एक त्योहार होता है, ‘भुंडा’ नाम का त्योहार, जिसके बारे में हम लोगों को जानकारी नहीं है।

उस त्योहार में एक दलित को पहाड़ की चोटी से रस्सी के सहारे नीचे उतारा जाता है, उस एक दिन के लिए उसे यज्ञोपवीत धारण कराकर ब्राह्मण बना दिया जाता है। ईश्वर व देवता की तरह उसकी पूजा की जाती है और आशीर्वाद मांगा जाता है। कहानी इस प्रकार है कि गांव के सेवानिवृत्त तहसीलदार भगवान दत्त शर्मा ने इलाके में अपना प्रभाव जमाने व बढ़ाने के लिए काफी पहले बंद हो चुके ‘भुंडा’ त्योहार को फिर से मनाने के लिए निर्णय लिया और उस दलित परिवार को तलाशा, जिसे बहुत साल पहले गांव से इसी त्योहार की असफलता के चलते भगा दिया गया था। तब रस्सी बीच में ही टूट गई थी और उस पर सवार ‘बेड़ा’ की मौत हो गई थी। शर्मा जी ने किसी तरह उसके वंशज सहजराम को इस त्योहार में ‘भुंडा’ बनने के लिए तैयार कर लिया। लेखक ने ‘जीनकाठी’ के सहारे रस्सी पर चढ़ने का बहुत ही अच्छा वर्णन किया है। ‘‘अब ‘जीनकाठी’ पकड़ी और टिकाकर रस्से पर बांध दी। इसे सहजू ने स्वयं बनाया था। उसके दोनों तरफ रेत की बोरियां टिका दी गई थीं ताकि बराबर भार रहे। सहजू के लिए वह सचमुच की घोड़ी थी जिस पर सवार होकर उसे मौत का एक लंबा और खतरनाक सफर तय करना था। गांव का कलंक धोना था और लोगों के पुण्य का भागीदार बनना था…एक अछूत होकर नहीं बल्कि ब्राह्मण, देवता और भगवान बनकर। उसके मन में कई तरह के ख्याल आने लगे थे।

वह सोच रहा था कि उसकी यह दुर्लभ ‘बेड़ा’ जाति एक ‘जीनकाठी’ ही तो है, जिसका इस्तेमाल अपनी स्वार्थपूर्ति और तमाम पुण्य के भागीदार बनने के लिए शर्मा या उस जैसे तमाम उच्च वर्ग के लोग सदियों से करते आ रहे हैं। इसके एवज उस अछूत को क्या मिलेगा? सिर्फ कुछ क्षणों का ब्राह्मणत्व और देवत्व! वह जोर से हंसा और जीनकाठी पर बैठकर रस्से से नीचे सरक गया…हाथ में एक सफेद रुमाल को लहराता हुआ।

उसे ऐसा लग रहा था मानो वह आसमान से धरती पर उतर रहा हो। मध्य में पहुंचकर वह थोड़ा घबरा भी गया। एक बार जरा सा संतुलन बिगड़ गया था, पर उसने अपने आप को संभाल लिया। अन्यथा इतनी ऊंचाई से गिरकर वह कहां बच पाता! देवता के वाद्य पूरे जोश व ताल में बज रहे थे। वातावरण पूरी तरह देवमय हो गया था, लेकिन उन वाद्य के बीच एक पल के लिए सहजू की पत्नी की सांसें रुक गई थीं…।’’ लेकिन धरती पर उतरने से पहले उसने गांव में अपनी जमीन वापस पाने की शर्त रख दी, जिसे शर्मा जी को मान लेना पड़ा। बात वहीं खत्म नहीं हुई, कहानी के अंत में मुख्यमंत्री ने शर्मा जी की पीठ जरूर थपथपाई, मगर सहजराम को लोकसभा का उम्मीदवार बनाने का संकेत देकर उनकी महत्त्वाकांक्षा पर पानी भी फेर दिया। हरनोट की भाषा सहज है और शिल्प के स्तर पर भी कोई नया प्रयोग नहीं दिखलाई देता, लेकिन अनुभव-संसार एकदम नया और अनूठा है। हिमालयी जीवन और उसके रूढि़ग्रस्त समाज में दलितों की स्थिति का जो चित्रण इस कहानी में उन्होंने किया है, उसके लिए उन्हें अलग से याद किया जाना चाहिए।

नामवर से जुड़े प्रमुख विवाद

हिंदी साहित्य के इतिहास में एक समय ऐसा भी आया जब डा. नामवर सिंह की ओर से की गई आलोचना के कारण गहन विवाद पैदा हो गए। ऐसे ही एक विवाद का हम यहां उल्लेख कर रहे हैं। यह विवाद रामविलास शर्मा के साहित्य की नामवर द्वारा की गई आलोचना से संबंधित है। रामविलास शर्मा के प्रति नामवर सिंह की आलोचना साहित्य-कर्मियों को दो गुटों में बांट देती है। एक गुट नामवर का समर्थन करता है, जबकि दूसरा गुट उनकी इस आलोचना को सही न मानते हुए रामविलास शर्मा का समर्थन करता है। वास्तविकता यह है कि अपने रचना-कर्म के आखिरी दशक में रामविलास शर्मा ज्यादातर संस्कृति और इतिहास के प्रश्नों से जूझते रहे। उस दौर में उनकी कई अकादमिक स्थापनाएं विवादास्पद मानी गईं। इस पर कटाक्ष करते हुए नामवर सिंह ने लिखा, ‘उनकी ज्यादातर पुस्तकें ऋग्वेद से शुरू होती हैं जो संघ-परिवार के फासिस्ट इरादों को एक हथियार प्रदान कर रही हैं।’ रामविलास शर्मा की मृत्यु के पश्चात नामवर जी के संपादन में निकलने वाली आलोचना-2001 के ‘रामविलास अंक’ में कहीं प्रत्यक्ष तो कहीं परोक्ष रूप से रामविलास शर्मा के उद्देश्य को ही संदिग्ध बताया गया। कहीं सीधे-सीधे ही उन्हें वर्णव्यवस्था का पोषक, प्रछन्न हिंदुत्ववादी, अंधराष्ट्रवादी-प्राच्यवाद का प्रचारक अथवा फंडामेंटलिस्ट कहा गया है। दूसरी ओर यह स्थापित बात है कि रामविलास शर्मा के चिंतन में चाहे जितने अंतर्विरोध या अतिरेक रहे हों, उन्होंने ताउम्र नस्लीय श्रेष्ठता और रक्त-शुद्धता के उस विचार को ध्वस्त किया था जिस पर कोई भी फासिस्ट शिराजा खड़ा होता है।


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