अंतरिक्ष में ‘सर्जिकल स्ट्राइक’

By: Mar 29th, 2019 12:05 am

27 मार्च, 2019 की तारीख भी इतिहास में दर्ज हो गई। भारत अंतरिक्ष की महाशक्ति वाला चौथा देश बन गया। हमारे वैज्ञानिकों ने ‘मिशन शक्ति’ का सफल परीक्षण किया है। लक्ष्य पर हमारी ही पुरानी, अनुपयोगी सेटेलाइट थी, जो लंबे अंतराल से पृथ्वी की परिक्रमा कर रही थी। मात्र 1-2 मीटर व्यास वाली यह सेटेलाइट रोजाना पृथ्वी के 16,000 चक्कर काटा करती थी। उसकी गति 24,000 किलोमीटर प्रति घंटे की थी। पृथ्वी की सतह से 300 किमी ऊंचाई पर गतिशील सेटेलाइट को निशाना बनाया गया और सिर्फ तीन मिनट के अंतराल में ही उसे मार गिराया। घूमती-चलती सेटेलाइट पर पहली बार सफल निशाना साधने और उसे ध्वस्त करने का ‘मिशन शक्ति’ कामयाब रहा है। वैज्ञानिक इसे परमाणु परीक्षण से भी बड़ा और ज्यादा महत्त्वपूर्ण आपरेशन करार दे रहे हैं। अब न तो कोई दुश्मन देश हमारी जासूसी कर सकेगा और न ही कोई मिसाइल हमले का दुस्साहस कर सकेगा। अब हम अंतरिक्ष युद्ध में भी सक्षम हैं, हालांकि युद्ध और अंतरिक्ष में हथियारों की होड़ हमारी राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय नीति का हिस्सा नहीं है। यह परीक्षण कर भारत ने किसी अंतरराष्ट्रीय नियम या संधि का भी उल्लंघन नहीं किया है। प्रधानमंत्री मोदी और हमारे महान वैज्ञानिकों ने यह स्पष्ट कर दिया है। अंतरिक्ष में हथियारों की तैनाती को लेकर बाहरी अंतरिक्ष संधि 1967 में हुई थी, जिसमें भारत शुरू से ही शामिल रहा है। यह संधि अंतरिक्ष में ऐसे हथियार तैनात करने पर पाबंदी लगाती है, जो जनसंहारक हों। भारत की एंटी सेटेलाइट प्रणाली किसी भी तरह इस संधि का उल्लंघन नहीं करती, लिहाजा विश्व के बड़े देश भारत की सफलता पर आज ताली बजा रहे हैं। अब दुनिया में अमरीका, रूस, चीन के बाद यह ‘मिसाइल पराक्रम’ भारत के पास भी है। अब चीन हमें आंखें तरेर कर नहीं देख सकता। पाकिस्तान की रूह तो कांप रही होगी, क्योंकि उसने इस परीक्षण में युद्ध की संभावनाओं को देखना शुरू कर दिया है। नतीजतन ‘आतंकिस्तान’ ने शांति और स्थिरता की जुबान बोलना शुरू कर दिया है। चीन की प्रतिक्रिया भी सामान्य नहीं है। उसने अंतरिक्ष में शांति कायम रखने की बात कही है। बेशक ‘मिशन शक्ति’ अद्भुत, अजेय, अपूर्व, अकल्पनीय उपलब्धि है। हमें वैज्ञानिकों के हुनर और शोध पर गर्व महसूस करना चाहिए। अब सिर्फ ‘भारत’ को महान देश मानने के लम्हे हैं। भारत ने यह सफल परीक्षण कर साबित कर दिया है कि वह न सिर्फ भविष्य की रक्षा चुनौतियों के लिए तैयार है, बल्कि उसके लिए अंतरिक्ष ऐसा क्षेत्र है, जहां अब कोई चुनौती शेष नहीं है। अब यह माना जाता है कि भविष्य में युद्ध जमीन, जल या आकाश में ही नहीं, अंतरिक्ष में भी लड़े जाएंगे। इस सामरिक तैयारी के लिए डीआरडीओ और इसरो को सलाम…। दुनिया में सबसे पहले अमरीका ने 1958-59 में एंटी सेटेलाइट हथियार का परीक्षण किया था। उसके बाद रूस (सोवियत संघ) ने 1961 में यह परीक्षण कर चुनौती को दोहरा कर दिया। चीन ने 2007 में इस हथियार का परीक्षण किया और चुनौतियां भारत पर भी छाने लगीं। डीआरडीओ के पूर्व प्रमुख  और यूपीए सरकार के दौरान रक्षा मंत्री के सलाहकार रहे डा. वीके सारस्वत का कहना है-‘2007 में हमने भी यह क्षमता हासिल कर ली थी। ‘अग्नि-5’ मिसाइल के सफल परीक्षण के बाद हमने सरकार को कहा था कि हम सेटेलाइट इंटरसेप्ट कर सकते हैं। तब के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार से इस प्रोजेक्ट के लिए फंड भी मांगा गया था, लेकिन सरकार का रेस्पांस पॉजीटिव नहीं रहा। यदि 2012 में ही सरकार की  इजाजत मिल गई होती, तो 2014-15 में ही यह परीक्षण किया जा सकता था।’ जब नरेंद्र मोदी देश के प्रधानमंत्री बने और यह प्रस्ताव उनके सामने रखा गया, तो उन्होंने स्वीकृति दे दी और आज परिणाम पूरी दुनिया के सामने है। अब डीआरडीओ का बजट ही 18,000 करोड़ रुपए से अधिक है। चूंकि प्रधानमंत्री मोदी ने देश के सभी टीवी चैनलों पर इस ‘गर्वीली सफलता’ की घोषणा की और कुछ देर संबोधन भी दिया, लिहाजा इतनी विराट उपलब्धि पर भी सियासत शुरू हो गई। अंतरिक्ष और परमाणु परीक्षण दशकों तक वैज्ञानिकों की अनथक मेहनत और निरंतर शोध के निष्कर्ष होते हैं। वैज्ञानिक चुनावी तारीखों के मुताबिक काम नहीं करते। राष्ट्रीय सुरक्षा के साथ खिलवाड़ नहीं किया जा सकता, लिहाजा प्रधानमंत्री ने कैबिनेट की सुरक्षा समिति की बैठक बुलाई और विमर्श के बाद यह घोषणा की, तो विपक्षी दल चिरचिरा पड़े। कुछ दलों ने आपत्तिजनक व्यंग्य भी कसे। माथा पीटने का मन करता है, क्योंकि राष्ट्रीय महत्त्व के मुद्दे पर भी राजनीतिक दलों में सहमति और एकता दिखाई नहीं देती। याद करें 1984 का वह दौर, जब हमारे प्रथम अंतरिक्ष यात्री राकेश शर्मा अंतरिक्ष में थे और नीचे से तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने जानना चाहा था कि आसमान से भारत कैसा दिखाई देता है? वह भी चुनावी वर्ष था। तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने अपने चुनाव प्रचार में ‘अग्नि’ मिसाइल का इस्तेमाल किया था। अब यह दुर्लभ और ऐतिहासिक उपलब्धि प्रधानमंत्री मोदी के कालखंड में हासिल हुई है, तो श्रेय वैज्ञानिकों के साथ-साथ उन्हें क्यों नहीं मिलना चाहिए? लोकतंत्र में राजनीतिक फैसले ही अंतिम होते हैं। कमोबेश हाय-तौबा की ऐसी संस्कृति से हमारे दलों और नेताओं को बाज आना चाहिए।


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