अयोध्या विवाद पर नया प्रयोग

By: Mar 11th, 2019 12:05 am

अयोध्या विवाद पर एक और प्रयोग किया जा रहा है। सर्वोच्च न्यायालय ने एक मध्यस्थता पैनल बनाया है। जस्टिस (रि.) खलीफुल्लाह के नेतृत्व में श्रीश्री रविशंकर और अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थ की मान्यता प्राप्त वरिष्ठ वकील श्रीराम पंचू विमर्श करेंगे कि अयोध्या विवाद पर ऐसा क्या फार्मूला हो सकता है, जिसे हिंदू और मुसलमान दोनों ही समुदाय स्वीकार कर सकें। ऐसे प्रयोग पहले भी किए जा चुके हैं, लेकिन इस बार फर्क यह है कि बातचीत फैजाबाद के बंद कमरे में होगी और पूरी तरह गोपनीय होगी। मीडिया भी सूत्रों के मुताबिक या हवा के झोंके के आधार पर मिली सूचना की खबर नहीं लिख सकेगा। अयोध्या विवाद के कुछ पक्षकारों ने शीर्ष अदालत के इस प्रयोग का स्वागत किया है, लेकिन संघ परिवार में उमा भारती, विनय कटियार, डा. सुब्रह्मण्यम स्वामी सरीखे नेताओं का दावा है कि अयोध्या में प्रभु श्रीराम के भव्य मंदिर के अतिरिक्त कुछ भी नहीं बनाया जा सकता। बहरहाल इस प्रयोग के जरिए संवाद की एक और प्रक्रिया शुरू हो रही है। राम मंदिर या बाबरी मस्जिद पर यह न तो किसी फैसले का संकेत है और न ही किसी समाधान पर पहुंचने का ठोस जरिया है। सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व प्रधान न्यायाधीश जस्टिस जेएस खेहर ने पदासीन रहते हुए मध्यस्थता का सुझाव दिया था, बल्कि वह खुद भी मध्यस्थता का हिस्सा बनना चाहते थे, लेकिन एक भी सहमति दिखाई नहीं दी, नतीजतन वह प्रयास नाकाम रहा। उसके पहले वीपी सिंह, चंद्रशेखर, पीवी नरसिंह राव और अटलबिहारी वाजपेयी की सरकारों के दौरान भी मध्यस्थता या आम सहमति के प्रयास और प्रयोग किए गए। आध्यात्मिक गुरू श्रीश्री रविशंकर ने मौजूदा मोदी सरकार के दौरान अयोध्या जाकर पक्षकारों से संवाद किया। यहां तक बयान दिया कि अयोध्या में राम मंदिर नहीं बना, तो वह सीरिया बन जाएगा। उन्हें भी गंभीरता से नहीं लिया गया, लेकिन अब उन्हें मध्यस्थता पैनल में रखा गया है। निहितार्थ यह नहीं है कि इस प्रयोग से भी हम निराश हैं, लेकिन सवाल यह है कि बार-बार मध्यस्थता के मायने क्या हैं? अयोध्या विवाद मिलिकीयत के साथ-साथ करोड़ों भारतीयों की आस्था और भावनाओं का मुद्दा भी है। सुप्रीम कोर्ट के निर्णय और विचार पर कोई सवाल नहीं किया जा सकता और न ही हमारा कोई इरादा है। एक छोटी-सी जिज्ञासा है कि शीर्ष अदालत की न्यायिक पीठ के सामने सभी दस्तावेज हैं, इलाहाबाद उच्च न्यायालय का 2010 का फैसला भी है, उसके आधार भी व्याख्यायित हैं, हजारों पन्नों के पुराने दस्तावेज अनूदित किए जा चुके हैं, तो मध्यस्थता का एक और प्रयोग करने के बजाय न्यायिक पीठ सुनवाई शुरू क्यों नहीं कर सकती थी? अंततः मध्यस्थता पैनल का निष्कर्ष और फार्मूला भी सर्वोच्च न्यायालय के सामने आना है और उसके आधार पर सुनवाई शुरू होगी। सवाल यह भी है कि समय को क्यों खींचा जा रहा है? यह तो स्पष्ट हो चुका है कि राम मंदिर एक चुनावी मुद्दा नहीं बनेगा और न ही यह चुनावी मुद्दा है। यह जरूर है कि भाजपा को शुरुआती दौर में इसका लाभ मिला था, जब 1989 में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी ने राम मंदिर का प्रस्ताव पारित किया था। भाजपा लोकसभा में मात्र 2 सांसदों से 86 सांसदों तक पहुंच गई थी, लेकिन उसके बाद के चुनावों में उप्र से भाजपा के 9-10 सांसद ही जीत कर आ पाए। 2014 के चुनाव घोषणा पत्र में राम मंदिर निर्माण का आश्वासन था, लेकिन उन चुनावों में यह प्रमुख मुद्दा नहीं था और न ही 2019 के आम चुनाव इसके आधार पर होंगे। अलबत्ता यह बेहद संवेदनशील सरोकार जरूर है, लिहाजा इसका निपटारा यथाशीघ्र होना चाहिए। हालांकि ‘अयोध्या’ शब्द और उसकी व्यंजना में ‘युद्ध’ नहीं है, लेकिन इस मुद्दे पर देश का संप्रदायीकरण हुआ है और 1992 में विवादित ढांचे के विध्वंस के बाद दंगे भी हुए हैं। इस स्थिति की चिंता भी की जानी चाहिए, लेकिन हिंदू-मुसलमान विभाजन की भावना खत्म होनी चाहिए। बहरहाल अब तो देश को इंतजार करना पड़ेगा कि मध्यस्थता किस हद तक कामयाब रहती है और उसका फार्मूला क्या सामने आता है?


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