परमात्मा की निकटता

By: Mar 23rd, 2019 12:05 am

बाबा हरदेव

अब जैसे-जैसे मनुष्य असल धर्म के नजदीक जाता है मनुष्य की ‘घृणा’ की वृत्ति मिटनी शुरू हो जाती है। इसकी ‘घृणा’ गलनी शुरू हो जाती है। जिस प्रकार सूरज के पास कोई बर्फ की चट्टान जब जाती है ये पिघलने लग जाती है, मिटने लग जाती है, ऐसे ही मनुष्य को जब पूर्ण सद्गुरु द्वारा परमात्मा की निकटता का बोध हो जाता है तब इसकी जमी हुई ‘घृणा’ पिघलने लगती है। महात्माओं का ये भी कथन है कि घृणा इस प्रकार से अंधी है और इसका अंधापन ही इसका प्रमाण है। इसलिए मनुष्य का ‘घृणा’ के कारण प्रेम जैसे दैवी गुण से दूर हो जाना अनिवार्य है। जहां भी समर्पण की जरूरत हो वहां घृणा की वजह से मनुष्य दूर भागने की चेष्टा करता रहता है और तो और ‘घृणा’ करने वाला मनुष्य पूर्ण सद्गुरु के पास भी नहीं पहुंच पाता, क्योंकि सद्गुरु के चरणों में पहुंचना भी परम प्रेम की घटना है, जहां अहंकार को तिलांजलि देनी पड़ती है, ‘घृणा’ को छोड़ना होता है हृदय से झुकना पड़ता है जो घृणा करने वाले को स्वीकार नहीं है, क्योंकि मनुष्य ने जो घृणा रूपी राजमुकुट पहन रखे हैं इनको उतार फेंकना पड़ता है। अतः कहना पड़ेगा कि ये ‘घृणा’ ही तो बाधा है प्रेम के लिए क्योंकि जब हम घृणा से इतने भर जाते हैं, तो हम दूसरों का शोषण करने लग जाते हैं फिर हम दूसरों का साधन की तरह उपयोग करते हैं और हम प्रेम नहीं कर सकते, क्योंकि घृणा ने कब प्रेम को जाना है? ‘घृणा’ तो विध्वंसक है, सृजनात्मक नहीं, इसलिए जीवन में जो भी महान सृजन की घड़ी आती है वो तभी घटती है जब घृणा नहीं होती। प्रेम के द्वार तभी खुलते हैं जब मनुष्य ऐसे जीने लगता है जैसे ये शून्य है घृणा रहित है। अतः घृणा के तिरोहित होने पर समझो कि हम एक प्रकार की खाली गागर लेकर जाते हैं पूर्ण सद्गुरु के पास और सद्गुरु की करुणा में इस गागर में प्रेम का सागर उतरना शुरू हो जाता है। मानो ‘घृणा’ की मृत्यु ही प्रेम का जन्म है। आम आदमी की ये आदत सी होती है कि भले उसे जांच-पड़ताल करने पर साफ पता चल जाए कि फलां आदमी सच में ही महिमा युक्त है तो भी ये चुप रहता है और अगर बिना जांच-पड़ताल किए भी पता चल जाए कि कोई मनुष्य निंदा योग्य है, तो इसकी मूर्खता का अंत नहीं, फिर इसे हजार पंख लग जाते हैं तब ये ऐसी निंदा करता है कि तौबा ही भली। मानो निंदा पर हम जल्द आतुर हो जाते हैं। अतः जब कोई किसी की बुराई कर रहा होता है तो हमारा मन बड़ा रस से भर जाता है, जब कोई किसी की प्रशंसा कर रहा हो, तो हम बड़े विषाद से भर जाते हैं, क्योंकि जब भी हम किसी की निंदा सुनते हैं तो हमारे अहंकार को लगता है कि हम बेहतर हैं इसके विपरीत जब हम किसी की प्रशंसा सुनते हैं तो हमें बड़ी पीड़ा होती है कि कोई हमसे भी बेहतर है, ये कैसे हो गया? अतः निंदा को हम बिना किसी विवाद के स्वीकार करते हैं, जबकि प्रशंसा के साथ हम बड़ा विवाद करते हैं, अगर कोई मनुष्य कहे कि फलां आदमी पापी है, तो हम कभी नहीं पूछते कि कोई कारण! कोई नहीं पूछता कोई प्रमाण, बस हम फौरन जाकर इसके पाप की खबर दूसरे को देने चल पड़ते हैं और तो और हम इस खबर में काफी मिर्च-मसाला मिला देते हैं। मानो जितना हम जानते हैं उससे ज्यादा हम कहते हैं, लेकिन अगर कोई आदमी कहे कि फलां आदमी महात्मा है, तो हम हजार सवाल उठाते हैं और फिर संदेह बना रहता है कि अभी इस आदमी की पोल पट्टी खुली नहीं है आज नहीं तो कल खुल जाएगी। ये महात्मा नहीं हो सकता, क्योंकि यही एक तरकीब है, जिससे हमारा अहंकार भरता है।


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